पत्नी
जैनेंद्र कुमार
शहर के एक ओर एक तिरस्कृत मकान। दूसरा तल्ला। वहाँ चौके में एक स्त्री अँगीठी सामने लिए बैठी है। अँगीठी की आग राख हुई जा रही है। वह जाने क्या सोच रही है। उसकी अवस्था बीस-बाईस के लगभग होगी। देह से कुछ दुबली है और संभ्रांत कुल की मालूम होती है।
एकाएक अँगीठी में राख होती हुई आग की ओर स्त्री का ध्यान गया। घुटनों पर हाथ देकर वह उठी। उठकर कुछ कोयले लार्इ। कोयले अँगीठी में डालकर फिर किनारे ऐसे बैठ गई, मानो याद करना चाहती है कि ‘अब क्या करूँ?’ घर में और कोई नहीं है और समय बारह से ऊपर हो गया है।
दो प्राणी इस घर में रहते हैं, पति और पत्नी। पति सबेरे से गए हैं कि लौटे नहीं और पत्नी चौके में बैठी है।
वह (सुनंदा) सोचती है-नहीं, सोचती कहाँ है, अलसभाव से वह तो वहाँ बैठी ही है। सोचने को है तो यही कि कोयले न बुझ जाएँ।…वह जाने कब आएँगे। एक बज गया है। कुछ हो, आदमी को अपनी देह की फ़िक्र तो करनी चाहिए।…और सुनंदा बैठी है। वह कुछ कर नहीं रही है। जब वह आएँगे तब रोटी बना देगी। वह जाने कहाँ-कहाँ देर लगा देते हैं। और कब तक बैठूँ। मुझसे नहीं बैठा जाता। कोयले भी लहक आए हैं। और उसने झल्लाकर तवा अँगीठी पर रख दिया। नहीं, अब वह रोटी बना ही देगी। उसने ज़ोर से खीझकर आटे की थाली सामने खींच ली और रोटी बेलने लगी।
थोड़ी देर बाद उसने ज़ीने पर पैरों की आहट सुनी। उसके मुख पर कुछ तल्लीनता आर्इ। क्षण-भर वह आभा उसके चेहरे पर रहकर चली गई और वह फिर उसी भाँति काम में लग गई।
कालिंदीचरण (पति) आए। उनके पीछे-पीछे तीन और उनके मित्र भी आए। ये आपस में बातें करते चले आ रहे थे। और ख़ूब गर्म थे। कालिंदीचरण मित्रों के साथ सीधे अपने कमरे में चले गए। उनमें बहस छिड़ी थी। कमरे में पहुँचकर रुकी हुई बहस फिर छिड़ गई। ये चारों व्यक्ति देशोद्धार के संबंध में बहुत कटिबद्ध हैं। चर्चा उसी सिलसिले में चल रही है। भारतमाता को स्वतंत्र करना होगा-और नीति-अनीति हिंसा-अहिंसा को देखने का यह समय नहीं है। मीठी बातों का परिणाम बहुत देखा। मीठी बातों से बाघ के मुँह से अपना सिर नहीं निकाला जा सकता। उस वक़्त बाघ का मारना ही एक इलाज है। आतंक! हाँ, आतंक। हमें क्या आतंकवाद से डरना होगा? लोग हैं जो कहते हैं, आतंकवादी मूर्ख है, वे बच्चे हैं। हाँ वे हैं बच्चे और मूर्ख। उन्हें बुज़ुर्गी और बुद्धिमानी नहीं चाहिए। हमें नहीं अभिलाषा अपने जीने की। हमें नहीं मोह बाल-बच्चों का। हमे नहीं ग़र्ज़ धन-दौलत की। तब हम मरने के लिए आज़ाद क्यों नहीं है? ज़ुल्म को मिटाने के लिए कुछ ज़ुल्म होगा ही। उससे वे डरे जो डरते हैं। डर हम जवानों के लिए नहीं है।
फिर वे चारों आदमी निश्चय करने में लगे कि उन्हें ख़ुद क्या करना चाहिए।
इतने में कालिंदीचरण को ध्यान आया कि न उसने खाना खाया है, न मित्रों के खाने के लिए पूछा है। उसने अपने मित्रों से माफ़ी माँगकर छुट्टी ली और सुनंदा की ओर चला।
सुनंदा जहाँ थी, वहाँ है। वह रोटी बना चुकी है। अँगीठी के कोयले उल्टे तवे से दबे हैं। माथे को उँगलियों पर टिकाकर यह बैठी है। बैठी-बैठी सूनी-सी देख रही है। सुन रही है कि उसके पति कालिंदीचरण अपने मित्रों के साथ क्यों और क्या बातें कर रहे हैं। उसे जोश का कारण नहीं समझ में आता। उत्साह उसके लिए अपरिचित है। वह उसके लिए कुछ दूर की वस्तु है, स्पृहणीय और मनोरम और हरियाली। यह भारतमाता की स्वतंत्रता को समझना चाहती है; पर उसको न भारतमाता समझ में आती है, न स्वतंत्रता समझ में आती है। उसे इन लोगों की इस ज़ोरों की बातचीत का मतलब ही समझ में नहीं आता! फिर भी, उत्साह की उसमें बड़ी भूख है। जीवन की हौस उसमें बुझती-सी जा रही है; पर वह जीना चाहती है। उसने बहुत चाहा है कि पति उससे भी कुछ देश की बात करें। उसमें बुद्धि तो ज़रा कम है, फिर धीरे-धीरे क्या वह भी समझने नहीं लगेगी? सोचती है, कम पढ़ी हूँ, तो इसमें मेरा ऐसा क़सूर क्या है? अब तो पढ़ने को मैं तैयार हूँ, लेकिन पत्नी के साथ पति का धीरज खो जाता है। ख़ैर, उसने सोचा है, उसका काम तो सेवा है। बस, यह मानकर जैसे कुछ समझने की चाह ही छोड़ दी है। वह अनायास भाव से पति के साथ रहती है और कभी उनकी राह के बीच में आने को नहीं सोचती! वह एक बात जान चुकी है कि उसके पति ने अगर आराम छोड़ दिया है, घर का मकान छोड़ दिया है, जान-बूझकर उखड़े-उखड़े और मारे मारे जो फिरते है, इसमें वे कुछ भला ही सोचते होंगे। इसी बात को पकड़कर वह आपत्ति-शून्य भाव से पति के साथ विपदा-पर-विपदा उठाती रही है। पति ने कहा भी है कि तुम मेरे साथ क्यों दुःख उठाती हो; पर सुनकर वह चुप रह गई है, सोचती रह गई है कि देखो, यह कैसी बात करते हैं। वह जानती है कि जिसे ‘सरकार’ कहते हैं, वह सरकार उनके इस तरह के कामों से बहुत नाराज़ है। सरकार सरकार है। उसके मन में कोई स्पष्ट भावना नहीं है कि ‘सरकार’ क्या होती है। पर यह जितने हाकिम लोग हैं, वे बड़े ज़बरदस्त होते है और उनके पास बड़ी-बड़ी ताक़तें हैं। इतनी फ़ौज, पुलिस के सिपाही और मजिस्ट्रेट और मुंशी और चपरासी और थानेदार और वायसराय ये सब सरकार की ही हैं। इन सबसे कैसे लड़ा जा सकता है? हाकिम से लड़ना ठीक बात नहीं है; पर यह उसी लड़ने में तन-मन बिसार बैठे हैं। ख़ैर, लेकिन ये सब-के-सब इतने ज़ोर से क्यों बोलते हैं? उसको यही बहुत बुरा लगता है। सीधे-सादे कपड़ों में एक ख़ुफ़िया पुलिस का आदमी हरदम उनके घर के बाहर रहता है। ये लोग इस बात को क्यों भूल जाते हैं? इतने ज़ोर से क्यों बोलते हैं?
बैठे-बैठे यह इसी तरह की बातें सोच रही है। देखो, अब दो बजेंगे। उन्हें न खाने की फ़िक्र, न मेरी फ़िक्र। मेरी तो ख़ैर कुछ नहीं; पर अपने तन का ध्यान तो रखना चाहिए। ऐसी ही बेपरवाही से तो वह बच्चा चला गया। उसका मन कितना भी इधर-उधर डोले; पर अकेली जब होती है, तब भटक-भटककर वह मन अंत में उसी बच्चे के अभाव पर आ पहुँचता है। तब उसे बच्चे की वही-वही बातें याद आती हैं-बे बड़ी प्यारी आँखें, छोटी-छोटी अँगुलियाँ और नन्हें-नन्हें ओठ याद आते हैं। अठखेलियाँ याद आती हैं। सबसे ज़ियादा उसका मरना याद आता है! ओह! यह मरना क्या है! इस मरने की तरफ़ उससे देखा नहीं जाता। यद्यपि वह जानती है कि मरना सबको है-उसको मरना है, उसके पति को मरना है; पर उस तरफ़ भूल से छन-भर देखती है, तो भय से भर जाती है। यह उससे सहा नहीं जाता। बच्चे की याद उसे मथ उठती है। तब वह विह्वल होकर आँख पोंछती है और हठात् इधर-उधर की किसी काम की बात में अपने को उलझा लेना चाहती है। पर अकेले में, वह कुछ करे, रह-रह कर वही वह याद-वही वह मरने की बात उसके सामने हो रहती है और उसका चित्त बेबस हो जाता है।
वह उठी। अब उठकर बरतनों को माँज डालेगी, चौका भी साफ़ करना है। ओह! ख़ाली बैठी मैं क्या सोचती रहा करती हूँ।
इतने में कालिंदीचरण चौके में घुसे।
सुनंदा कठोरतापूर्वक शून्य को ही देखती रही। उसने पति की ओर नहीं देखा।
कालिंदी ने कहा- सुनंदा, खाने वाले हम चार हैं! खाना हो गया?
सुनंदा चून की थाली और चकला-बेलन और बटलोई वग़ैरा ख़ाली बरतन उठाकर चल दी, कुछ भी बोली नहीं।
कालिंदी ने कहा- सुनती हो, तीन आदमी मेरे साथ और हैं। खाना बन सके तो कहो; नहीं तो इतने में ही काम चला लेंगे।
सुनंदा कुछ भी नहीं बोली। उसके मन में बेहद ग़ुस्सा उठने लगा। यह उससे क्षमा-प्रार्थी-से क्यों बात कर रहे हैं, हँसकर क्यों नहीं कह देते कि कुछ और खाना बना दो। जैसे मैं ग़ैर हूँ। अच्छी बात है, तो मैं भी ग़ुलाम नहीं हूँ कि इनके ही काम में लगी रहूँ। मैं कुछ नहीं जानती खाना-वाना। और वह चुप रही।
कालिंदीचरण ने ज़रा ज़ोर से कहा- सुनंदा!
सुनंदा के जी में ऐसा हुआ कि हाथ की बटलोई को ख़ूब ज़ोर से फेंक दे। किसी का ग़ुस्सा सहने के लिए वह नहीं है। उसे तनिक भी सुध न रही कि अभी बैठे-बैठे इन्हीं अपने पति के बारे में कैसी प्रीति की और भलाई की बातें सोच रही थी। इस वक़्त भीतर-ही-भीतर ग़ुस्से से घुटकर रह गई।
क्यों! बोल भी नहीं सकतीं?
सुनंदा नहीं ही बोली।
तो अच्छी बात है। खाना कोई भी नहीं खाएगा।
यह कहकर कालिंदी तैश में पैर पटकते हुए लौटकर चले गए।
कालिंदीचरण अपने दल में उग्र नहीं समझे जाते, किसी क़दर उदार समझे जाते हैं। सदस्य अधिकतर अविवाहित हैं, कालिंदीचरण विवाहित ही नहीं हैं, वह एक बच्चा खो चुके हैं। उनकी बात का दल में आदर है। कुछ लोग उनके धीमेपन पर रुष्ट भी हैं। वह दल में विवेक के प्रतिनिधि हैं और उत्ताप पर अंकुश का काम करते हैं।
बहस इतनी बात पर थी कि कालिंदी का मत था कि हमें आतंक को छोड़ने की ओर बढ़ना चाहिए। आतंक से विवेक कुंठित होता है और या तो मनुष्य उससे उत्तेजित ही रहता है, या उसके भय से दबा रहता है। दोनों ही स्थितियाँ श्रेष्ठ नहीं हैं। हमारा लक्ष्य बुद्धि को चारों ओर से जगाना है, उसे आतंकित करना नहीं। सरकार व्यक्ति के और राष्ट्र के विकास के ऊपर बैठकर उसे दबाना चाहती है। हम इसी विकास के अवरोध को हटाना चाहते हैं-इसी को मुक्त करना चाहते हैं। आतंक से वह काम नहीं होगा। जो शक्ति के मद में उन्मत्त है, असली काम तो उसका मद उतारने और उसमें कर्तव्य-भावना का प्रकाश जगाने का है। हम स्वीकार करें कि मद उसकी टक्कर खाकर, चोट पाकर ही उतरेगा। यह चोट देने के लिए हमें अवश्य तैयार रहना चाहिए; पर यह नोचा-नोची उपयुक्त नहीं। इससे सत्ता का कुछ बिगड़ता तो नहीं, उल्टे उसे अपने औचित्य पर संतोष हो आता है।
पर जब (सुनंदा के पास से) लौटकर आया, तब देखा गया कि कालिंदी अपने पक्ष पर दृढ नहीं है। वह सहमत हो सकता है कि हाँ, आतंक ज़रूरी भी है। हाँ, उसने कहा- यह ठीक है कि हम लोग कुछ काम शुरू कर दें। इसके साथ ही कहा- आप लोगों को भूख नहीं लगी है क्या? उनकी तबिअत ख़राब है, इससे यहाँ तो खाना बना नहीं। बताओ क्या किया जाए? कहीं होटल चलें?
एक ने कहा कि कुछ बाज़ार से यहीं मँगा लेना चाहिए। दूसरे की राय हुई कि होटल ही चलना चाहिए। इसी तरह की बातों में लगे थे कि सुनंदा ने एक बड़ी थाली में खाना परोसकर उनके बीच ला रखा। रखकर वह चुपचाप चली गई। फिर आकर पास ही चार गिलास पानी के रख दिए और फिर उसी भाँति चुपचाप चली गई।
कालिंदी को जैसे किसी ने काट लिया।
तीनों मित्र चुप हो रहे! उन्हें अनुभव हो रहा था कि पति-पत्नी के बीच स्थिति में कहीं कुछ तनाव पड़ा हुआ है। अंत में एक ने कहा- कालिंदी, तुम तो कहते थे, खाना नहीं है?
कालिंदी ने झेंपकर कहा- मेरा मतलब था, काफ़ी नहीं है।
दूसरे ने कहा- बहुत काफ़ी है। सब चल जाएगा।
देखूँ, कुछ और हो तो-कहकर कालिंदी उठ गया।
आकर सुनंदा से बोला- यह तुमसे किसने कहा कि खाना वहाँ ले आओ? मैंने क्या कहा था?
सुनंदा कुछ न बोली।
चलो, उठाकर लाओ थाली। हमें किसी को यहाँ नहीं खाना है। हम होटल जाएँगे।
सुनंदा नहीं बोली। कालिंदी भी कुछ देर गुम खड़ा था। तरह-तरह की बात उसके मन में और कंठ में आती थीं। उसे अपना अपमान मालूम हो रहा था, और अपमान उसे असह्य था।
उसने कहा- सुनती नहीं हो कि कोई क्या कह रहा है! क्यों?
सुनंदा ने और मुँह फेर लिया।
क्या मैं बकते रहने के लिए हूँ?
सुनंदा भीतर-ही-भीतर घुट गई।
मैं पूछता हूँ कि जब मैं कह गया था, तब खाना ले जाने की क्या ज़रूरत थी?
सुनंदा ने मुड़कर और अपने को दबाकर धीमे से कहा- खाओगे नहीं? एक तो बज गया।
कालिंदी निरस्त्र होने लगा। यह उसे बुरा मालूम हुआ। उसने मानो धमकी के साथ पूछा- खाना और है?
सुनंदा ने धीमे से कहा- अचार लेते जाओ।
“खाना और नहीं है? अच्छा, लाओ अचार।”
सुनंदा ने अचार ला दिया और लेकर कालिंदी भी चला गया।
सुनंदा ने अपने लिए कुछ भी बचाकर नहीं रखा था। उसे यह सूझा ही न था कि उसे भी खाना है। अब कालिंदी के लौटने पर उसे जैसे मालूम हुआ कि उसने अपने लिए कुछ भी नहीं बचाकर रखा है। वह अपने से रुष्ट हुई। उसका मन कठोर हुआ; इसलिए नहीं कि क्यों उसने खाना नहीं बचाया। इस पर तो उसमें स्वाभिमान का भाव जागता था। मन कठोर यूँ हुआ कि वह इस तरह की बातें सोचती ही क्यों है? छि:! यह भी सोचने की बात है! और उसमें कड़वाहट भी फैली। हठात् यह उसके मन को लगता ही है कि देखो, उन्होंने एक बार भी नहीं पूछा कि तुम क्या खाओगी! क्या मैं यह सह सकती थी कि मैं तो खाऊँ और उनके मित्र भूखे रहें। पर पूछ लेते तो क्या था। इस बात पर उसका मन टूटता-सा है। मानो उसका जो तनिक-सा मान था, वह भी कुचल गया हो। पर वह रह-रहकर अपने को स्वयं अपमानित कर लेती हुई कहती है कि छिः! छि:! सुनंदा, तुझे ऐसी ज़रा-सी बात का अब तक ख़याल होता है! तुझे तो ख़ुश होना चाहिए कि उनके लिए एक रोज़ भूखे रहने का तुझे पुण्य मिला। मैं क्यों उन्हें नाराज़ करती हूँ? अब से नाराज़ न करूँगी; पर वह अपने तन की भी सुध तो नहीं रखते! यह ठीक नहीं है। मैं क्या करूँ?
और वह अपने बरतन माँजने में लग गई। उसे सुन पड़ा कि वे लोग फिर ज़ोर-शोर से बहस करने में लग गए हैं। बीच-बीच में हँसी के क़हक़हे भी उसे सुनाई दिए। ‘ओ!’ सहसा उसे ख़याल हुआ, ‘बरतन तो पीछे भी मल सकती हूँ; लेकिन उन्हें कुछ ज़रूरत हुई तो?’ यह सोच, झटपट धो वह कमरे के दरवाज़े के बाहर दीवार से लगकर खड़ी हो गई।
एक मित्र ने कहा- अचार और है? अचार और मँगाओ यार!
कालिंदी ने अभ्यासवश ज़ोर से पुकारा- अचार लाना भाई, अचार। मानो सुनंदा कहीं बहुत दूर हो; पर वह तो बाहर लगी खड़ी ही थी। उसने चुपचाप अचार लाकर रख दिया।
जाने लगी, तो कालिंदी ने तनिक स्निग्ध वाणी से कहा- थोड़ा पानी भी लाना।
और सुनंदा ने पानी ला दिया। देकर लौटी और फिर बाहर द्वार से लगकर ओट में खड़ी हो गई। जिससे कालिंदी कुछ माँगें, तो जल्दी से ला दे।
जन्म : सन् 1905, अलीगढ़ (उत्तर प्रदेश)
प्रमुख रचनाएँ : परख, अनाम स्वामी, सुनीता, त्यागपत्र, कल्याणी, जयवर्द्धन, मुक्तिबोध (उपन्यास); वातायन, एक रात, दो चिड़िया, फाँसी, नीलम देश की राजकन्या, पाज़ेब (कहानी-संग्रह); प्रस्तुत प्रश्न, जड़ की बात, पूर्वोदय, साहित्य का श्रेय और प्रेय, सोच-विचार, समय और हम
प्रमुख सम्मान : साहित्य अकादेमी पुरस्कार, भारत-भारती
सम्मान। भारत सरकार द्वारा पद्मभूषण से सम्मानित
निधन : सन् 1990
‘पत्नी’ — कहानी परिचय
जैनेंद्र कुमार की कहानी ‘पत्नी’ भारतीय कथा साहित्य की उन रचनाओं में से है, जो स्त्री-पुरुष संबंधों, राष्ट्रप्रेम और व्यक्तिगत संवेदना के बीच के सूक्ष्म तनावों को बहुत ही मार्मिक ढंग से उकेरती है। यह कहानी मुख्यतः एक विवाहित स्त्री सुनंदा के भाव-जगत के माध्यम से उस कालखंड की सामाजिक और वैचारिक हलचलों को अभिव्यक्त करती है, जब देश आज़ादी की लड़ाई में जल रहा था।
‘पत्नी’ — कहानी मुख्य पात्र
सुनंदा एक साधारण गृहिणी है, जिसके जीवन में पति ही केंद्र हैं। वह संवेदनशील है, समर्पित है और अपने सीमित ज्ञान के बावजूद पति की क्रांति-भावना को समझने का प्रयत्न करती है। लेकिन उसका मन इस ‘बड़े उद्देश्य’ में अपनी उपेक्षा और अकेलेपन से टूटता है।
कालिंदीचरण, सुनंदा के पति, एक क्रांतिकारी विचारधारा से जुड़े व्यक्ति हैं जो राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए आतंक या हिंसा के मार्ग पर बहस कर रहे हैं। वे यद्यपि दल में विवेकशील समझे जाते हैं, परंतु अपनी पत्नी की भावनाओं के प्रति संवेदनशील नहीं हैं।
कहानी की पृष्ठभूमि
यह कहानी एक छोटे से, उपेक्षित मकान के दूसरे मंज़िल पर रहने वाले एक क्रांतिकारी पति कालिंदीचरण और उसकी निम्नमध्यम वर्गीय पत्नी सुनंदा के दांपत्य जीवन को चित्रित करती है। कालिंदी स्वतंत्रता संग्राम के लिए पूर्णतः समर्पित है और आए दिन मित्रों के साथ आज़ादी, अंग्रेजों के अत्याचार और देश सेवा पर चर्चा करता है। वहीं सुनंदा घरेलू कार्यों, अकेलेपन, पति की उपेक्षा और अपने मृत बच्चे की स्मृतियों के बीच झूलती रहती है।
‘पत्नी‘ कहानी का सारांश
जैनेंद्र कुमार की मार्मिक कहानी ‘पत्नी‘ सुनंदा नामक एक कर्तव्यनिष्ठ पत्नी के मौन और अक्सर अनकहे संघर्षों पर प्रकाश डालती है, जिसका जीवन उसके राजनीतिक रूप से सक्रिय पति, कालिंदीचरण के इर्द-गिर्द घूमता है।
कहानी की शुरुआत सुनंदा से होती है, जो बीस-बाईस साल की एक संभ्रांत परिवार की दुबली-पतली स्त्री है और रसोई में उदास बैठी है। उसके पति, कालिंदीचरण, सुबह से बाहर गए हुए हैं और अभी तक लौटे नहीं हैं। सुनंदा सिर्फ उनके लौटने का इंतजार कर रही है, और उसकी एकमात्र चिंता अँगीठी की आग को बुझने से बचाना है ताकि वे वापस आने पर खाना बना सके। वह अपने पति की मौजूदगी को तरसती है, न केवल व्यावहारिक कारणों से बल्कि एक भावनात्मक जुड़ाव के लिए भी। अपनी सीमित शिक्षा के बावजूद, वह अपने पति की राजनीतिक दुनिया और ‘भारतमाता’ के लिए उसके जुनून को समझना चाहती है, लेकिन कालिंदीचरण शायद ही कभी उससे ऐसी चर्चाएँ करते हैं। उसे महसूस होता है कि उसके जीवन की उमंग कम होती जा रही है, फिर भी वह जीने की एक साधारण इच्छा से चिपकी हुई है। उसका सबसे गहरा दुख अपने बच्चे को खोना है, जिसकी याद उसे सताती रहती है और उसे मृत्यु के गहन भय से भर देती है।
कालिंदीचरण अंततः लौटते हैं, लेकिन अकेले नहीं, बल्कि अपने तीन मित्रों के साथ। वे भारत की स्वतंत्रता के बारे में एक गरमागरम बहस में डूबे हुए हैं, दमनकारी सरकार के खिलाफ आक्रामक कार्रवाई और ‘आतंक’ की वकालत कर रहे हैं। कालिंदीचरण, हालाँकि अपने समूह में अधिक उदार माने जाते हैं, शुरू में भय पर विवेक को जगाने के अधिक सूक्ष्म दृष्टिकोण का समर्थन करते हैं। हालाँकि, उनके दोस्तों की जोशीली दलीलें उन्हें प्रभावित करती हैं।
अपने जोश में, कालिंदीचरण अपनी पत्नी और उनकी ज़रूरतों को भूल जाते हैं, बाद में ही उन्हें याद आता है कि उनके दोस्तों के लिए कोई खाना तैयार नहीं है। वह सुनंदा से पूछते हैं कि क्या खाना तैयार है, और उसकी खामोश, लगभग नाराज़गी भरी चुप्पी में, वह उसकी अनकही कुंठा को अवज्ञा के रूप में गलत समझ लेता है। वह क्रोधित हो जाता है, यह मानकर कि उसने पर्याप्त खाना नहीं बनाया है, और घोषणा करता है कि कोई भी नहीं खाएगा। उसके इस गुस्से के बावजूद, सुनंदा, अपने अंतर्निहित कर्तव्य की भावना से, चुपचाप वह खाना परोस देती है जो उसने पहले ही तैयार कर लिया था, जिससे उसकी निस्वार्थ भक्ति का प्रदर्शन होता है।
यह बातचीत कालिंदीचरण के सार्वजनिक व्यक्तित्व और उसके घरेलू व्यवहार के बीच एक गहरी खाई को उजागर करती है। उसके मित्र, तनाव को भाँपते हुए, उसकी असहजता को नोटिस करते हैं। जब वह फिर से सुनंदा का सामना करता है, उसे खाना हटाने का आदेश देता है, तो वह एक शांत, चिंतित सवाल के साथ जवाब देती है – “खाओगे नहीं? एक तो बज गया।” यह वाक्य उसे निहत्था कर देता है, और वह अंततः अचार स्वीकार कर लेता है जो वह उसे देती है, और अपने दोस्तों के साथ खाता है।
सुनंदा, जिसने अपने लिए कुछ भी नहीं बचाया था, बाद में अपने आत्म-मूल्य पर चिंतन करती है। उसे कड़वाहट का एक अहसास होता है कि उसने एक बार भी उसकी भूख के बारे में नहीं पूछा, फिर भी वह तुरंत खुद को धिक्कारती है, उनके लिए भूखे रहने के ‘पुण्य’ में सांत्वना पाती है। वह उसे नाराज़ न करने का संकल्प लेती है, लेकिन उसके अपने स्वास्थ्य के प्रति उसकी उपेक्षा के बारे में चिंतित रहती है। खाने के बाद मित्र जब दुबारा बहस में लग जाते हैं, सुनंदा चुपचाप दीवार से सटकर खड़ी हो जाती है कि अगर कुछ चाहिए हो तो तुरंत पहुँचा सके। उसे कोई गिला-शिकवा नहीं, कोई अधिकार की माँग नहीं—बस सेवा करने की तड़प और आत्मिक जुड़ाव की चाह है।
जैनेन्द्र कुमार – लेखक परिचय
मुख्य विचार बिंदु:
- नारी की चुप्पी, पीड़ा और त्याग
सुनंदा की पीड़ा न तो अत्यधिक प्रकट है, न ही विद्रोही। वह खामोशी से सहती है, पर भीतर-भीतर टूटी रहती है। उसकी आत्मा यह प्रश्न करती है कि क्या वह केवल ‘खाना पकाने’ और ‘सेवा’ के लिए है? क्या उसे स्नेह पाने का कोई अधिकार नहीं।
- देशभक्ति बनाम पारिवारिक जीवन
यह कहानी एक तीखा सवाल उठाती है-
क्या देश के लिए कुछ करने का मतलब यह है कि घर की भावनाओं को कुचल दिया जाए?
कालिंदीचरण जैसे राष्ट्रसेवियों की दृष्टि में पत्नी का त्याग शायद साधारण बात हो, पर सुनंदा के लिए यह त्याग उसकी सम्पूर्णता है।
- स्त्री का आत्मबोध और स्वाभिमान
कहानी का सबसे सशक्त पक्ष सुनंदा का आंतरिक स्वाभिमान है। जब कालिंदी उससे कहता है कि “खाना नहीं खाना”, वह कोई प्रतिक्रिया नहीं देती; पर मन में वह सवाल करती है—“क्या मैं ग़ुलाम हूँ?”
फिर भी, अंत में वही सुनंदा बिना कहे खाना परोस देती है। यह नारी की विडंबना है—स्वाभिमान के भीतर समर्पण और प्रेम का वास।
- क्रांति का असंवेदनशील चेहरा
कालिंदीचरण और उनके मित्रों की बहसें ऊँचे आदर्शों की बातें करती हैं—“भारत माता”, “आतंक”, “नीति-अनीति”। परंतु ये आदर्श, जब मानवीय संबंधों को रौंदते हैं, तो वे खोखले लगने लगते हैं। लेखक यह नहीं कहते कि देशप्रेम गलत है, लेकिन वह सवाल ज़रूर करते हैं कि क्या संवेदनहीन क्रांति टिक सकती है?
वैचारिक बिंदु
‘पत्नी’ एक सशक्त मनोवैज्ञानिक कहानी है, जो निजी जीवन और सामाजिक आदर्शों के द्वंद्व को बारीकी से दिखाती है। यह स्त्री के मौन को स्वर देती है, जो केवल सेवा और समर्पण नहीं, बल्कि सोच, भाव और गरिमा से भी भरी है।
यह कहानी एक प्रश्न की तरह है—
“देश की आज़ादी के लिए क्या घर की स्त्रियों की मौन कुर्बानियाँ भी गिनी जाएँगी?”
‘पत्नी’ केवल एक स्त्री की कहानी नहीं है; यह उन हजारों भारतीय स्त्रियों की छवि है जो अपने पतियों के सपनों और आदर्शों को निःशब्द सहारा देती हैं, स्वयं की इच्छाओं का बलिदान करके। सुनंदा का दर्द, उसकी चुप स्वीकृति और उसकी सेवा में छिपा प्रेम—कहानी को करुणा और गहराई से भर देता है।
यह कहानी पढ़ने के बाद पाठक सिर्फ आज़ादी के संघर्ष को नहीं, बल्कि उस संघर्ष में शामिल निजी कुर्बानियों को भी महसूस करता है, जिन्हें इतिहास शायद कभी नहीं दर्ज करता।
प्रमुख भावनाएँ और विषय-वस्तु:
- स्त्री की उपेक्षा: सुनंदा का चरित्र उस भारतीय पत्नी का प्रतिनिधित्व करता है, जिसे केवल कर्तव्य की मूर्ति समझा जाता है, न कि व्यक्ति।
- मौन पीड़ा और त्याग: सुनंदा अपने दुख किसी से नहीं कहती, लेकिन भीतर ही भीतर वह टूटती है—मृत बच्चे की याद, उपेक्षा, और संवादहीनता उसे कचोटती रहती है।
- पति का आदर्शवाद और विछोह: कालिंदी का आदर्शवादी जीवन पत्नी की व्यावहारिक आवश्यकताओं से कट जाता है। वह देश के लिए लड़ता है, लेकिन अपने घर में प्रेम, संवाद और सहानुभूति नहीं दे पाता।
- देशभक्ति बनाम पारिवारिक जीवन: कहानी देशभक्ति के उन्माद और उसके निजी जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव को दर्शाती है। जहाँ एक तरफ़ राष्ट्र के लिए त्याग है, वहीं दूसरी ओर एक पत्नी की चुप बलि भी है।
‘पत्नी’ कहानी का मनोवैज्ञानिक पक्ष
- सुनंदा का आंतरिक द्वंद्व (Inner Conflict)
भावनात्मक उपेक्षा – पति कालिंदीचरण की क्रांतिकारी गतिविधियों और विचारों में डूबे रहने से सुनंदा को भावनात्मक रूप से उपेक्षित महसूस होता है।
स्त्रीत्व की अस्वीकार्यता – वह खुद को पत्नी नहीं, केवल एक सेविका समझने लगती है — यह उसकी आत्म-अस्मिता (self-identity) को चोट पहुँचाता है।
चुप्पी में विरोध – वह विरोध नहीं करती, न कोई शोर करती है — उसका मौन ही उसका सबसे तीव्र मानसिक प्रतिरोध है।
- कालिंदी की मनोदशा
बौद्धिक अहंकार – कालिंदी अपने क्रांतिकारी उद्देश्यों को इतना बड़ा समझता है कि वह घरेलू जीवन और पत्नी की भावनाओं को गौण मानता है।
असंवेदनशीलता – वह पत्नी की मानसिक स्थिति, दुःख और भूख को नहीं समझता — उसका व्यवहार एकपक्षीय उद्देश्यवादी है।
द्वैतता – बाहरी समाज के लिए वह आदर्शवादी और देशभक्त है, पर निजी जीवन में असंतुलित और अंधा।
- स्त्री मन की अभिव्यक्ति (Feminine Psyche)
सहनशीलता – सुनंदा तमाम उपेक्षाओं के बावजूद खाना बनाती है, अचार देती है और चुपचाप दीवार से लगकर खड़ी रहती है — यह उसकी सहनशीलता को दर्शाता है।
आत्म-त्याग – वह खुद भूखी रहती है लेकिन पति के क्रांतिकारी साथियों की सेवा को प्राथमिकता देती है।
संवेदना की गहराई – सुनंदा की चुप्पी में गहरी भावनात्मक पीड़ा है — जो शब्दों से नहीं, पर उसकी हर हरकत से प्रकट होती है।
- भावनात्मक संकोच (Emotional Suppression)
कहानी में न कोई स्पष्ट झगड़ा है, न संवाद — केवल भावनाओं का दमित प्रवाह है।
सुनंदा के भीतर हताशा, अकेलापन, असुरक्षा, और प्रेम के लिए तरसना — सब कुछ धीरे-धीरे मानसिक दबाव का रूप ले लेता है।
- प्रतीकात्मक भाषा और मनोचित्रण
“अचार ले जाना” — यह वाक्य एक साधारण घरेलू बात नहीं, बल्कि एक मौन प्रेम और तिरस्कार का प्रतीक है।
दीवार से लगकर खड़ी स्त्री — उसका मौन बलिदान, सतर्कता और आंतरिक टूटा हुआ मन दर्शाता है।
निष्कर्ष –
कहानी एक महिला के मन की अनकही व्यथा, आत्म-अस्वीकार और मौन बलिदान का गहरा मनोवैज्ञानिक चित्र है। इसमें दिखाया गया है कि भावनात्मक संवाद के अभाव में एक रिश्ता कैसे केवल कर्तव्य और औपचारिकता में बदल सकता है, और एक स्त्री कैसे बिना बोले भी बहुत कुछ कह जाती है।