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प्रायश्चित, भगवती चरण वर्मा

Prayaschit Bhagwati Charan Verma the best explanation

प्रायश्चित

भगवती चरण वर्मा

(जन्म ई.स. 1903 )

भगवती चरण वर्मा का जन्म उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के शफीपुर गाँव में हुआ था। पाँच वर्ष की अल्पायु में ही उनके पिता का देहान्त हो गया। अतः बचपन में ही दुनियादारी का अनुभव हो गया। वे पढ़ने में तेज थे। प्रयाग विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में बी.ए. और एल. एल. बी. किया, तदुपरान्त वकालत करना शुरू की।

वर्माजी ने कहानी, उपन्यास, नाटक, एकांकी, कविता, संस्मरण, रेडियो-रूपक, गीति नाट्य आदि विधाओं पर सफलता पूर्वक अपनी लेखनी चलाई। उन्होंने ‘विचार’ और ‘उत्तरा मासिक पत्रिकाएँ तथा ‘नवजीवन’ दैनिक पत्र का भी संपादन किया। ‘चित्रलेखा’ भूले बिसरे चित्र (उपन्यास) दो बाके, इंस्टालमेंट, राख और चिनगारी (कहानी संग्रह) इनकी अत्यंत चर्चित कृतियाँ हैं। क्या

पाठ की पृष्ठभूमि

प्रायश्चित कहानी में पाप और नरक के अंधविश्वास में पड़ी जनता को उस अंधविश्वास से मुक्त करने का सांकेतिक चित्रण हुआ है। इसके अतिरिक्त धर्मभीरु समाज पापमुक्त होने की चाह में पंडितों और महंतों की धार्मिक कर्मकांडों की जाल में फँसता चला जाता है और इसी का बेजा लाभ कुछ धर्म के नुमाइंदे उठाते हैं। प्रस्तुत कहानी इसी विडंबना को गांभीर्य और हास्यास्पद तरीके से व्यक्त करती है।

पात्र परिचय   

कबरी बिल्ली

लाला घासीराम

सासू माँ

रामू

रामू की बहू

मिसरानी

महरी

पंडित परमसुख

किसनू की माँ

छन्नू की दादी

कथासार

भगवतीचरण वर्मा जी द्वारा लिखी गई ‘प्रायश्चित’ कहानी एक प्रसिद्ध कहानी है। प्रस्तुत कहानी में लाला घासीराम के बेटे रामू की बहू जो चौदह वर्ष की बालिका है जिसे घर-बार संभालना पड़ता है। कम उम्र और अनुभव न होने के कारण वह घर सँभालने में असमर्थ होती है। दूसरी ओर घर में कबरी बिल्ली अक्सर उसकी रखी हुई दूध, खीर, दही आदि खा जाती है। इससे रामू की बहू को बहुत गुस्सा आता है। वह उस कबरी बिल्ली से नफ़रत करने लगती है। रामू की बहू ने बिल्ली फँसाने के लिए एक कटघरा मँगवाया तथा बिल्ली को स्वादिष्ट लगने वाले व्यंजन रख दिया लेकिन कबरी बिल्ली भी कुछ कम चालाक न थी वह रामू की बहू के लगाए कटघरे में फँसी ही नहीं। 

रामू की बहू का पारा उस दिन सातवें आसमान पर पहुँच गया जिस दिन रामू की बहू ने रामू के लिए पिस्ता, बादाम और मखाने वाली खीर बनाई थी और उस खीर को कबरी बिल्ली ने गिरा दिया। रामू की बहू बहुत क्रोधित हुई और उसने कबरी बिल्ली को मारने का निर्णय कर लिया। इस मिशन की पूर्ति के लिए एक दिन रामू की बहू ने जान-बूझकर देहरी पर दूध का बर्तन रख दिया। उधर से कबरी बिल्ली दूध पीने आई और एक बड़ी लकड़ी से रामू की बहू ने उसे दे मारा। बेचारी बिल्ली वहीं उलट गई। बिल्ली मरने की खबर पास – पड़ोस में आग की तरह फैल गई।

महरी, मिसरानी, सासु माँ, किसनू की माँ, छन्नू की दादी सब उस जगह आ पहुँचे जहाँ यह घटना घटी थी। समवेत रूप से सभी शोक मनाने लगे और प्रायश्चित के लिए  पंडित परमसुख को बुलाया गया। पंडित परमसुख ने बताया कि यह मामला ग्यारह तोले की बिल्ली पर ठीक हो जाएगा।

इसके बाद पाठ-पूजा की बात आई। दान के लिए करीब दस मन गेहूँ, एक मन चावल, एक मन दाल, मन-भर तिल, पाँच मन जौ और पाँच मन चना, चार पंसेरी घी और मन-भर नमक भी लगेगा। बस, इतने में काम चल जाएगा। इक्कीस दिन के पाठ के इक्कीस रुपये और इक्कीस दिन तक दोनों बखत पाँच-पाँच ब्राह्मणों को भोजन करवाना पड़ेगा। कुछ रुककर पंडित परमसुख ने कहा- सो इसकी चिन्ता न करो, मैं अकेले दोनों समय भोजन कर लूँगा और मेरे अकेले भोजन करने से पाँच ब्राह्मणों के भोजन का फल मिल जाएगा।

अभी बिल्ली बनवाने व पूजा पाठ का समान लाने की बारे में बात हो ही रही थी ताकि बिल्ली के मरने का प्रायश्चित हो सके तभी महरी हाँफती हुई अन्दर आई और कहने लगी कि बिल्ली तो उठकर भाग गई।

कहानी

अगर कबरी बिल्ली घरभर में किसी से प्रेम करती थी तो रामू की बहू से, और रामू की बहू घरभर में किसी से घृणा करती थी तो कबरी बिल्ली से। रामू की बहू को दो महीना हुआ मायके से प्रथम बार ससुराल आयी थी, पति की प्यारी और सास की दुलारी चौदह वर्ष की बालिका। भण्डार-घर की चाबी उसकी करधनी में लटकने लगी, नौकरों पर उसका हुक्म चलने लगा, और रामू की बहू घर में सब कुछ, सासजी ने माला और पूजा-पाठ में मन लगाया।

लेकिन बहू ठहरी चौदह वर्ष की बालिका, कभी भण्डार-घर खुला है तो कभी भण्डार घर में बैठे-बैठे सो गई ! कबरी बिल्ली को मौका मिला, घी दूध पर अब वह जुट गई ! रामू की बहू की जान आफत में और कबरी बिल्ली के छक्के पंजे ! रामू की बहू हाँडी में घी रखते रखते ऊँघ गई और बचा हुआ घी कबरी के पेट में। रामू की बहू दूध ढँककर मिसरानी को जिन्स देने गई, और दूध नदारद ! अगर बात यहीं तक रुक जाती तो भी बुरा न था; कबरी रामू की बहू से कुछ ऐसा परच गई कि रामू की बहू के लिए खान-पान दुश्वार। रामू की बहू के कमरें में रबड़ी से भरी हुई कटोरी पहुँची और रामू जब आये, तब कटोरी साफ चटी हुई। बाज़ार से मलाई आयी और जब तक रामू की बहू ने पान लगाया, मलाई गायब। रामू की बहू ने तय कर लिया कि या तो वही घर में रहेगी या कबरी बिल्ली ही ! मोरचाबन्दी हो गई और दोनों सतर्क। बिल्ली फँसाने का कटघरा आया; उसमें दूध, मलाई, चूहे और बिल्ली को स्वादिष्ट लगने वाले विचित्र प्रकार के व्यंजन रखे गए, लेकिन बिल्ली ने उधर निगाह तक न डाली। इधर कबरी ने सरगर्मी दिखलायी। अभी तक तो वह रामू की बहू से डरती थी, पर अब वह साथ लग गई, लेकिन इतने फासले पर कि रामू की बहू उस पर हाथ न लगा सके।

कबरी के हौसले बढ़ जाने से रामू की बहू का घर में रहना मुश्किल हो गया। उसे मिलती थी सास की मीठी झिड़कियाँ और पतिदेव को रूखा-सूखा भोजन।

एक दिन रामू की बहू ने रामू के लिए खीर बनायी। पिस्ता, बादाम, मखाने और तरह-तरह के मेवे दूध में औटाये गए, सोने का वर्क चिपकाया गया और खीर से भरकर कटोरा कमरे के एक ऐसे ऊँचे ताक पर रखा गया जहाँ बिल्ली न पहुँच सके। रामू की बहू इसके बाद पान लगाने में लग गई।

उधर कमरे में बिल्ली आयी, ताक के नीचे खड़े होकर उसने ऊपर कटोरे की ओर देखा; सूँघा माल अच्छा है, ताक की ऊँचाई अन्दाजी, और रामू की बहू पान लगा रही है। पान लगा कर रामू की बहू सास जी को पान देने चली गई और कबरी ने छलाँग मारी, पंजा कटोरे में लगा और झनझनाहट की आवाज़ के साथ फर्श पर।

आवाज़ रामू की बहू के कान में पहुँची, सास के सामने पान फेंककर वह दौड़ी, क्या देखती है कि फूल का कटोरा टुकड़े-टुकड़े और खीर फर्श पर और बिल्ली डटकर खीर उड़ा रही है। रामू की बहू को देखते ही कबरी चम्पत।

रामू की बहू पर खून सवार हो गया। न रहे बाँस, न बजे बाँसुरी। रामू की बहू ने कबरी की हत्या पर कमर कस ली। रातभर उसे नींद न आयी, किस दाँव से कबरी पर वार किया जाय कि फिर जिन्दा न बचे, यही पड़े-पड़े सोचती रही। सुबह हुई और वह देखती है कि कबरी देहरी पर बैठी बड़े प्रेम से उसे देख रही है।

रामू की बहू ने कुछ सोचा। इसके बाद मुसकराती हुई वह उठी, कबरी रामू की बहू के उठते ही खिसक गई। रामू की बहू एक कटोरा दूध कमरे के दरवाजे की देहरी पर रखकर चली गई। हाथ में पाटा लेकर वह लौटी तो देखती है कि कबरी दूध पर जुटी हुई है। मौका हाथ में आ गया। सारा बल लगाकर पाटा उसने बिल्ली पर पटक दिया। कबरी न हिली, न डुली, न चीखी-चिल्लाई, बस एकदम उलट गई।

आवाज़ जो हुई तो महरी झाडू छोड़कर, मिसरानी रसोई छोड़कर और सास पूजा छोड़कर घटनास्थल पर उपस्थित हो गई रामू की बहू सिर झुकाये हुए अपराधिनी की भाँति बातें सुन रही है।

महरी बोली- अरे राम, बिल्ली तो मर गई। माँ जी, बिल्ली की हत्या बहू से हो गई, यह तो बुरा हुआ। मिसरानी बोली- माँजी, बिल्ली की हत्या और आदमी की हत्या बराबर है। हम तो रसोई न बनायेंगे, जब तक बहू के सिर पर हत्या रहेगी।

सास जी बोलीं- हाँ, ठीक कहती हो, जब तक बहू के सिर से हत्या न उतर जाय, तब तक न कोई पानी पी सकता है, न खाना खा सकता है। बहू, यह क्या कर डाला ?

महरी ने कहा फिर क्या हो, कहो तो पंडितजी को बुला लाऊँ ? सास की जान में जान आई- अरे, हाँ जल्दी दौड़ के पंडितजी को बुला ला।

बिल्ली की हत्या की खबर बिजली की तरह पड़ोस में फैल गई। पड़ोस की औरतों का रामू के घर में ताँता बंध गया। चारों तरफ से प्रश्नों की बौछार और रामू की बहू सिर झुकाये बैठी।

पंडित परमसुख को जब यह खबर मिली उस समय वह पूजा कर रहे थे, खबर पाते ही उठ पड़े। पंडिताइन से मुस्कराते हुए बोले- भोजन न बनाना। लाला घासीराम की पतोहू ने बिल्ली मार डाली। प्रायश्चित होगा, पकवानों पर हाथ लगेगा।

पंडित परमसुख चौबे छोटे-से, मोटे-से आदमी थे। लम्बाई चार फुट दस इंच और तोंद का घेरा अठावन इंच। चेहरा गोल-मटोल, मूँछें बड़ी-बड़ी, रंग गोरा, चोटी कमर तक पहुँचती हुई।

कहा जाता है कि मथुरा में जब पंसेरी खुराक वाले पंडितों को ढूँढ़ा जाता था तो पंडित परमसुख को इस लिस्ट में प्रथम स्थान दिया जाता था।

पंडित परमसुख पहुँचे, और कोरम पूरा हुआ। पंचायत बैठी सास जी, मिसरानी, किसनू की माँ, छन्नू की दादी और पंडित परमसुख। बाकी स्त्रियाँ बहू से सहानुभूति प्रकट कर रही थीं।

किसनू की माँ ने कहा पंडितजी, बिल्ली की हत्या से कौन-सा नरक मिलता है।

पंडित परमसुख ने पत्रा देखते हुए कहा बिल्ली की हत्या अकेले से तो नरक का नाम नहीं बतलाया जा सकता। वह मुहूर्त भी मालूम हो जाय, जब बिल्ली की हत्या हो गई, तब नरक का पता लग सकता है।

यही कोई सात बजे सुबह। मिसरानी ने कहा।

पंडित परमसुख ने पन्ने के पन्ने उलटे अक्षरों पर उँगलियाँ चलायीं, माथे पर हाथ लगाया और कुछ सोचा। चेहरे पर धुंधलापन आया। माथे पर बल पड़े, नाक कुछ सिकोड़ी और स्वर गम्भीर हो गया हरे कृष्ण ! बड़ा बुरा हुआ, प्रातः काल ब्रह्ममुहूर्त में बिल्ली की हत्या ! घोर कुम्भीपाक नरक का विधान है। रामू की माँ, यह तो बड़ा पाप हुआ।

रामू की माँ की आँखों में आँसू आ गए “तो फिर पंडितजी अब क्या होगा, आप ही बतलाए ?”

मोल तोल शुरू हुआ और मामला ग्यारह तोले की बिल्ली पर ठीक हो गया।

इसके बाद पाठ-पूजा की बात आयी। पंडित परमसुख ने कहा- “उसमें क्या मुश्किल हैं, हम लोग किस दिन के लिए हैं। रामू की माँ, मैं पाठ कर दिया करूँगा, पूजा की सामग्री आप हमारे घर भिजवा देना।”

“पूजा का सामान कितना लगेगा ?”

“अरे, कम-से-कम सामान में हम पूजा कर देंगे। दान के लिए करीब दस मन गेहूँ, एक मन चावल, एक मन दाल, मन-भर तिल, पाँच मन जौ और पाँच मन चना, चार पंसेरी घी और मन-भर नमक भी लगेगा। बस, इतनें में काम चल जायगा। “

“अरे, बापरे ! इतना सामान ! पंडितजी, इसमें तो सौ-डेढ़ सौ रुपया खर्च हो जायगा। रामू की माँ ने होकर कहा।  

“फिर इससे कम मैं तो काम न चलेगा। बिल्ली की हत्या कितना बड़ा पाप है, रामू की माँ ! खर्च को देखते वक्त पहले बहू के पाप को तो देख लो ! यह प्रायश्चित्त है, कोई हँसी थोड़े ही है और जैसी जिसकी मरजादा, प्रायश्चित्त में उसे वैसा खर्च भी करना पड़ता है। आप लोग कोई ऐसे वैसे थोड़े ही हैं, और सौ डेढ़ सौ रुपया आप लोगों के हाथ का मैल है।”

पंडित परमसुख की बात से पंच प्रभावित हुए। किसनू की माँ ने कहा- “पंडितजी ठीक तो कहते हैं, बिल्ली की हत्या कोई ऐसा-वैसा पाप तो है नहीं बड़े पाप की लिए बड़ा खर्च भी चाहिए।”

छन्नू की दादी ने कहा- और नहीं तो क्या, दान-पुण्य से ही पाप कटते हैं। दान-पुण्य में किफायत ठीक नहीं।

मिसरानी ने कहा और फिर माँजी, आप लोग बड़े आदमी ठहरे। इतना खर्च कौन आप लोगों को अखरेगा !

रामू की माँ ने अपने चारों ओर देखा सभी पंच पंडितजी के साथ। पंडित परमसुख मुस्कुरा रहे थे। उन्होंने कहा रामू की माँ एक तरफ तो बहू के लिए कुम्भीपाक नरक है और दूसरी तरफ तुम्हारे जिम्मे थोड़ा खर्च है, सो उससे मुँह न मोड़ो।

एक ठण्डी साँस लेते हुए रामू की माँ ने कहा अब तो जो नाच नचाओगे, नाचना ही पड़ेगा। पंडित परमसुख कुछ बिगड़कर बोले- “राम की माँ! यह तो खुशी की बात है, अगर तुम्हें यह अखरता है तो न करो – मैं चला”। इतना कहकर पंडितजी ने पोथी-पत्रा बटोरा।

“अरे पंडितजी, रामू की माँ को कुछ नहीं अखरता- बेचारी को कितना दुःख है-बिगड़ो न “। मिसरानी, छन्नू की दादी और किसनू की माँ ने एक स्वर में कहा।

रामू की माँ ने पंडितजी के पैर पकड़े और पंडितजी ने अब जमकर आसन लगाया।

“और क्या हो ?”

“इक्कीस दिन के पाठ के इक्कीस रुपये और इक्कीस दिन तक दोनों बखत पाँच-पाँच ब्राह्मणों को भोजन करवाना पड़ेगा। कुछ रुककर पंडित परमसुख ने कहा- सो इसकी चिन्ता न करो, मैं अकेले दोनों समय भोजन कर लूँगा और मेरे अकेले भोजन करने से पाँच ब्राह्मणों के भोजन का फल मिल जाएगा।”

“यह तो पंडितजी ठीक कहते हैं, पंडितजी की तोंद तो देखो” मिसरानी ने मुसकराते हुए पंडितजी पर व्यंग्य किया।”

“अच्छा तो फिर प्रायश्चित का प्रबन्ध करवाओ, रामू की माँ, ग्यारह तोला सोना निकालो। मैं उसकी बिल्ली बनवा लाऊँ दो घंटे में मैं बनवाकर लौटूँगा, तब तक पूजा का सब प्रबन्ध कर रखो और देखो, पूजा के लिए….

पंडितजी की बात अभी खत्म भी न हुई थी कि महरी हाँफती हुई कमरे में घुस आयी और सब लोग चौंक उठे। रामू की माँ ने घबराकर कहा- अरी क्या हुआ री ?

महरी ने लड़खड़ाते स्वर में कहा- “माँजी, बिल्ली तो उठकर भाग गई “।

शब्दार्थ-टिप्पणी

घृणा – नफ़रत

नदारद – गायब

दुश्वार – मुश्किल, कठिन

सतर्क – सावधान

निगाह – दृष्टि

पाटा – पत्थर का या काठ का बड़ा टुकड़ा

चम्पत – भाग जाना

किफायत – कंजूसी

विधान – व्यवस्था, उपाय

अखरना – बुरा लगना

प्रबंध – इंतजाम, व्यवस्था

जिन्स – कोई भी वस्तु

मुहावरे

जान आफत में आना – मुसीबत में पड़ना

जान में जान आना – राहत मिलना

बिजली की तरह – अति शीघ्र, तेजी से

कहावत

न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी – झगड़े का कारण ही समाप्त कर देना

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