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पुरस्कार Puraskaar By Jayshankar Prasad The Best Explanation

Puraskaar By Jayshankar Prasad The Best Explanation

स्मरणीय बिंदु

पाठक व्यक्तिगत प्रेम के बारे में जान सकेंगे।

पाठक देशप्रेम के बारे में भी जान सकेंगे।

अंतर्द्वंद्व का सजीव रूप जान सकेंगे।

कहानी का रसास्वादन व व्याख्या कर सकेंगे।

जीवन मूल्यों से अवगत हो सकेंगे।

स्वाभिमान के महत्त्व को समझ सकेंगे।

अन्य जानकारियों से परिचित हो सकेंगे

लेखक परिचय

हिंदी साहित्य-संसार में अपने अनूठी शैली द्वारा युगदृष्टा और युगस्रष्टा रहे छायावादी काव्यधारा के प्रवर्तक जयशंकर प्रसाद का जन्म 30 जनवरी, 1889 में वाराणसी स्थित एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था। उनकी प्राथमिक शिक्षा घर पर ही शुरू हुई थी और क्वींस कॉलेज, वाराणसी में उन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त करनी शुरू की थी, किंतु माता-पिता और बड़े भाई की असमय पर हुई मृत्यु के कारण उन्हें अपनी शिक्षा बीच में ही छोड़कर परंपरागत व्यवसाय संभालते हुए दिनभर दुकान में बैठना पड़ता था। प्रसाद जी ने प्राचीन, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक या दार्शनिक स्रोतों से प्रेरणा ग्रहण कर अपना रचना संसार निर्माण किया है। संस्कृत भाषा पर उनका अधिकार था। इसके अतिरिक्त हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, बंगाली आदि अन्य भाषाओं के भी वे ज्ञाता थे। कोमल प्रवृत्ति के प्रसाद जी ने अपने निजी जीवन में अत्याधिक दुख सहन किए। एक ओर माता-पिता, भाई के साथ-साथ क्रमश: पहली और फिर दूसरी पत्नी की हुई मृत्यु ने उनके जीवन में दुख की शृंखलाएँ निर्माण की तो दूसरी ओर परंपरागत व्यवसाय ठीक तरह से न चलने के कारण उन्हें ऋणग्रस्त होना पड़ा। अपने निजी जीवन में निर्मित हुए दुख, दर्द और अभावग्रस्तता पर उन्होंने अपने कोमल, करूणामय, भावुक तथा सौंदर्यनिष्ठ स्वच्छंदी स्वभाव के बल पर विजय प्राप्त कर अपनी रचनाओं में सौंदर्य और प्रेम की व्यंजना की है।

प्राचीन भारत के गौरवपूर्ण इतिहास का, संस्कृति का, साथ ही साथ भारतीय दर्शन का सूक्ष्मता से अध्ययन करनेवाले प्रसाद जी के व्यक्तित्व पर बौद्ध दर्शन का अत्याधिक प्रभाव था। इसी प्रभाव के अनुरूप उन्होंने अपनी रचनाओं में बौद्धकालीन घटनाओं, चरित्रों को आधारभूमि के रूप में अपनाकर गौरवपूर्ण भारतीय इतिहास की टूटी हुई कड़ियों को वर्तमान युग से जोड़ा है। बौद्ध दर्शन की करूणा, शांति जैसी आचार-विचारधाराओं की प्रतिस्थापना उन्होंने अपनी रचनाओं में की है। जिसका मूल उद्देश्य विश्व-मानवता और विश्व-मैत्री है। अपनी रचनाओं में उन्होंने पूरी मानवता का विराट दर्शन कराया है। प्रसाद जी ने अपने कुल 48 वर्ष के अल्पकालीन जीवन में मानव मंगल के उच्चतर संदेश को अपने साहित्य संसार के माध्यम से सम्यकवाणी देने का प्रयास किया है। उनका देहांत 14 जनवरी, 1937 में हुआ।

कृतित्व

1. काव्य – ‘कानन’, ‘कुसुम’, ‘करुणालय’, ‘प्रेम-पथिक’, ‘महाराणा का महत्त्व’, ‘झरना’, ‘आँसू’, ‘लहर’ और ‘कामायनी’ ।

2. नाटक – ‘कामना’, ‘विशाखा’, ‘एक घूँट’, ‘अजातशत्रु’, ‘जनमेजय का नागयज्ञ’, ‘राज्यश्री’, ‘स्कंदगुप्त’, ‘चंद्रगुप्त’ और ‘ध्रुवस्वामिनी’ ।

3. उपन्यास – ‘कंकाल’, ‘तितली’ और ‘इरावती’ (अधूरा)।

4. कहानी संग्रह – ‘छाया’, ‘आँधी’, ‘प्रतिध्वनि’, ‘इंद्रजाल’ और ‘आकाशदीप’।

5. निबंध संग्रह – ‘काव्य और कला’ तथा अन्य निबंध।  

6. प्रसाद संगीत – नाटकों में प्रयुक्त गीतों का एकत्र संकलन’।

7. विविध – चित्राधार’।

पाठ परिचय

जयशंकर प्रसाद जी के संपूर्ण साहित्य संसार का एकमात्र उद्देश्य ‘प्राचीन काल के प्रमुख ऐतिहासिक चरित्रों, घटनाओं को, आदर्श सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक मूल्यों को समकालीन संदर्भ के साथ जोड़कर उनका गौरव करना रहा है। उनका यही उद्देश्य प्रस्तुत कहानी ‘पुरस्कार’ द्वारा परिलक्षित हुआ है। इस कहानी में भी उद्देश्य पूर्ति की दृष्टि से प्रसाद जी ने प्राचीन भारत के बौद्धपूर्व में प्रचलित सांस्कृतिक तथा सामाजिक सभ्यता को उजागर किया है। उस समय संपन्न होनेवाले ‘कृषि महोत्सव’ सामाजिक एकता और सांस्कृतिक सभ्यता के प्रतीक थे। इस कहानी में ‘कृषि महोत्सव’ का यथार्थ वर्णन करके प्रसाद जी ने प्राचीन गौरवमयी सभ्यता को उजागर किया है। इसके अतिरिक्त उन्होंने मधुलिका के माध्यम से सच्चे राष्ट्रप्रेम की पहचान करायी है। मानो मधुलिका के माध्यम से प्रसाद जी सभी नागरिकों को यह बताना चाहते हैं कि हर एक को मधुलिका के समान अपने राष्ट्र की सुरक्षा के खातिर अपने निजी प्रेम को मन ही मन में दफना कर शत्रुओं द्वारा किए जानेवाले भयंकर आक्रमण से अपने राष्ट्र के प्रति सजग रहकर तन-मन-धन से अपने आप को न्योछावर करने की भावना रखनी चाहिए। वही सच्चा देशप्रेम है, सच्ची राष्ट्रनिष्ठा है, सच्चा देशाभिमान होता है। इसके अतिरिक्त मधुलिका का व्यक्तिगत प्रेम भी पाठकों के सामने प्रेम की एक मिसाल प्रस्तुत करता है। प्रसाद जी ने उसके माध्यम से पवित्र, आदर्श और सात्विक प्रेम की नई व्याख्या प्रस्तुत की है। जिसके अनुसार जब प्रेम और कर्तव्य की कसौटी लगती है, तब इंसान को पहले कर्तव्य के प्रति ईमानदार रहना चाहिए और उसके बाद जब प्रेम की बारी आती है, तो प्रेम भी पूर्णनिष्ठा  से करना चाहिए, निभाना चाहिए। अतः प्रस्तुत कहानी के माध्यम से प्रसाद जी ने प्राचीन भारत के आदर्श, सांस्कृतिक सभ्यता, सामाजिक एकता को उजागर करना तथा राष्ट्रीय एवं व्यक्तिगत प्रेमभाव में एकनिष्ठ रहना आदि प्रमुख उद्देश्यों की पूर्ति की है।

पृष्ठभूमि

राष्ट्रीय भावना और व्यक्ति चेतना ही ‘पुरस्कार’ कहानी के लेख के पीछे जयशंकर प्रसाद की दृष्टि थी इसे जानना हमारे लिए जरूरी है। स्वाधीनता आंदोलन के काल में देश के इतिहास और संस्कृति के प्रति गौरव और गरिमा की दृष्टि का विकास करना तथा अस्मिता की पहचान कराना जिससे कि स्वाधीनता आंदोलन में जनसामान्य की ज्यादा से ज्यादा हिस्सेदारी बढ़ सके। जयशंकर प्रसाद की सोच के अनुसार स्वाधीनता आंदोलन के दौरान अपने इस इतिहास का स्मरण कराना निश्चय ही जनता में स्फूर्ति और प्रेरणा का संचार कर सकेगी। इस प्रकार की सोच का जनसामान्य पर कितना प्रभाव हुआ होगा यह निश्चित रूप से कहना मुश्किल है लेकिन पुनरुत्थानवादी दृष्टि के विकास द्वारा देश की स्वतंत्रता के लिए वातावरण निर्माण का ही प्रयास दृष्टिगत होता है। इसी दृष्टिकोण से प्रसाद ऐतिहासिक पौराणिक कथाओं को उस समय के परिवेश की जरूरत के अनुसार ढालने की कोशिश करते दिखाई देते हैं।

पुरस्कारकहानी का कथानक

प्रसाद जी की यह कहानी बौद्धयुगीन भारतीय राजनीतिक स्थिति की पहचान करानेवाली प्रमुख ऐतिहासिक कहानी है। बौद्धकालीन कोशल जनपद की कृषक कन्या मधुलिका और मगध जनपद के राजकुमार अरुण का प्रेम-प्रणय इस कहानी का कथ्य विषय है। व्यक्ति-प्रेम से अधिक राष्ट्र-प्रेम का गौरव करानेवाली यह कथा कोशल जनपद की राजधानी श्रावस्ती में घटती है। कथानक के अनुसार कोशल जनपद में हर साल कृषि महोत्सव संपन्न होता है। यह महोत्सव परंपरा से चला आ रहा है। इसमें राष्ट्रीय नियम के अनुसार राज्य में रहनेवाले किसी भी किसान का अच्छा खेत पुरस्कार स्वरूप चुन लिया जाता है और स्वयं राजा उस चुने हुए खेत पर एक दिन के लिए किसान बनकर हल चलाता है, बीज बोता है। उस दिन कृषक महोत्सव संपन्न होता है, सारे नगरवासी सहित पड़ोस के राजा और राजकुमार भी इसमें सम्मिलित होते हैं। इसके बदले में उस किसान को, जिसका खेत पुरस्कार के लिए चुना जाता है, उसे भू-संपत्ति के चौगुना मूल्य बड़े ही अनुग्रहपूर्वक उसी समय दिया जाता है, जब राजा बीज बोकर उत्सव मनाते हैं। इस साल मधुलिका का खेत कृषि उत्सव के लिए चुना गया है। यह मधुलिका वीर सिंह मित्र की कन्या है, जिन्होंने एक बार अपनी वीरता से कोशल राज्य की रक्षा की थी। मधुलिका का खेत पुरस्कार के स्वरूप चुनने के कारण कृषक बने महाराज को बीज देने का सम्मान उसीको मिलता है। कृषक बने महाराज द्वारा बीज बोने का प्रधान कार्य संपन्न होने पर मधुलिका को उसके खेत का चौगुना मूल्य स्वर्ण मुद्राओं से भरा थाल अत्यंत अनुग्रह से दिया जाता है, किंतु मधुलिका उन सारी स्वर्ण मुद्राओं को महाराज पर न्योछावर करते हुए बिखेर देती है। मधुलिका के इस व्यवहार से राजा सहित सारे उपस्थित जन अचंभित हो उठते हैं। इस पर वह बड़े ही सविनय भाव से यह बता देती है कि यह भूमि मेरे पितृ-पितामहों की है, इसे बेचना अपराध हैं, इसका मूल्य स्वीकारना मेरे सामर्थ्य के बाहर है।

इस कृषक महोत्सव में मगध का राजकुमार अरुण भी उपस्थित होता है, जो मधुलिका के भोले सौंदर्य के प्रति अभिभूत होता है। महोत्सव के दूसरे दिन अपनी भूमि छिनने के कारण दुख से विकल हुई मधुलिका के सामने वह अपना प्रेम प्रस्ताव रखता है। किंतु कृषक बालिका रही मधुलिका उसके प्रेम प्रस्ताव को स्वीकार न करके इसे अपना ही अपमान समझकर अरुण को दुत्कारती है, चोट खाया हुआ अरुण चला जाता है किंतु अरुण का अपमान करनेवाली मधुलिका स्वयं भी आहत होती है।

मधुलिका का खेत पुरस्कार स्वरूप चुने जाने से अब वह एक ओर खेतीहीन बन जाती है, तो दूसरी ओर राजा द्वारा दिया जानेवाला प्रतिदान न स्वीकार कर उसे गरीबी और विपत्तियों से जूझना पड़ता है। अब वह मधुक वृक्ष के नीचे एक छोटी-सी फूस की झोंपड़ी बनाकर उसमें रहती है। दूसरों की खेती में कठोर परिश्रम करके रूखा-सूखा खाकर वह अपना गुजारा करती है। इसी अभावग्रस्त अवस्था में दिन, सप्ताह, महीने, वर्ष बीतते हैं। ऐसे ही शीतकाल की एक रात मधुलिका अपनी झोंपड़ी में बिते हुए दिनों का स्मरण करती है और अचानक उसे अरुण द्वारा रखे गए प्रेम प्रस्ताव की याद आती है। उसी समय मगध से निर्वासित हुआ अरुण संयोगवश मधुलिका के ही द्वार पर आश्रय की खोज में आ पहुँचता है। यह पुनर्भेट मधुलिका और अरुण दोनों के लिए एक-दूसरे का साथी बनने की प्रेरणा देती है। दोनों के बीच प्रेम पनपता है और अपने प्रेम में आहत हुई मधुलिका का उपयोग अरुण अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए करता है। वह मधुलिका को उसके खेत के बदले श्रावस्ती दुर्ग की समीपवाली जंगली जमीन माँगने के लिए कहता है। अरुण के प्रस्तावानुसार मधुलिका महाराज से भेंट कर जंगल से व्याप्त श्रावस्ती दुर्ग के समीप जमीन प्राप्त करती है। इसी जमीन पर अरुण अपने एक सौ सैनिकों को जमा करके दुर्ग पर आक्रमण करने की योजना बनाता है। मधुलिका को महारानी बनाने का विश्वास दिखानेवाले अरुण को अपने बाहुबल पर गर्व है, किंतु दुर्ग पर आक्रमण करने की उसकी योजना सुनकर मधुलिका बेचैन-सी हो उठती है। उसके मन में एक ओर अपना निजी प्रेम है, जिसमें उसने अपने-आप को पूरी तरह से न्योछावर कर दिया हैं, तो दूसरी ओर राष्ट्र के प्रति रहा अपना कर्तव्य। मधुलिका के मन में उत्पन्न हुए इसी अंतर्द्वंद्व के बीच उसे अपने पिता की याद भी आती है। इसके परिणामस्वरूप मधुलिका के मन में स्थित व्यक्ति-प्रेम, निजी प्रेम पर राष्ट्र-प्रेम हावी हो जाता है और वह अपने राष्ट्र की रक्षा के लिए अपने प्रेमी अरुण द्वारा रचे गए षड्यंत्र की जानकारी सेनापति को देती है। जानकारी के अनुसार सेनापति अरुण को बंदी बनाकर महाराज के सामने प्रस्तुत करता है। सभा मंडप में उपस्थित सारे नगरवासी अपने शत्रु अरुण को प्राणदंड की माँग करते हैं, महाराज भी उसे प्राणदंड की सजा सुनाते हैं। उसी समय अपने पिता की तरह फिर इक बार अपने दुर्ग की रक्षा करनेवाली मधुलिका को महाराज पुरस्कार माँगने का आग्रह करते हैं। किंतु मधुलिका के मन में अरुण के प्रति रहे चिरकाल समर्पित प्रेम भाव से वह अपने लिए भी प्राणदंड़ का पुरस्कार माँगती हुई अपने व्यक्तिगत निस्सीम प्रेमभाव को व्यक्त करने हेतु बंदी किए गए अरुण के पास जाकर खड़ी होती है। जहाँ कहानी का कथानक समाप्त होता है।

कहानी समीक्षा

प्रसाद जी की सभी कहानियाँ पुरानी परिपाटी से हटकर नए तंत्रों द्वारा प्रस्तुत हुई हैं। उन्होंने प्रस्तुत लंबी कहानी को कुल चार दृश्यों में विभाजित किया है। चरित्र प्रधान कहानी होने से चारों दृश्यों में कथानक की गतिशीलता के साथ-साथ चरित्रों की चारित्रिक विशेषताएँ विकसित होती हुई प्रखरता से उभरकर व्यक्त होती हैं। कथानक की दृष्टि से देखे तो इसका प्रारंभ, मध्य, चरमबिंदु और अंत स्पष्ट है। रोचक वातावरण में चरित्रों का परिचय कराते हुए कहानी का कथ्य प्रारंभ से मध्य और चरमबिंदु की ओर विकसित होता है। राष्ट्र के विरुद्ध शत्रु बनकर आक्रमण करने की योजना बनानेवाले अरुण की जानकारी मधुलिका सेनापति को देती है। इसी रहस्यात्मकता में कहानी का चरमबिंदु और अंत एक साथ उभरकर सामने आते हैं। प्रसाद जी ने अपनी अन्य कहानियों के समान ही इस कहानी का अंत भी बड़ी कुशलता से किया है। मधुलिका का आंतरिक द्वंद्व राष्ट्रप्रेम के प्रति झुकता है और उसकी जानकारी के अनुसार बंदी बना लिए अरुण को प्राणदंड की सजा होती है। इस पर मधुलिका भी अपने लिए प्राणदंड पुरस्कार माँगती है। किंतु उसकी माँग के अनुसार उसे वह सजा मिली या नहीं इस बात पर कहानी के अंत में प्रकाश नहीं पड़ता। जिससे पाठक के हृदय में कहानी के अंत के बाद भी काफी देर तक मधुलिका का चरित्र रहता है। इस प्रकार इस कहानी का प्रारंभ जितना प्रभावोत्पादक हुआ है, उसका अंत भी उतना ही उत्सुकतापूर्ण, भावपूर्ण, कुछ अंश तक नाटकीय किंतु बड़ा ही प्रशंसनीय हुआ है।

चरित्र चित्रण

अपनी हर कहानी के हर चरित्र के व्यक्तित्व का विकास उसके आत्मचिंतन द्वारा ही विकसित करना प्रसाद जी की कुशलता है। इसका प्रमाण प्रस्तुत कहानी ‘पुरस्कार’ में मिलता है। इस कहानी में कुल छह पात्र रेखांकित हैं, जिनमें से केवल दो ही प्रमुख पात्र हैं कहानी की नायिका मधुलिका और नायक अरुण। इनके अतिरिक्त महाराज, सेनापति, प्रतिहारी और अग्निसेन नामक चार पात्र अंकित हैं। मगर कथानक की दृष्टि से गौण पात्र हैं। अतः प्रधान कथानक की दृष्टि से इसमें केवल दो ही पात्र महत्त्वपूर्ण हैं, इसमें से कहानी की प्रमुख पात्र एवं नायिका मधुलिका का सामान्य परिचय निम्नवत् है

‘मधुलिका’ पुरस्कार कहानी की प्रधान चरित्र एवं कहानी की नायिका है। वह कोशल राज्य के अन्यतम वीर सिंह मित्र की एकमात्र कन्या है। वीर सिंह मित्र जिन्होंने कोशल और मगध राज्य के बीच हुए युद्ध में अपने शौर्य के बल पर कोशल की लाज रखी थी, ऐसे श्रेष्ठ वीरपिता की वह एकमात्र वीर पुत्री थी। अपने पिता के शौर्य, वीरता, धैर्य जैसे पितृगुण मधुलिका में भी विद्यमान हैं। अपने देश की सुरक्षा के खातिर अपना तन-मन न्योछावर करने की कर्तव्यमय भावना रखना, आवश्यकता पड़ने पर प्रासंगिकता से अपनी जिम्मेदारी निभाना, देशप्रेम के खातिर अपना निजी स्वार्थ, सुख त्यागना आदि देशप्रेमी पिता के गुण अपने आप ही मधुलिका में उतरते हुए नजर आते हैं। कौशेयवसन परिधान करके वह अपने ही खेत में एक दिन के लिए कृषक बनकर हल चलानेवाले महाराज को लज्जा और सम्मान से युक्त मुस्कुराहट के साथ बीज देने का काम करती है। कृषक बालिका होने से वह स्वाभिमानी और स्पष्टवादी है। अपने इन्हीं निजी गुणों के कारण वह कृषि महोत्सव के लिए राजा द्वारा उसका खेत चुनने पर राष्ट्र- नियम का स्वाभिमान से सम्मान करती है, किंतु उस खेत का प्रतिदान वह स्वीकारती नहीं। वह महाराज को बड़ी नम्रता से, किंतु पूरी स्पष्टता से पितृ-पितामहों की भूमि बेचना अपराध कहती है। इतनी ही स्पष्टता से वह मगध के राजकुमार अरुण द्वारा प्रस्तुत प्रेम भावना का अस्वीकार करती है।

खेतीहीन होने से वह अभावग्रस्त होती है। इससे निर्मित हुई स्थिति से वह खुद संघर्ष करती है। अपने लिए फूस की झोंपड़ी बनाती है और दूसरे कृषकों के खेत में काम करके अपनी उपजीविका चलाती है। इन दिनों मधुलिका का चरित्र एक स्वाभिमानी, स्वावलंबी, परिश्रमी, स्पष्टवादी, श्रमिक तथा कृषक बालिका आदि गुणों से विकसित होता है। उसके चरित्र में बदलाव तब आता है, जब मगध का राजकुमार निर्वासित होकर आश्रय की तलाश में दुबारा उसके सामने आ खड़ा होता है। अब मधुलिका का चरित्र एक प्रेमिका के रूप में विकसित होता है। प्रेमी अरुण द्वारा कही गई सारी बातों पर विश्वास रखकर मधुलिका सच्ची प्रेमिका बनने का प्रयास करती है। वह अपने आपको अरुण के प्रति न्योछावर कर देती है। इतना ही नहीं वह अपने प्रेमीभाव में इतनी प्रामाणिकता रखती है कि अरुण द्वारा रचे गए षड्यंत्र में वह राष्ट्र-द्रोह जैसा कृत्य करने के लिए भी उद्विग्न होती है। किंतु जब उसे सही ज्ञान होता है, तब इसमें स्थित प्रेमिका के स्थान पर एक सच्ची राष्ट्रप्रेमी, वीरप्रेमी की चारित्रिक विशेषता अपने ही प्रेमी के विरोध में खड़ी होने के लिए आंतरिक शक्ति प्रदान करती है। किंतु महाराज द्वारा अपने प्रेमी को दी गई प्राणदंड की बात सुनकर फिर उसके मन में अपने निजी प्रेम की भावना विकसित होती है और वह अपने लिए भी प्राणदंड ही माँगती है। अगर वह चाहती तो महाराज से अपने प्रेमी अरुण की प्राणदंड की सजा को माफ भी करवा सकती थी, किंतु उसने वैसा नहीं किया। यहाँ मधुलिका के चरित्र में अंतर्द्वद्व की विशेषता अधिक मात्रा में उभरी है। राष्ट्र-प्रेम या निजी प्रेम इन दोनों मानसिक भावनाओं के बीच मधुलिका पूरी सावधानी के साथ समय-समय पर अपना निर्णय बदल लेती है। जब राष्ट्र पर संकट आता है, तब वह एक सच्चे देश प्रेमी के समान अपना निजी प्रेम राष्ट्र के खातिर दफना देती है और राष्ट्र सुरक्षित होने के  बाद जब अपने प्रेमी को प्राणदंड की सजा होती हैं, तब अपने निजी प्रेमभाव स्वरूप अपने प्रेमी के साथ मरने की इच्छा व्यक्त करती है। इस प्रकार प्रस्तुत कहानी में मधुलिका का चरित्र प्रधान होने के कारण विविध चारित्रिक विशेषताओं से परिपूर्ण दिखाई देता है।

इच्छा और स्वीकृति मूल्यों का संघर्ष

‘पुरस्कार’ में राष्ट्रीय भावना और व्यक्ति चेतना के टकराव को एक और रूप में देख सकते हैं। यह विधान और प्रवृत्ति का द्वंद्व भी है। ‘विधान’ अर्थात् मान्य और स्वीकृत मूल्य तथा प्रवृत्ति का मतलब व्यक्ति की अपनी इच्छा। कहानी में जिस ‘राष्ट्रीय नियम’ का उल्लेख है, वह विधान का एक अंग है। राजा जिस भूमि को चाहे ले सकता है और प्रजा के लिए बाध्यता है कि वह उसे शिरोधार्य कर ले। मधूलिका भी अनचाहे अपने ‘स्नेह की भूमि को राजा के अधिकार में जाते देखती है और उसका कोई प्रत्यक्ष विरोध नहीं करती है। लेकिन पुरस्कार में प्राप्त स्वर्ण मुद्राओं को न्योछावर करके बिखेर देती है, जिसका अभिप्राय यह है कि वह अपनी भूमि को बेचना नहीं चाहती। वह चकित राजा से कहती है “देव ! यह मेरे पितृ -पितामहों की भूमि है। इसे बेचना अपराध है। इसका मूल्य स्वीकार करना मेरी सामर्थ्य के बाहर है।” यह उद्धरण मधूलिका की ‘प्रवृत्ति’ को रेखांकित करता है, जबकि ‘विधान’ की कठोरता मंत्री के कथन में व्यक्त हुई है।

“अबोध, क्या बक रही है राजकीय अनुग्रह का तिरस्कार ! तेरी भूमि का चौगुना मूल्य है, फिर कोशल का यह सुनिश्चित राष्ट्रीय नियम है। तुम राजकीय रक्षण पाने की अधिकारिणी हुई, इस धन से अपने को सुखी बना।”

पुरस्कार का भाषा शिल्प

‘पुरस्कार’ में भाषा के दो रूप मिलते हैं। जहाँ प्रकृति के सौंदर्य का अंकन है भाषा अधिक संस्कृतनिष्ठ, अधिक काव्यात्मक और बिम्बात्मक हो गई है। ऐसे स्थलों पर लगता है कि छायावादी कविता का कोई अंश गद्य-खंड के रूप सामने है। कहानी का प्रारंभिक अंश इस संदर्भ में द्रष्टव्य है-

“आर्द्रा नक्षत्र; आकाश में काले-काले बादलों की घुमड़ जिसमें देवदुंदुभी का गंभीर घोष । प्राचीन के एक निरभ्र कोने से स्वर्ण- पुरुष झांकने लगा देखने लगा महाराज की सवारी। शैलबाला के अंचल में समतल उर्वरा भूमि से सोंधी बास उठ रही थीं। नगर तोरण से जय घोष हुआ।”

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