सिंदूर तिलकित भाल
घोर निर्जन में परिस्थिति ने दिया है डाल!
याद आता तुम्हारा सिंदूर तिलकित भाल!
कौन है वह व्यक्ति जिसको चाहिए न समाज?
कौन है वह जिसको नहीं पड़ता दूसरे से काज?
चाहिए किसको नहीं सहयोग?
चाहिए किसको नहीं सहवास?
कौन चाहेगा कि उसका शून्य में टकराय यह उच्छ्वास?
हो गया हूँ मैं नहीं पाषाण
जिसको डाल दे कोई कहीं भी
करेगा वह कभी कुछ न विरोध
करेगा वह कुछ नहीं अनुरोध
वेदना ही नहीं उसके पास
फिर उठेगा कहाँ से निःश्वास
मैं न साधारण, सचेतन जंतु
यहाँ हाँ ना – किन्तु और परन्तु
यहाँ हर्ष-विषाद–चिंता-क्रोध
यहाँ है सुख-दुःख का अवबोध
यहाँ हैं प्रत्यक्ष औ’ अनुमान
यहाँ स्मृति – विस्मृति के सभी के स्थान
तभी तो तुम याद आतीं प्राण,
हो गया हूँ मैं नहीं पाषाण!
याद आते स्वजन
जिनकी स्नेह से भींगी अमृतमय आँख
स्मृति – विहंगम की कभी थकने न देगी पाँख
याद आता मुझे अपना वह ‘तरउनी’ ग्राम
याद आतीं लीचियाँ, वे आम
याद आते मुझे मिथिला के रुचिर भू-भाग
याद आते धान
याद आते कमल, कुमुदिनि और तालमखान
याद आते शस्य – श्यामल जनपदों के
रूप-गुण- अनुसार ही रक्खे गये वे नाम
याद आते वेणुवन वे नीलिमा के निलय, अति अभिराम
धन्य वे जिनके मृदुलतम अंक
हुए थे मेरे लिए पर्यंक
धन्य वे जिनकी उपज के भाग
अन्न- पानी और भाजी – साग
फूल-फल औ’ कंद-मूल, अनेक विध मधु – मांस
विपुल उनका ऋण, सधा सकता न मैं दशमांश
ओह, यद्यपि पड़ गया हूँ दूर उनसे आज
हृदय से पर आ रही आवाज-
धन्य वे जन, वही धन्य समाज
यहाँ भी तो हूँ न मैं असहाय
यहाँ भी हैं व्यक्ति औ’ समुदाय
किन्तु जीवन भर रहूँ फिर भी प्रवासी ही कहेंगे हाय!
मरूँगा तो चिता पर दो फूल देंगे डाल
समय चलता जाएगा निर्बाध अपनी चाल
सुनोगी तुम तो उठेगी हूक
मैं रहूँगा सामने (तसवीर में) पर मूक
सांध्य नभ में पश्चिमांत-समान
लालिमा का जब करुण आख्यान
सुना करता हूँ, सुमुखि उस काल
याद आता तुम्हारा सिंदूर तिलकित भाल।
‘सिंदूर तिलकित भाल’ शीर्षक कविता ‘सतरंगे पंखोंवाली’ (1959) काव्य संग्रह में संगृहीत है। इस कविता में प्रवासी व्यक्ति की मानसिक पीड़ा का चित्रण किया गया है। रोजी-रोटी के लिए अपना गाँव-घर छोड़कर लोग परदेश चले जाते हैं। कमाने-खाने वाले वर्ग का व्यक्ति निरंतर परेशानियाँ झेलता हुआ कई तरह की मानसिक पीड़ा से गुजरता है। उसे अपने घर-परिवार, गाँव-गिराँव, भाषा-बोली, खान-पान की बहुत याद आती है।
पंक्तियाँ – 01
घोर निर्जन में परिस्थिति ने दिया है डाल!
याद आता तुम्हारा सिंदूर तिलकित भाल!
कौन है वह व्यक्ति जिसको चाहिए न समाज?
कौन है वह जिसको नहीं पड़ता दूसरे से काज?
चाहिए किसको नहीं सहयोग?
चाहिए किसको नहीं सहवास?
कौन चाहेगा कि उसका शून्य में टकराय यह उच्छ्वास?
शब्दार्थ
सिंदूर तिलकित भाल – स्त्री का सिंदूर से सजा ललाट
काज – काम, जरूरत,
सहवास – एक साथ रहना, दाम्पत्य – सुख,
शून्य- अकेलापन,
उच्छ्वास- लंबी साँस छोड़ना, आहें भरना
प्रसंग
प्रस्तुत काव्यांश नागार्जुन की कविता ‘सिंदूर तिलकित भाल’ से लिया गया है। कवि ने इस कविता के माध्यम से बताना चाहा है कि मनुष्य की स्वाभाविक इच्छा होती है कि वह अपनों के बीच जीवन व्यतीत करे परंतु जीवन की परिस्थितियाँ उसे प्रवास के लिए मजबूर कर देती हैं, उसे अपनों से दूर कर देती है। प्रवास के दौरान उसे अपनों की बहुत याद आती है। प्रवास में भले ही वह बहुत लोगों से घिरा हो मगर बाहर की दुनिया में उसे आत्मीयता का अभाव हमेशा महसूस होता है।
व्याख्या
‘सिंदूर तिलकित भाल’ शीर्षक कविता की पहली कुछ पंक्तियों में कवि नागार्जुन कहते हैं कि जीवन की परिस्थितियों ने मुझे घोर निर्जन में रहने को मजबूर किया है। ऐसा नहीं है कि इस जगह पर लोग नहीं रहते हैं, मगर यहाँ हमारे लोग नहीं रहते हैं। इसलिए मुझे बार-बार लगता है कि मैं निर्जन में रह रहा हूँ। कवि अपनी पत्नी को याद करते हुए कहते हैं कि मुझे सिंदूर से चमकता हुआ तुम्हारा ललाट याद आता है। इतनी दूर रहकर तुम्हें याद करता हूँ तो तुम्हारी वही छवि मुझे याद आती है कि तुमने अपनी माँग में सिंदूर भर रखा है और ललाट पर सिंदूर की बिंदी लगा रखी है। भला बताओ कि ऐसा कौन होगा जिसे अपने समाज की जरूरत नहीं होती होगी? ऐसा कौन होगा जिसे एक-दूसरे से काम नहीं पड़ता होगा? ऐसा कौन होगा जिसे परस्पर सहयोग की जरूरत नहीं होती होगी? ऐसा कौन होगा जिसे अपने लोगों के साथ रहने की इच्छा नहीं होती होगी या दाम्पत्य-सुख की जरूरत नहीं पड़ती होगी? भला कौन चाहेगा कि तनाव के क्षणों में वह अकेला रहे! उसकी साँसें सूनेपन से टकराकर लौट जाएँ!
पंक्तियाँ – 02
हो गया हूँ मैं नहीं पाषाण
जिसको डाल दे कोई कहीं भी
करेगा वह कभी कुछ न विरोध
करेगा वह कुछ नहीं अनुरोध
वेदना ही नहीं उसके पास
फिर उठेगा कहाँ से निःश्वास
मैं न साधारण, सचेतन जंतु
यहाँ हाँ ना – किन्तु और परन्तु
यहाँ हर्ष-विषाद–चिंता-क्रोध
यहाँ है सुख-दुःख का अवबोध
यहाँ हैं प्रत्यक्ष औ’ अनुमान
यहाँ स्मृति-विस्मृति के सभी के स्थान
तभी तो तुम याद आतीं प्राण,
हो गया हूँ मैं नहीं पाषाण!
शब्दार्थ
पाषाण – निर्जीव, संवेदनहीन
विरोध – Protest
अनुरोध – निवेदन
वेदना – पीड़ा
सचेतन जन्तु – संवेदनशील मनुष्य
हर्ष – विषाद – खुशी और दुख
अवबोध – समझ, एहसास
प्रत्यक्ष औ’ अनुमान – ज्ञान के दो स्रोत
स्मृति – विस्मृति- यादें और भुलावे
स्वजन – अपने लोग
स्मृति-विहंगम – यादें मानो पंछी हैं
तरउनी ग्राम – नागार्जुन के गाँव का नाम,
रुचिर भू-भाग- सुंदर ग्रामीण क्षेत्र
कुमुदिनि – कमल का एक रूप
प्रसंग
प्रस्तुत काव्यांश नागार्जुन की कविता ‘सिंदूर तिलकित भाल’ से लिया गया है। कवि ने इस कविता के माध्यम से बताना चाहा है कि मनुष्य की स्वाभाविक इच्छा होती है कि वह अपनों के बीच जीवन व्यतीत करे परंतु जीवन की परिस्थितियाँ उसे प्रवास के लिए मजबूर कर देती हैं, उसे अपनों से दूर कर देती है। प्रवास के दौरान उसे अपनों की बहुत याद आती है। प्रवास में भले ही वह बहुत लोगों से घिरा हो मगर बाहर की दुनिया में उसे आत्मीयता का अभाव हमेशा महसूस होता है।
व्याख्या
कवि कहते हैं कि मैं कोई पत्थर तो हूँ नहीं कि संवेदनहीन हो जाऊँ? पत्थर को कहीं भी डाल दो, वह विरोध नहीं करेगा, कुछ अनुरोध भी नहीं करेगा क्योंकि वेदना को सहेजने या समझने की क्षमता उसके पास है ही नहीं! इसलिए तनाव में डूबी हुई लंबी साँसें वह नहीं ले सकता। मगर, मैं तो पत्थर हूँ नहीं। कवि होने के कारण साधारण लोगों की अपेक्षा कुछ ज्यादा संवेदनशील हूँ। मेरे पास ढेर सारी मानसिक उलझने हैं। मैं सपाट तरीके से नहीं सोच सकता। मेरे पास चीजों और स्थियियों के लिए ‘हाँ’ भी है और ‘ना’ भी है और ‘किन्तु’ और ‘परन्तु’ भी! इसी तरह मैं ढेर सारी द्वंद्वात्मक मनःस्थितियों से गुजर रहा हूँ। हर्ष-विषाद, चिंता-क्रोध, सुख-दुख के एहसास आदि के बीच डूबता-उतरता हुआ जीवन जी रहा हूँ। यहाँ प्रत्यक्ष से कुछ जानकारियाँ मिलती हैं तो कुछ के लिए अनुमान का सहारा लेना पड़ता है। मुझे यहाँ की जानकारी तो प्रत्यक्ष रूप से मिलती है, मगर तुम लोगों के बारे में जानने के लिए अनुमान से ही काम चलाना पड़ता है। दुख के क्षणों में तुम्हारी यादों से कभी सहारा मिलता है, तो दुख अति बढ़ जाने से कभी भूल जाने से राहत मिलती है! मैं यहाँ इतनी उलझनों के बीच हूँ, तभी तो तुम्हारी बहुत याद आती है। तुम्हें याद करके मानो मेरे प्राण सहारा पा जाते हैं। मैं इंसान हूँ, पत्थर नहीं!
पंक्तियाँ – 03
याद आते स्वजन
जिनकी स्नेह से भींगी अमृतमय आँख
स्मृति-विहंगम की कभी थकने न देगी पाँख
याद आता मुझे अपना वह ‘तरउनी’ ग्राम
याद आतीं लीचियाँ, वे आम
याद आते मुझे मिथिला के रुचिर भू-भाग
याद आते धान
याद आते कमल, कुमुदिनि और तालमखान
याद आते शस्य-श्यामल जनपदों के
रूप-गुण-अनुसार ही रक्खे गये वे नाम
याद आते वेणुवन वे नीलिमा के निलय, अति अभिराम
शब्दार्थ
स्वजन – अपने लोग
स्नेह – प्रेम
पाँख = पंख
स्मृति-विहंगम – यादें मानो पंछी हैं
तरउनी ग्राम – नागार्जुन के गाँव का नाम,
रुचिर भू-भाग- सुंदर ग्रामीण क्षेत्र
कुमुदिनि – कमल का एक रूप
तालमखान – मखाना से भरे हुए तालाब
शस्य-श्यामल – फसलों की गहरी हरियाली
वेणुवन – बाँस के जंगल
नीलिमा के निलय – बाँस के जंगल नीले रंग के घर की तरह थे।
अति अभिराम – अत्यधिक सुंदर
प्रसंग
प्रस्तुत काव्यांश नागार्जुन की कविता ‘सिंदूर तिलकित भाल’ से लिया गया है। कवि ने इस कविता के माध्यम से बताना चाहा है कि मनुष्य की स्वाभाविक इच्छा होती है कि वह अपनों के बीच जीवन व्यतीत करे परंतु जीवन की परिस्थितियाँ उसे प्रवास के लिए मजबूर कर देती हैं, उसे अपनों से दूर कर देती है। प्रवास के दौरान उसे अपनों की बहुत याद आती है। प्रवास में भले ही वह बहुत लोगों से घिरा हो मगर बाहर की दुनिया में उसे आत्मीयता का अभाव हमेशा महसूस होता है।
व्याख्या
नागार्जुन आगे कहते हैं कि मुझे अपने लोगों की बहुत याद आती है। स्नेह के आँसुओं से भीगी हुई उन लोगों की अमृतमय आँखें याद आती हैं। वे आँखें मेरे स्मृति-विहंगम के पंखों को कभी थकने नहीं देंगी। मुझे अपना ‘तरउनी’ गाँव याद आता है। वहाँ की लीचियाँ याद आती हैं। वहाँ के आम याद आते हैं। मेरी मातृभूमि मिथिला के सुंदर भू-भाग याद आते हैं। धान की लहलहाती फसलें याद आती हैं। वहाँ के ताल-तलैया में कमल और कुमुदिनी के फूल खिलते हैं। उन तालाबों में मखाना की खेती होती है। ये सब याद आते हैं। मिथिला के विभिन्न क्षेत्र हरी-भरी फसलों से ढँके होते हैं। ऐसा लगता है कि उन क्षेत्रों के नाम उनके रूप और गुण के अनुसार रखे गए हैं। वहाँ बाँस के जंगल हैं। दूर से देखो तो वे जंगल नीलिमा के घर की तरह बहुत सुंदर लगते हैं। इन सबकी बहुत याद आती है।
पंक्तियाँ – 04
धन्य वे जिनके मृदुलतम अंक
हुए थे मेरे लिए पर्यंक
धन्य वे जिनकी उपज के भाग
अन्न-पानी और भाजी-साग
फूल-फल औ’ कंद-मूल, अनेकविध मधु-मांस
विपुल उनका ऋण, सधा सकता न मैं दशमांश
शब्दार्थ
मृदुलतम अंक — वात्सल्य से भरी कोमल गोद
पर्यंक – पलंग
धन्य – श्रेष्ठ
उपज – पैदावार
भाजी-साग – सब्जी और साग
अनेकविध – कई तरह के
मधु-मांस- शराब और मांस
दशमांश – दस प्रतिशत
प्रसंग
प्रस्तुत काव्यांश नागार्जुन की कविता ‘सिंदूर तिलकित भाल’ से लिया गया है। कवि ने इस कविता के माध्यम से बताना चाहा है कि मनुष्य की स्वाभाविक इच्छा होती है कि वह अपनों के बीच जीवन व्यतीत करे परंतु जीवन की परिस्थितियाँ उसे प्रवास के लिए मजबूर कर देती हैं, उसे अपनों से दूर कर देती है। प्रवास के दौरान उसे अपनों की बहुत याद आती है। प्रवास में भले ही वह बहुत लोगों से घिरा हो मगर बाहर की दुनिया में उसे आत्मीयता का अभाव हमेशा महसूस होता है।
व्याख्या
कवि कहते हैं कि मैं उन सबके प्रति आभार प्रकट करता हूँ जिनकी वात्सल्य भरी कोमल गोद का सुख मिला था। माँ-बाप के अलावा न जाने कितने लोगों ने गोद में रखकर खेलाया था और मैं उन गोदों में पलंग का सुख पाते हुए सो गया था। गाँव में रहते हुए न जाने किन-किन लोगों की उपज से बना भोजन ग्रहण करने का मौका मिला। अन्न-पानी-साग-सब्जी-मांस-मदिरा के अलावा क्या-क्या गिनवाऊँ? उन सबके प्रति आभार प्रकट करता हूँ! उन सबका मुझ पर कर्ज है। इस कर्ज का दस प्रतिशत भी चुकाने की क्षमता मुझमें नहीं है। मेरे लिए अफसोस की बात है कि मैं इन सबसे दूर आ गया हूँ। मगर मेरा मन बार-बार कहता है कि वे लोग और वह समाज धन्य हैं!
पंक्तियाँ – 05
ओह, यद्यपि पड़ गया हूँ दूर उनसे आज
हृदय से पर आ रही आवाज-
धन्य वे जन, वही धन्य समाज
यहाँ भी तो हूँ न मैं असहाय
यहाँ भी हैं व्यक्ति औ’ समुदाय
किन्तु जीवन भर रहूँ फिर भी प्रवासी ही कहेंगे हाय!
मरूँगा तो चिता पर दो फूल देंगे डाल
समय चलता जाएगा निर्बाध अपनी चाल
सुनोगी तुम तो उठेगी हूक
मैं रहूँगा सामने (तसवीर में) पर मूक
सांध्य नभ में पश्चिमांत-समान
लालिमा का जब करुण आख्यान
सुना करता हूँ, सुमुखि उस काल
याद आता तुम्हारा सिंदूर तिलकित भाल।
शब्दार्थ
यद्यपि – हालाँकि
प्रवासी – बाहरी व्यक्ति
निर्बाध – बिना बाधा के
हूक – पीड़ा, कसक
पश्चिमांत-समान – पश्चिम दिशा का अंतिम हिस्सा
करुण आख्यान – करुणा-दया से भरी हुई कथा
सुमुखि – सुंदर मुख वाली (पत्नी)
प्रसंग
प्रस्तुत काव्यांश नागार्जुन की कविता ‘सिंदूर तिलकित भाल’ से लिया गया है। कवि ने इस कविता के माध्यम से बताना चाहा है कि मनुष्य की स्वाभाविक इच्छा होती है कि वह अपनों के बीच जीवन व्यतीत करे परंतु जीवन की परिस्थितियाँ उसे प्रवास के लिए मजबूर कर देती हैं, उसे अपनों से दूर कर देती है। प्रवास के दौरान उसे अपनों की बहुत याद आती है। प्रवास में भले ही वह बहुत लोगों से घिरा हो मगर बाहर की दुनिया में उसे आत्मीयता का अभाव हमेशा महसूस होता है।
व्याख्या
यद्यपि यहाँ भी रहते-रहते एक तरह का समाज बन गया है। यहाँ भी आपस में प्रेम-व्यवहार हो गया है। मैं यहाँ असहाय नहीं हूँ। लोगों से मित्रता है और आपस में सहयोग की भावना है। फिर भी एक दंश तो बना ही रहता है कि मैं बाहर का आदमी हूँ! मैं जीवन भर यहाँ रह जाऊँ तब भी लोग मुझे ‘प्रवासी’ यानी बाहरी समझेंगे और इसी तरह के नाम से याद करेंगे! यदि यहीं मर गया तो दो-चार फूल लोग डाल देंगे और फिर भूल जाएँगे! समय गुजरता जाएगा और मेरी कहीं भी निशानी नहीं होगी! मेरे न होने का सामाचार जब गाँव पर तुम सुनोगी तो रो-बिलख कर रह जाओगी। तुम्हारे हृदय में हूक लग जाएगी कि मेरे अंतिम समय में तुम लोगों के साथ मैं नहीं था! मेरी तस्वीर को तुम बार-बार देखोगी, लेकिन मैं तस्वीर में से तुम्हें चुपचाप देखता रहूँगा! शाम के समय पश्चिम दिशा में जब सूरज डूबता है तो लालिमा का एक करुण आख्यान मुझे सुनाई देता है। डूबता हुआ सूरज और लालिमा लिए हुए पश्चिम का आकाश! इस दृश्य में मुझे अपने जीवन के अंत और सिंदूर लगे तुम्हारे ललाट का ध्यान हो आता है।
यह कविता प्रवास की पीड़ा को व्यक्त करती है।
अपने जन्म-स्थान और परिवेश के प्रति स्वाभाविक लगाव को सुंदर तरीके से प्रस्तुत किया गया है।
रोजी-रोजगार की मजबूरी कमाने-खानेवाले को प्रवासी बनने को मजबूर करती है। प्रवास का अर्थ है ‘बाहरी’ बनकर रहना। यह भावबोध जीवन के प्रति आत्मविश्वास को कमजोर कर देता है।
10, 17, 21, 24 और 31 मात्राओं की पंक्तियों की सहायता से इस कविता का निर्माण हुआ है। इसमें 17 मात्राओं की पंक्तियाँ सबसे ज्यादा हैं। कवि ने इन पंक्तियों को रखने का कोई निश्चित क्रम नहीं अपनाया है। उसका प्रयास है कि कहन शैली में पूरी कविता का प्रवाह बना रहे!