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सुमित्रानंदन की कविता ‘यह धरती कितना देती है!’ का सम्पूर्ण अध्ययन

Yh Dharti Kitna Deti Hai By Sumitranandan Pant The Best Explanation

इस कविता की रचना सन् 1954 में हुई थी। यह कविता पंत जी की उन रचनाओं का प्रतिनिधित्व करती है जिनमें कवि ने अनुभूतियों की तीव्रता और सूक्ष्मता को सहज और सरल ढंग से प्रस्तुत किया है। इसे इनकी काव्य संग्रह ‘वाणी’ में संकलित किया गया है, जिसमें कवि छायावादी काल्पनिक जगत् की अपेक्षा जीवन की स्वाभाविकता को महत्त्व देने लगे हैं।’ यह धरती कितना देती है  में कवि ने एक साधारण-सी घटना के आधार पर जीवन की समस्याओं के साथ मानवीय व्यवहार का भी प्रतिपादन किया है। जो व्यक्ति केवल धन को महत्त्व देता है उसे जीवन में निराशा मिलती है किंतु जो व्यक्ति नि:स्वार्थ भाव से कुछ कार्य करे तो उसे यश, सफलता और आनंद सभी कुछ मिल जाता है। धन की अपेक्षा धरती से प्यार करे तो समता, समृद्धि और सद्भाव प्राप्त होते हैं। इस कविता का यही प्रतिपाद्य है।

यह धरती कितना देती है !

मैंने छुटपन में छिपकर पैसे बोये थे,

सोचा था, पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे,

रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी

और फूल फलकर मैं मोटा सेठ बनूँगा!

पर बंजर धरती में एक न अंकुर फूटा,

बन्ध्या मिट्टी ने न एक भी पैसा उगला!

सपने जाने कहाँ मिटे, कब धूल हो गये!

मैं हताश हो बाट जोहता रहा दिनों तक

बाल-कल्पना के अपलक पाँवड़े बिछाकर

मैं अबोध था, मैंने गलत बीज बोये थे,

ममता को रोपा था, तृष्णा को सींचा था!

अर्द्धशती हहराती निकल गयी है तबसे!

कितने ही मधु पतझर बीत गये अनजाने,

ग्रीष्म तपे, वर्षा झूली, शरदें मुसकाई;

सी-सी कर हेमन्त कँपे, तरु झरे, खिले वन!

और  जब फिर से गाढ़ी, ऊदी लालसा लिये

गहरे, कजरारे बादल बरसे धरती पर,

मैंने कौतूहल-वश आँगन के कोने की

गीली तह यों ही उँगली से सहलाकर

बीज सेम के दबा दिये मिट्टी के नीचे-

भू के अंचल में मणि-माणिक बाँध दिये हो!

मैं फिर भूल गया इस छोटी-सी घटना को,

और बात भी क्या थी याद जिसे रखता मन!

किन्तु, एक दिन जब मैं सन्ध्या को आँगन में

टहल रहा था,- तब सहसा, मैंने देखा

उसे हर्ष-विमूढ़ हो उठा मैं विस्मय से!

देखा-आँगन के कोने में कई नवागत

छोटे-छोटे छाता ताने खड़े हुए हैं!

छाता कहूँ कि विजय पताकाएँ जीवन की,

या हथेलियाँ खोले थे वे नन्हीं प्यारी-

जो भी हो, वे हरे-हरे उल्लास से भरे

पंख मारकर उड़ने को उत्सुक लगते थे-

डिम्ब तोड़कर निकले चिड़ियों के बच्चों से!

निर्निमेष, क्षण भर, मैं उनको रहा देखता-

सहसा मुझे स्मरण हो आया,-कुछ दिन पहिले

बीज सेम के मैंने रोपे थे आँगन में,

और उन्हीं से बौने पौधों की यह पलटन

मेरी आँखों के सम्मुख अब खड़ी गर्व से,

नन्हें नाटे पैर पटक, बढ़ती जाती है!

तब से उनको रहा देखता धीरे-धीरे

अनगिनती पत्तों से लद, भर गयी झाड़ियाँ,

हरे-भरे टँग गये कई मखमली चँदोवे!

बेलें फैल गयी बलखा, आँगन में लहरा,

और सहारा लेकर बाड़े की टट्टी का

हरे-हरे सौ झरने फूट पड़े ऊपर को,-

मैं अवाक् रह गया-वंश कैसे बढ़ता है!

छोटे तारों-से छितरे, फूलों के छींटे

झागों-से लिपटे लहरों श्यामल लतरों पर

सुंदर लगते थे, मावस के हँसमुख नभ-से,

चोटी के मोती-से, आँचल के बूटों-से!

ओह, समय पर उनमें कितनी फलियाँ फूटी!

कितनी सारी फलियाँ, कितनी प्यारी फलियाँ,-

पतली चौड़ी फलियाँ! उफ उनकी क्या गिनती!

लम्बी-लम्बी अँगुलियों – सी नन्हीं-नन्हीं

तलवारों-सी पन्ने के प्यारे हारों-सी,

झूठ न समझे चन्द्र कलाओं-सी नित बढ़ती,

सच्चे मोती की लड़ियों-सी, ढेर-ढेर खिल

झुण्ड-झुण्ड झिलमिलकर कचपचिया तारों-सी!

आः इतनी फलियाँ टूटी, जाड़ो भर खाई,

सुबह शाम वे घर-घर पकीं, पड़ोस पास के

जाने-अनजाने सब लोगों में बँटवाई

बंधु-बांधवों, मित्रों, अभ्यागत, मँगतों ने

जी भर-भर दिन-रात महुल्ले भर ने खाई !

कितनी सारी फलियाँ, कितनी प्यारी फलियाँ!

यह धरती कितना देती है! धरती माता

कितना देती है अपने प्यारे पुत्रों को!

नहीं समझ पाया था मैं उसके महत्त्व को,-

बचपन में छिः स्वार्थ लोभ वश पैसे बोकर!

रत्न प्रसविनी है वसुधा, अब समझ सका हूँ।

इसमें सच्ची समता के दाने बोने हैं;

इसमें जन की क्षमता का दाने बोने हैं,

इसमें मानव-ममता के दाने बोने हैं,-

जिससे उगल सके फिर धूल सुनहली फसलें

मानवता की, – जीवन श्रम से हँसे दिशाएँ-

हम जैसा बोयेंगे वैसा ही पायेंगे।

मैंने छुटपन में छिपकर पैसे बोये थे,

सोचा था, पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे,

रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी

और फूल फलकर मैं मोटा सेठ बनूँगा!

शब्दार्थ —

कलदार – सुंदर, आकर्षक

मधुर – सरस

प्रसंग – ‘यह धरती कितना देती है’ कविता की इन पंक्तियों में कवि अपने जीवन की एक घटना का वर्णन करते हैं।

व्याख्या – मैंने अपने बचपन में सबसे छिपकर, बिना किसी को बताए धरती में पैसों को बोया था। उस समय नासमझ होने के कारण मैंने यह सोचा था कि एक दिन इन पैसों के पेड़ उगेंगे, जिन पर रुपयों की सुंदर-सुंदर फसलें पैदा होंगी। जिनकी खनक को सुनकर मुझे आनंद मिलेगा और उस धन का उपभोग करता हुआ मैं एक बहुत बड़ा सेठ बन जाऊँगा, धन-संपत्ति की प्रचुरता के कारण मुझे वैभव-विलास की सभी प्रकार की सुविधाएँ उपलब्ध हो जाएँगी।

विशेष –

(1) इसमें कवि ने बाल्यकाल के माध्यम से मनुष्य की स्वार्थ वृत्ति का सहज चित्रण किया है ; जब व्यक्ति अपने हितों को प्रमुखता देते हुए अपने कार्यों को दूसरों से छिप कर करता है।

(2) अलंकार – (i) ‘मैंने छुटपन….. सेठ बनूँगा’ – स्वभावोक्ति।

(ii) ‘और फूल फलकर में’ – अनुप्रास।

पर बंजर धरती में एक न अंकुर फूटा,

बन्ध्या मिट्टी नें न एक भी पैसा उगला!-

सपने जाने कहाँ मिटे, कब धूल हो गये!

मैं हताश हो बाट जोहता रहा दिनों तक

बाल-कल्पना के अपलक पाँवड़े बिछाकर

मैं अबोध था, मैंने गलत बीज बोये थे,

ममता को रोपा था, तृष्णा को सींचा था!

 

शब्दार्थ

बंजर – barren, अनुर्वर

अंकुर – sprout

बन्ध्या – बंजर, अनुपजाऊ

हताश – निराश

बाट जोहना – राह देखना

अपलक – एकटक

पाँवड़े बिछाकर – स्वागत के लिए बिछाये गए कपड़े।

अबोध – अनजान

ममता – ममत्व

रोपा – बोया

तृष्णा – लालच, प्यास

 

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश ‘यह धरती कितना देती है’ कविता में से लिया गया है। इसमें कवि अपनी बचपन की एक घटना और उससे फल पाने की इच्छा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि

व्याख्या – कुछ पैसे धरती में बो देने के पश्चात् मैंने कई दिन तक उस धरती को देखा किंतु उस धरती में से एक भी आशा का अंकुर नहीं फूटा। वह धरती ही बंजर थी, जिस प्रकार बाँझ के घर संतान नहीं होती उसी प्रकार उस मिट्टी ने एक भी पैसा नहीं उगला; मैंने रुपयों की फसलों के जो स्वप्न देखे थे, जो आशाएँ बाँधी थीं, वे सब मिट्टी में मिल गई। निराश होकर भी मैं कई दिन तक उसकी प्रतीक्षा करता रहा। जिस प्रकार किसी के स्वागत के लिए पाँवड़े बिछा दिए जाते हैं, उसी प्रकार मैं भी अपनी बाल कल्पनाओं को उसके साथ लगाए रहा। वस्तुतः यह मेरा अज्ञान ही था, क्योंकि मैंने जो बीज बोये थे वही गलत थे और इसके साथ मैंने अपने ममत्व को जैसे बो दिया था। अपने स्वार्थ को तृष्णा, लालच अथवा कामना से सींचता रहा, ये सभी निराश करने के कारण थे।

विशेष – बचपन को अबोधता के साथ कवि इस बात को भी स्पष्ट करना चाहता है कि स्वार्थ, तृष्णा आदि से किए हुए कार्य का प्रतिफल भी उसी रूप में प्राप्त होता है।

पर बंजर धरती में एक न अंकुर फूटा,

बन्ध्या मिट्टी नें न एक भी पैसा उगला! मानवीकरण अलंकार

मैं हताश हो बाट जोहता रहा दिनों तक

बाल-कल्पना (रूपक) के अपलक पाँवड़े बिछाकर – लोकोक्ति

ममता को रोपा था, तृष्णा को सींचा था! – विरोधाभास

अर्द्धशती हहराती निकल गयी है तबसे!

कितने ही मधु पतझर बीत गये अनजाने,

ग्रीष्म तपे, वर्षा झूली, शरदें मुसकाई;

सी-सी कर हेमन्त कँपे, तरु झरे, खिले वन!

और जब फिर से गाढ़ी, ऊदी लालसा लिये

गहरे, कजरारे बादल बरसे धरती पर,

मैंने कौतूहल-वश आँगन के कोने की

गीली तह यों ही उँगली से सहलाकर

बीज सेम के दबा दिये मिट्टी के नीचे-

भू के अंचल में मणि-माणिक बाँध दिये हो!

 

शब्दार्थ –

अर्धशती – पचास वर्ष

हहराती – वेग से लहराती

मधु – वसंत

लालसा – इच्छा

कजरारे – काले

कौतूहलवश – उत्सुकता से

 

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश पंत जी की ‘यह धरती कितना देती है’ कविता में से लिया गया है। इसमें कवि ने अपने बचपन की घटना (पैसे बोना) के पचास वर्ष बाद का चित्रण किया है। विभिन्न ऋतुओं के साथ-साथ मन की इच्छाओं का वर्णन करते हुए कवि कहते हैं कि-

व्याख्या – पैसे बोने की घटना के पश्चात् आज पचास वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। देखते-देखते अपनी सहज गतिशीलता में आधी शताब्दी निकल गई। अनजाने ही कई वसंत अपने माधुर्य को लेकर आए और चले गए। पतझर बीते, ग्रीष्म अपनी उष्णता से तप कर व्यतीत हो गया, वर्षा में आनंद के झूले पड़े, शीतकाल अपने सौंदर्य की मुस्कान लेकर आया, हेमंत में सर्दी का सीत्कार भी हुआ, इस प्रकार ऋतुएँ आती और जाती रही, प्रकृति ने कई बार शृंगार किया और कई बार वृक्ष फिर से शून्य हो गए। ऐसे ही जीवन का क्रम चलता रहा, फिर से आशाओं और अभिलाषाओं की सघनता, मोहकता और कोमलता लेकर बादल मँडराने लगे, गहरे और काजल के समान काले बादल धरती पर बरसे, संपूर्ण पृथ्वी जल से प्लावित हो गई, ऐसे समय में मैंने कौतूहलवश अपने आँगन के एक कोने में मिट्टी की गीली तह को अँगुलियों से खोद कर, सहला कर उसमें सेम के बीज गाड़ दिए। उस समय मानो भूमि के आँचल में ये बीज नहीं अपितु मणि-माणिक्य बाँध दिए हों, ऐसा आगे चल कर महसूस हुआ।

विशेष – (1) इन पंक्तियों में ऋतुओं के क्रमागत आवागमन से कवि ने समय की गतिशीलता की स्वाभाविक अभिव्यक्ति की है। इसके अतिरिक्त बादलों की सघनता में आशाओं का साक्ष्य दिखाने में कवि ने मानव मन की स्वाभाविकता को साकार कर दिया है।

(2) अलंकार –  

ग्रीष्म तपे, वर्षा झूली, शरदें मुसकाई; – मानवीकरण

सी-सी कर हेमन्त कँपे, – पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार

बीज सेम के दबा दिये मिट्टी के नीचे- उत्प्रेक्षा अलंकार

भू के अंचल में मणि-माणिक बाँध दिये हो!

मैं फिर भूल गया इस छोटी-सी घटना को,

और बात भी क्या थी याद जिसे रखता मन!

किन्तु, एक दिन जब मैं सन्ध्या को आँगन में

टहल रहा था,- तब सहसा, मैंने देखा

उसे हर्ष-विमूढ़ हो उठा मैं विस्मय से!

देखा-आँगन के कोने में कई नवागत

छोटे-छोटे छाता ताने खड़े हुए हैं!

छाता कहूँ कि विजय पताकाएँ जीवन की,

या हथेलियाँ खोले थे वे नन्हीं प्यारी-

जो भी हो, वे हरे-हरे उल्लास से भरे

पंख मारकर उड़ने को उत्सुक लगते थे-

डिम्ब तोड़कर निकले चिड़ियों के बच्चों से!

 

शब्दार्थ –

सहसा – अचानक।

हर्षविमूढ़ – प्रसन्नता में मग्न

विस्मय – आश्चर्य

नवागत – नए आए हुए

पताकाएँ – ध्वजायें

उत्सुक – उतावले

डिम्ब – अंडा, मिट्टी का खोल।

 

प्रसंग – इस पद्यांश में पंतजी ने सेम के बीज बोने की घटना के पश्चात् अपनी मनः स्थिति तथा सेम के पौधों के अंकुरित होने को विविध रूपों में चित्रित किया है।

‘व्याख्या – जब मैंने गीली धरती में सेम के बीज बोए तो उस समय मेरे-मन में केवल कौतूहल मात्र ही था, परिणामस्वरूप मैं उस घटना को भूल ही गया था। वैसे भी यह घटना कुछ स्मरण योग्य नहीं थी। किंतु एक दिन संध्या के समय आँगन में टहलते हुए मैंने एक ऐसा दृश्य देखा जिसके कारण मैं प्रसन्नता से भरकर गद्गद् हो गया। मेरे विस्मय का कारण यह था कि आँगन के उस कोने में मुझे छोटे-छोटे पौधे ऐसे दिखाई दे रहे थे जैसे कुछ नवागंतुक छाता ताने खड़े हों, वे छतरियाँ थीं अथवा विजय पताकाएँ थी जो जीवन की प्रगति और उन्नति की सूचक थी। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे वे अपनी नन्हीं-नन्हीं हथेलियाँ फैला कर नन्हें नन्हें शिशु हों। वे पौधे हर्षोल्लास से परिपूर्ण ऐसे प्रतीत हो रहे थे जैसे मिट्टी के खोल अथवा आवरण को फोड़कर चिड़ियों के बच्चे पंख फड़फड़ा कर उड़ने को तत्पर हो रहे हों। पौधे धरती की मिट्टी से उभर कर उर्ध्व गति की ओर अग्रसर हो रहे थे।

विशेष – (1) इस पद्यांश में पंत जी ने एक सामान्य घटना को सहज और स्वाभाविक शैली से रोचक और आकर्षक बना दिया है। पौधों को नवागंतुकों की छतरियों, जीवन की विजय पताकाएँ, नन्हीं हथेलियाँ तथा चिड़ियों के बच्चों के पंख आदि से सादृश्य स्थापित करके कवि ने प्रकृति के प्रति अपने नैसर्गिक प्रेम को ही अभिव्यक्ति दी है।

(2) अलंकार –

देखा-आँगन के कोने में कई नवागत

छोटे-छोटे छाता ताने खड़े हुए हैं! पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार

छाता कहूँ कि विजय पताकाएँ जीवन की,

या हथेलियाँ खोले थे वे नन्हीं प्यारी- संदेह अलंकार

डिम्ब तोड़कर निकले चिड़ियों के बच्चों से! – पूर्णोपमा अलंकार

निर्निमेष, क्षण भर, मैं उनको रहा देखता-

सहसा मुझे स्मरण हो आया,कुछ दिन पहिले

बीज सेम के मैंने रोपे थे आँगन में,

और उन्हीं से बौने पौधों की यह पलटन

मेरी आँखों के सम्मुख अब खड़ी गर्व से,

नन्हें नाटे पैर पटक, बढ़ती जाती है!

तब से उनको रहा देखता धीरे-धीरे

अनगिनती पत्तों से लद, भर गयी झाड़ियाँ,

हरे-भरे टँग गये कई मखमली चँदोवे!

बेलें फैल गयी बल खा, आँगन में लहरा,

और सहारा लेकर बाड़े की टट्टी का

हरे-हरे सौ झरने फूट पड़े ऊपर को,-

मैं अवाक् रह गया-वंश कैसे बढ़ता है!

छोटे तारों-से छितरे, फूलों के छींटे

झागों-से लिपटे लहरों श्यामल लतरों पर

सुंदर लगते थे, मावस के हँसमुख नभ-से,

चोटी के मोती-से, आँचल के बूटों-से!

शब्दार्थ

निर्निमेष – बिना पलक झपकाए

नाटे – छोटे कद वाले

चँदोवे – सुंदर रंगीन कपड़े

अवाक् – बिना वाणी के

मावस – अमावस

 

प्रसंग – ‘यह धरती कितना देती है’ कविता के इस अंश में कवि पंत जी ने सेम के पौधों को विकसित, फलते, फूलते हुए चित्रित किया है। अनजाने में बोए गए बीजों को धरती ने कई गुना बढ़ा कर प्रकट किया, इसका वर्णन करते हुए कवि कहते हैं कि –

व्याख्या – जिस समय अपने आँगन के कोने में मैंने सेम की उन नन्हीं क्यारियों को देखा तो क्षण भर के लिए तो मैं उन्हें एकटक देखता ही रह गया। अचानक मुझे स्मरण हुआ कि कुछ दिन पूर्व मैंने आँगन में सेम के बीज बोए थे, उन्हीं बीजों से पौधों की यह छोटी-सी सेना खड़ी हो गई है। आज मेरे सामने बड़े गर्व से सिर उठाए यह सेना जैसे अपने पैर पटकते हुए प्रयाण पथ पर बढ़ती जा रही थी। उसके नन्हें-नन्हें पैरों को मैं देखता ही रह गया, तब से धीरे-धीरे वे क्यारियाँ बढ़ गईं, उन पर अनगिनत पत्ते लद गए थे, सेम की झाड़ियाँ ही फैलती जा रही थीं, ऐसा प्रतीत होता था जैसे हरे-भरे कोमल पत्ते ही नहीं अपितु हरी मखमल के चंदोवे आँगन में फैले हुए हैं। सेम की बेलें बढ़ती गईं, लहराते-लहराते उनसे सारा आँगन भर गया, आँगन में बाड़ का जो सहारा बनाया हुआ था, उसका सहारा पाकर वे फैलती बेलें इस प्रकार प्रतीत होती थी जैसे सैकड़ों हरे-हरे झरने ऊपर की ओर उठ रहे हों। सेम के इस वंश विस्तार को देखकर मैं भौंचक्का-सा रहकर उसे देखता रह गया। सेम की लहराती, बलखाती बेलों की साँवली लताओं पर छोटे-छोटे फूल झुंड के झुंड इस प्रकार दिखाई देते थे जैसे तारों के झुंड आकाश में बिखरे होते हैं। जिस प्रकार अमावस की अंधकार पूर्ण रात्रि के आकाश में तारे मुस्कराते हैं अथवा झाग में जैसे बुलबुले चमकते हैं उसी प्रकार सेम के फूल अपने सौंदर्य में चमक रहे थे। उस समय वे ऐसे प्रतीत होते थे जैसे किसी वेणी में मोती गुँथे हुए हों अथवा किसी के आँचल पर छोटे-छोटे फूल अंकित हों।

विशेष – (1) इन पंक्तियों में कवि ने सेम की बेलों के विकास और फूलों के सौंदर्य का आकर्षक वर्णन किया है। वर्णनात्मक होते हुए भी कवि ने उसे अनुभूतिपूर्ण बनाने में सफलता प्राप्त की है।

(2) अलंकार –

और उन्हीं से बौने पौधों की यह पलटन

मेरी आँखों के सम्मुख अब खड़ी गर्व से, रूपक अलंकार

तब से उनको रहा देखता धीरे-धीरे – पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार

बेलें फैल गयी बल खा, आँगन में लहरा,

और सहारा लेकर बाड़े की टट्टी का

हरे-हरे सौ झरने फूट पड़े ऊपर को,- रूपकातिशयोक्ति अलंकार

ओह, समय पर उनमें कितनी फलियाँ फूटी!

कितनी सारी फलियाँ, कितनी प्यारी फलियाँ,-

पतली चौड़ी फलियाँ! उफ उनकी क्या गिनती!

लम्बी-लम्बी अँगुलियों – सी नन्हीं-नन्हीं

तलवारों-सी पन्ने के प्यारे हारों-सी,

झूठ न समझे चन्द्र कलाओं-सी नित बढ़ती,

सच्चे मोती की लड़ियों-सी, ढेर-ढेर खिल

झुण्ड-झुण्ड झिलमिलकर कचपचिया तारों-सी!

आः इतनी फलियाँ टूटी, जाड़ो भर खाई,

सुबह शाम वे घर-घर पकीं, पड़ोस पास के

जाने-अनजाने सब लोगों में बँटवाई

बंधु-बांधवों, मित्रों, अभ्यागत, मँगतों ने

जी भर-भर दिन-रात महुल्ले भर ने खाई !

कितनी सारी फलियाँ, कितनी प्यारी फलियाँ!

 

शब्दार्थ –

चन्द्रकलाओं – चन्द्रमा की किरणें

कचपचिया – झुंड में एक फूल विशेष

अभ्यागत – अतिथि

मंगतों – भिखारियों

 

प्रसंग – इस पद्यांश में श्री पंत ने सेम की फलियों के उत्पादन का विवरण प्रस्तुत किया है। धरती से अनेक गुना होकर मिलने वाले इस पदार्थ अथवा प्रसाद का उपभोग केवल एक व्यक्ति नहीं अपितु पूरा समाज करता है, इसका वर्णन करते हुए कवि कहते हैं कि-

व्याख्या – सेम की बेलों पर खिले फूल कुछ समय के पश्चात् फलियों में परिणत हो गए। वह फलियाँ कितनी अधिक और प्यारी फलियाँ थीं कि उनकी गिनती नहीं हो सकती थी। पतली और चौड़ी फलियाँ, लंबी-लंबी अँगुलियों के समान थीं, जैसे छोटी-छोटी तलवारें हों, उनका रंग पन्ने के हारों के समान था, यदि झूठ न समझा जाए तो वे फलियाँ चंद्रमा की कलाओं के समान नित्य बढ़ती जाती थीं। सच्चे मोतियों की लड़ियों के समान वह फलियाँ ढेर-की-ढेर होतीं; जिस प्रकार आकाश में तारों के झुंड के झुंड दिखाई पड़ते हैं, उसी प्रकार फलियों के भी गुच्छे होते हैं। ये फलियाँ इतनी अधिक थी कि सारी सर्दियों की ऋतु में हम खाते रहे। हमारे ही नहीं और भी कई घरों में सुबह-शाम इनकी ही सब्जी बनती रही। पास-पड़ोस के जितने भी जाने अथवा अनजाने घर थे, उन सबमें वे फलियाँ बँटवाई गई। सभी बंधु-बांधवों सगे-संबंधियों, मित्रों, अतिथियों पर भिखारियों ने भी उन फलियों को जी भर कर खाया। वे फलियाँ कितनी अच्छी और प्यारी फलियाँ थीं कि उन्हें मुहल्ले भर ने कई दिन तक जी भर कर खाया था।

विशेष – (1) पूर्व पंद्याशों की भाँति इसमें भी कवि ने फलियों को बड़े रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है।

(2) अलंकार –

लंबी- लंबी अँगुलियों-सी नन्हीं-नन्हीं

तलवारों-सी पन्ने के प्यारे हारों-सी, – पुनरुक्ति और उपमा अलंकार

सुबह शाम वे घर-घर पकीं, पड़ोस पास के

जाने-अनजाने सब लोगों में बँटवाई

बंधु-बांधवों, मित्रों, अभ्यागत, मँगतों ने

जी भर-भर दिन-रात महुल्ले भर ने खाई !-

कितनी सारी फलियाँ, कितनी प्यारी फलियाँ! – उल्लेख अलंकार

पंक्तियाँ – 7

यह धरती कितना देती है! धरती माता

कितना देती है अपने प्यारे पुत्रों को!

नहीं समझ पाया था मैं उसके महत्त्व को,-

बचपन में छिः स्वार्थ लोभ वश पैसे बोकर!

रत्न प्रसविनी है वसुधा, अब समझ सका हूँ।

इसमें सच्ची समता के दाने बोने हैं;

इसमें जन की क्षमता का दाने बोने हैं,

इसमें मानव-ममता के दाने बोने हैं,-

जिससे उगल सके फिर धूल सुनहली फसलें

मानवता की, – जीवन श्रम से हँसे दिशाएँ-

हम जैसा बोयेंगे वैसा ही पायेंगे।

 

शब्दार्थ –

रत्न- प्रसविनी रत्नों को जन्म देने वाली

वसुधा – पृथ्वी

समता – बराबरी

क्षमता – शक्ति

ममता – ममत्व

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश ‘यह धरती कितना देती है’ का अंतिम अंश है। इसमें कवि सेम की फलियों का वर्णन करते हुए धरती माता का महत्त्व गाने लगते हैं। पंत जी की मान्यता है कि हम धरती में, कृषि से जितना प्यार करेंगे उतना ही समाज समृद्ध होगा, केवल पैसे को प्यार करने से तो केवल निराशा ही मिलेगी। मानव की श्रम शक्ति और समता के आधार का वर्णन करते हुए कवि कहते हैं कि –

व्याख्या – यह धरती माता अपने प्रिय पुत्रों को कितना कुछ देती हैं, इसको मैं बचपन के अज्ञान में नहीं जानता था। उस समय जब मैंने धरती में पैसे बोकर मालामाल होना चाहा था तब मैं उसके महत्त्व को समझ नहीं सका था। वस्तुतः अब मुझे गहन ज्ञान प्राप्त हुआ है कि यह धरती तो रत्नों को जन्म देने वाली है। आज यह आवश्यकता है कि इसमें मानव की क्षमता और समता के बीज बोए जाएँ। यदि मानव समवेत रूप से अपनी सामर्थ्य-शक्ति को धरती में लगाएँ तो यहाँ की धूलि भी स्वर्णिम फसलें प्रदान करेंगी। जीवन के अभावों की पूर्ति होगी और मानव के श्रम से संपूर्ण दिशाएँ आनंदोल्लास से भर जाएँगी। यदि हम ऐसा करेंगे तो उसका सुफल अवश्य मिलेगा। अन्यथा जैसा बोएँगे वैसा फल मिलना आवश्यक है।

विशेष – (1) प्रस्तुत पद्यांश में कवि का विचारक रूप प्रकट हुआ है। उन्होंने विश्व-जीवन में व्याप्त भूख, गरीबी, बेकारी तथा बीमारी आदि का एक ही उपाय माना है – धरती से प्यार। धरती को तन, मन और जीवन से प्यार करने से ही मानव जीवन सुखी और समृद्ध हो सकता है।

(2) अलंकार –

रत्न प्रसविनी है वसुधा, अब समझ सका हूँ।

इसमें सच्ची समता के दाने बोने हैं; – रूपक अलंकार

हम जैसा बोयेंगे वैसा ही पायेंगे। – लोकोक्ति

 

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