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यही सच है Yahi Sach Hai By Mannu Bhandari The Best Explanation

Yahi Sach Hai By Mannu Bhandari The Best Explanation

स्मरणीय बिंदु

प्रेम त्रिकोण के बारे में जान सकेंगे।

नई कहानी के लेखन शैली से अवगत हो सकेंगे।

मन्नू भंडारी के कहानीकार रूप से अवगत हो सकेंगें।

नई प्रेम संवेदना के यथार्थ को जान सकेंगे।

हृदय और मस्तिष्क के टकराहट को जान सकेंगे।

प्रेमी के मनोवैज्ञानिक यथार्थ का विश्लेषण कर सकेंगे।  

अन्य जानकारियों से परिचित हो सकेंगे।

लेखिका परिचय

मन्नू भंडारी का जन्म 3 अप्रैल, सन् 1931 को मध्यप्रदेश के भानपुर में हुआ था। सन् 1949 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से उन्होंने स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण की और सन् 1952 में वाराणसी के बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से आपने स्नातकोत्तर की परीक्षा उत्तीर्ण की। उच्च शिक्षा के बाद मन्नू भंडारी कुछ समय के लिए कलकत्ता के रानी बिड़ला कॉलेज में प्राध्यापिका रहीं और बाद में सन् 1964 से दिल्ली विश्वविद्यालय के मिरांडा हाउस कॉलेज में हिंदी की प्राध्यापिका के रूप में कार्यरत रहीं। सन् 1991 में वह सेवानिवृत्त हुईं। लेखन के संस्कार उन्हें अपने पिता श्री सुखसंपतराय से मिले। बाद में कथाकार और प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका ‘हंस’ के संपादक राजेंद्र यादव से उनका परिचय हुआ। यह परिचय आगे चलकर अंतर्जातीय विवाह में बदला। दोनों ने मिलकर एक साझा उपन्यास भी लिखा जो साहित्य के क्षेत्र में एक नव्य प्रयोग रहा।

हिंदी में नई कहानी के समय मन्नू भंडारी ने लेखन के क्षेत्र में कदम रखा। ‘मैं हार गई’ उनकी पहली कहानी थी। मन्नू जी के लेखन का मुख्य क्षेत्र गद्य है। इसमें भी कथा-लेखन केंद्र में है। उनके बारह कहानी – संग्रह हैं – ‘एक प्लेट सैलाब’, ‘मैं हार गई’, ‘तीन निगाहों की एक तस्वीर’, ‘यही सच है’, ‘त्रिशंकु’ ‘संपूर्ण कहानियाँ’ आदि। मन्नू जी के चार उपन्यास हैं – एक इंच मुस्कान’, ‘आपका बंटी’, ‘महाभोज’ और ‘स्वामी’। विषयगत विविधता मन्नू भंडारी के कथा-लेखन की विशेषता है।

पृष्ठभूमि

दुनिया में न जाने कितने अच्छे लोग हैं। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि मनुष्य एक से अधिक व्यक्तियों से प्रेम करें। और यह प्रेम आंगिक, वाचिक और वैचारिक तीनों स्तर पर हो। आज के इस दौर में जहाँ हमें लव ट्राईएंगल देखने को मिलता है इस कहानी में भी हमें प्रेम त्रिकोण या लव ट्राईएंगल ही देखते हैं। लेकिन अंतर है तो भावनाओं और विचारों का।

पाठ परिचय

‘यही सच है’ कहानी आजादी के बाद लिखी गई एक ऐसी प्रेम कहानी है जो अपने कथ्य और शिल्प में सर्वथा नई और अनूठी है। यह स्वतंत्र भारत में स्वतंत्रता के एहसास से भरी दीपा नाम की युवती की अंतर्द्वन्द्वपूर्ण आत्मकथा-सी है जो अलग-अलग शहरों में रहने वाले युवक संजय और निशीथ से प्रेम करती है। कहानी में निशीथ का प्रेम उसका अतीत है और संजय का प्रेम उसका वर्तमान। किंतु नौकरी के लिए इंटरव्यू देने के लिए जब वह कानपुर से कलकत्ता जाती रही है तब निशीथ से भेंट होने पर उसका अतीत जाग उठता है और वह अनुभव करने लगती है कि निशीथ के मन में अभी भी उसके लिए प्रेम है। दीपा पुनः निशीथ को प्रेम की दृष्टि से देखने लगती है और उसे लगता है कि उसका और निशीथ का प्रेम ही सच है। कानपुर में उसे संजय का प्रेम और कलकत्ता मे निशीथ का प्रेम उसे इस तरह सच लगता है कि वह समझ नहीं पाती कि वास्तविक सच क्या है, इसलिए वह एक आसान तर्क का शिकार हो जाती है कि जब जहाँ, वह जिसके साथ है, वही उसका और उसके प्रेम का सच है। सच की यह व्याख्या आधुनिक जीवन दृष्टि की देन है। दीपा एक अकेली युवती है, अकेली रहती है, घर-परिवार से स्वतंत्र है, इसलिए उसे प्रेम में पूरी तरह की स्वतंत्रता प्राप्त है, वह जैसा चाहे, वैसा निर्णय ले। यह आज़ाद स्त्री की आज़ाद मनोदशा का प्रतिबिम्ब है। सदियों से पुरुष के स्वामित्व में रहने वाली स्त्री का दीपा के रूप में नया संस्करण है।

कथा स्रोत

मन्नू भंडारी अपने एक साक्षात्कार में सुधा अरोड़ा को यह बताया है कि उन्हें इस कहानी को लिखने की प्रेरणा राजेंद्र यादव के एक कथन से मिली। शादी के एक साल बाद यानी 1960 में जब राजेंद्र यादव अपनी पूर्व प्रेमिका से मिलकर दिल्ली से कलकत्ता लौटे तो किन्हीं अंतरंग क्षणों में मन्नू भंडारी से कहा, “पता नहीं, ऐसा क्यों होता है मन्नू, पर जब वहाँ हूँ तो लगता है, वही मेरा सच है और जब यहाँ तुम्हारे पास आता हूँ तो लगता है सच तो यह है।” इसी वाक्य से मन्नू की कल्पना को पंख लग गए। प्रेम त्रिकोण में यह स्थिति तो एक महिला की हो सकती है जिस के दो प्रेमी है। एक कलकत्ता में, दूसरा कानपुर में और वह जब जहाँ जिस के साथ रहे तो वही सच लगे। इसी सच से मन्नू भंडारी ने इस कहानी को बुना है।

कथानक

‘यही सच है’ दीपा नाम की एक ऐसी लड़की के अंतर्द्वंद्वों की कहानी है जो अपने पहले प्रेम निशीथ से निराश होकर एक नए व्यक्ति संजय से प्रेम करने लगती है। पटना की रहने वाली दीपा जब अपने शोधकार्य के लिए कानपुर आ जाती है तब एक ऑफिस में काम करने वाले व्यक्ति संजय से उसे प्रेम हो जाता है। समस्या तब खड़ी होती है जब दीपा को एक नौकरी के लिए इंटरव्यू देने के लिए कलकत्ता जाना पड़ता है। दीपा समझ नहीं पाती है कि वह क्या करें। कलकत्ता में उसकी सहायता करने वाला कोई नहीं है। ले-देकर वहाँ उसकी सहेली इरा है। संजय उसे याद दिलाता है कि वहाँ निशीथ भी तो है। दीपा झुँझला जाती है, “होगा, हमें क्या करना है उससे?” और यह भी कह देती है, “देखो संजय, मैं हजार बार तुमसे कह चुकी हूँ कि उसे लेकर मुझसे मजाक मत किया करो।” किंतु जब वह कलकत्ता जाती है और शाम को इरा उसे कॉफी हाउस ले जाती है, तब अचानक निशीथ मिल जाता है। निशीथ उसकी पूरी मदद करता है। अपने को वह निशीथ के करीब महसूस करने लगती है लेकिन निशीथ उससे एक तरह की, उदासीनता की, दूरी बनाए रखता है। निशीथ उसकी भरपूर मदद करता है और उसे आश्वस्त करता है कि उसकी नौकरी लग जाएगी, क्योंकि उसने जहाँ जैसी सिफ़ारिश करनी चाहिए थी, कर दी है।

इंटरव्यू देकर दीपा कानपुर लौट जाती है। वापस जाते समय रेलवे स्टेशन पर सी ऑफ करने के लिए निशीथ आया जरूर किंतु उसने उस तरह का व्यवहार नहीं किया जिसके लिए दीपा तड़प रही थी, ट्रेन के छूटते-छूटते निशीथ गाड़ी के साथ कदम आगे बढ़ाता है और उसके हाथ पर धीरे से अपना हाथ रख देता है।’ गाड़ी चल देती है। निशीथ के उस हलके स्पर्श से विभोर हुई दीपा मन की गहराइयों में डूब जाती है, “मन करता है कि चिल्ला पड़ूँ, मैं सब समझ गई। जो कुछ तुम इन चार दिनों में नहीं कह पाए, वह तुम्हारे इस क्षणिक स्पर्श ने कह दिया। विश्वास करो यदि तुम मेरे हो तो मैं भी तुम्हारी हूँ, केवल तुम्हारी, एकमात्र तुम्हारी।”

कानपुर पहुँचने के बाद दीपा फिर अकेली हो जाती है। उस अकेलेपन में वह निशीथ को याद करती है, उसे पत्र लिखती है। वह बड़े ऊहापोह में रहती है – “लगता है जैसे मेरी राहें भटक गई हैं मंजिल खो गई है। मैं स्वयं नहीं जानती मुझे कहाँ जाना है?” इसी उधेड़बुन के बीच उसे इरा के तार से यह सूचना मिलती है कि उसकी नियुक्ति हो गई है। बाद में निशीथ का भी ठंडेपन से लिखा गया पत्र मिलता है- “इस सफलता के लिए मेरी ओर से हार्दिक बधाई स्वीकार करना। सच, मैं बहुत खुश हूँ कि तुम्हें यह काम मिल गया। मेहनत सफल हो गई। शेष फिर।” दीपा को इतने ठंडे पत्र की उम्मीद न थी। उसे फिर एक झटका-सा लगता है। इस बीच संजय आ जाता है और दोनों एक दूसरे के आलिंगन में बँध जाते हैं, ‘चुंबित-प्रतिचुंबित।’

इस तरह यह कहानी प्रेम का एक त्रिकोण रचती है- एक स्त्री और दो पुरुष। दोनों पुरुषों के बीच अलग-अलग ढंग से, अलग-अलग स्थानों पर पेंडुलम की तरह झूलती हुई वह जब जहाँ जिसके साथ होती है, उसी को अपना मानती है और उस क्षण के जीवन को ही समझती है कि ‘यही सच है।’ सच के इस स्वीकार के बावजूद वह गहन अंतर्द्वंद्वों से गुजरती है। वही अंतर्द्वंद्व इस कहानी का प्राण तत्त्व है जो उसे बराबर सजीव और रोचक बनाए रखता है।

चरित्र चित्रण

दीपा

दीपा एक ऐसी युवती है जिसका घर-परिवार से कोई संबंध नहीं रह गया है। वह पटना की रहने वाली है। भैया-भाभी जरूर हैं पर वे भी कभी खोज-खबर नहीं लेते, दीपा भी उन्हें कभी यों ही पत्र लिख देती है। घर-परिवार से विच्छिन्न दीपा शोध करने के लिए कानपुर आती है। यहीं उसे संजय सहारा देता है। धीरे-धीरे दोनों में आलोचना और अंतरंगता कायम हो जाती है। चूँकि दीपा को प्यार में निशीथ से धोखा मिला है, इसलिए वह संजय की ओर आकर्षित होती हुई उसके साथ विवाह बंधन में बँध जाना चाहती है। किंतु उसे निशीथ का प्रेम सालता रहता है। जब इंटरव्यू के लिए वह कलकत्ता जाती है तब फिर वह निशीथ के प्रेम के लिए आतुर हो उठती है और चाहती है कि निशीथ उसे अपना ले किंतु वह हर तरह उदासीन एवं तटस्थ बना रहता है। दीपा कानपुर आकर फिर संजय के प्रेम में डूब जाती है। इस तरह दीपा पेण्डूलम की तरह निशीथ और संजय के बीच डोलती हुई अंतर्द्वंद्व के हिचकोले खाती है। दीपा के मन में निशीथ के प्रति स्वाभाविक प्रेम है। वह अट्ठारह वर्ष की उम्र में किया गया उसका पहला प्यार हैं, वह उन्मादक और तन्मय करने वाला है लेकिन दीपा जब यथार्थ की भूमि पर आती है तब वह संजय को ही अपने को समर्पित कर देती है। कुछ दिनों तक वह निर्णय-अनिर्णय के द्वंद्व में अवश्य रहती है किंतु बाद में संजय की होकर वह यह प्रमाणित कर देती है कि जो उसका है, वह भी उसकी है। वह निशीथ को सौ खून माफ करके अपनाना चाहती है लेकिन निशीथ की तटस्थता और उदासीनता आड़े आ जाती है। इससे यह पता चलता है कि दीपा के मन में निशीथ के प्रति सहज-स्वाभाविक प्रेम है। कहा जा सकता है कि दीपा कालुश्य को मिटाकर प्रेम-पथ पर निशीथ के साथ चलना चाहती है लेकिन वस्तुस्थिति का विश्लेषण करने पर यह पता चलता है कि दीपा के प्रेम में स्वार्थ की भावना प्रबल है, उत्सर्ग या न्योछावर होने की पुरानी प्रेम भावना कम। वह एक पढ़ी-लिखी युवती है, आत्मनिर्भर होने की दिशा में अग्रसर है, अपने निर्णय लेने में सक्षम है इसलिए वह प्रेम में घुट-घुटकर मरने की बजाय यथार्थ को स्वीकारते हुए नया प्रेम-पथ चुन लेने का माद्दा रखती है। संजय के प्रति भी उसका प्रेम कृतज्ञता का है। घर-परिवार से छूटने और निशीथ से टूटने के बाद वह संजय के आगोश में आ जाती हैं। यही उसकी यथार्थजीविता है और जीवन को जीने का माद्दा भी।

संजय

संजय दीपा का प्रेमी है किंतु न तो समय का पाबंद है, न फिक्रमंद, वह काफी लापरवाह है। इससे दीपा बहुत झुँझलाती है, “नहीं आना था तो व्यर्थ ही मुझे समय क्यों दिया? फिर यह कोई काम की बात है। हमेशा संजय अपने बताए समय से घंटे दो घंटे देरी करके आता है और मैं उसी क्षण से प्रतीक्षा करने लगती हूँ, वह क्यों नहीं समझता कि मेरा समय बहुत अमूल्य है।”

संजय दीपा के पहनावे आदि की कभी तारीफ भी नहीं करता- “संजय न कभी मेरे कपड़ों पर ध्यान देता है, न ऐसी बातें करता है। पिछले ढाई साल से संजय के साथ रह रही हूँ, रोज ही शाम को घूमने जाते हैं, कितनी ही बार मैंने शृंगार किया, अच्छे कपड़े पहने पर प्रशंसा का एक शब्द भी उसके मुँह से नहीं सुना।” कहना चाहिए वह प्रशंसा-कृपण है। संजय प्रशंसा-कृपण भले हो, पर प्रेम जताने के मामले में अति उत्साही, एक हद तक उद्धत है। वह बात-बात में दीपा को चूम लेता है, बाहों में भर लेता है। दीपा ने एक बार कहा था कि उसे रजनीगंधा के फूल बहुत अच्छे लगते हैं। तब से वह अक्सर रजनीगंधा के फूल लाकर उसके कमरे में सजा देता है। वह प्रेमिका को खुश करना जानता है, उत्साही है, इधर-उधर की बातों में दिमाग नहीं खपाता। दीपा-निशीथ के प्रेम संबंधों को लेकर वह कभी टीका-टिप्पणी भी नहीं करता, हालाँकि दीपा के मन में कभी-कभी शंका के साँप फन उठाते हैं लेकिन संजय सकारात्मक सोच का युवक है। वह कुंठारहित है।

निशीथ

निशीथ दीपा का पूर्व प्रेमी है अर्थात् उसका पहला प्यार। दीपा के कथनों से पता चलता है कि उसने दीपा को धाोखा दिया, उसके साथ विश्वासघात किया और उसे सारी दुनिया की भर्त्सना, तिरस्कार, परिहास और दया का पात्र बना दिया। वह कहती है, “विश्वासघाती! नीच कहीं का’’ किंतु यह नहीं स्पष्ट होता है कि उसने दीपा के साथ कब कैसा सलूक किया। उसके इस सच के बरक्स कहानी में उसका जो स्वरूप चित्रित है वह निश्चय ही नेक और मददगार इनसान का है। वह इतना नेक है कि दीपा की सारी उपेक्षा और ठंडेपन के बावजूद वह उसकी मदद करता है और उसकी नियुक्ति को संभव भी बना देता है। इसके प्रतिदान में वह न तो दीपा से कोई उम्मीद करता है, न ही अपने टूटे दिल की दास्तान के पन्ने खोलता है। वह एक मूक सहयोगी-सा सहयोग करता है। उसमें न तो कोई उतावलापन पैदा होता है, न हीला-हवाली। संकोच और दुराव करके कार्य से दूर हट जाने को वह कोशिश भी नहीं करता है। वह संजय का एक तरह से प्रतिलोम है। संजय प्रेम में उदृत है, वह संयत। संजय प्रशंसा-कृपण और लापरवाह है, निशीथ का स्वभाव इससे भिन्न है। वह दीपा की यथावश्यक प्रशंसा भी करता है और समय का बहुत ही पाबन्द है। निशीथ की पाबन्दी ही दीपा को उसकी ओर आकृष्ट करती है। इसी के चलते वह उसके प्रति चाहकर भी कटु नहीं हो पाती। उसके अपनत्व भरे व्यवहार से वह अपने प्रेम की पुरानी दुनिया में खो जाती है। निशीथ की भलमनसाहत उसे बहुत प्यारी लगती है। वह कभी किसी का एहसान नहीं लेता किन्तु दीपा के लिए उसने यह काम किया। लोगों से सिफ़ारिश की, काम को अंजाम तक पहुँचाया। निशीथ के व्यवहार और स्वास्थ्य से यह पता चलता है कि प्रेम की असफलता ने उसे काफी तोड़ दिया है। अवसन्न कर देने की हद तक। दीपा के साथ उसकी शांत और संजय की उपस्थिति से उसकी व्यथा और अवसन्नता का पता चल जाता है और यह भी रेखांकित हो जाता है कि अब उसके चित्त में प्रेम की कोमलता नहीं रह गई है।

यही सच है’ की सार्थकता

कहानी का शीर्षक ‘यही सच है’ अर्थपूर्ण और नई जीवन-दृष्टि का बोधक है। कहानी की नायिका दीपा अलग-अलग शहरों में दो भिन्न युवकों से प्रेम करती है और जब जिसके साथ रहती है, वही उसे सच्चा प्रेमी लगता है और उसे लगता है कि ‘यही सच है’। अर्थात् यही उसके जीवन का (प्रेम का) पूर्ण सत्य है। जब वह संजय के साथ रहती है तब उसका प्रेम ही उसे सच लगता है और जब कभी उसे लगता है कि संजय उसकी और निशीथ के प्रेम को जानने के कारण कुछ सशंकित होता होगा तब वह पूरी सफ़ाई देती हुई कहती है, ‘संजय! यह तो सोचो कि यदि ऐसी कोई बात होती, तो क्या मैं तुम्हारे आगे, तुम्हारी हर उचित अनुचित चेष्टा के आगे, यों आत्म.समर्पण करती? तुम्हारे चुम्बनों और आलिंगनों में अपने को यों बिखरने देती? जानते हो, विवाह से पहले कोई भी लड़की किसी को इन सबका अधिाकार नहीं देती। पर मैनें दिया, क्यों केवल इसीलिए नहीं कि मैं तुम्हें प्यार करती हूँ, मैं तुमसे बहुत-बहुत प्यार करती हूँ। विश्वास करो संजय, तुम्हारा मेरा प्यार ही सच है, निशीथ का प्यार तो मात्र छल था, भ्रम था, झूठा था।’ लेकिन वही दीपा जब कलकत्ता में निशीथ से मिलती है तो पिछले सारे कटु-दुखद और विश्वासघात के अनुभवों के बावजूद वह निशीथ की ओर इतना खिंच जाती है कि चाहने लगती है कि निशीथ उससे कह दे कि वह उसे अब भी प्यार करता है। वह पटना में निशीथ के साथ बिताए जीवन को अपने अंतर्मन से याद करती है और रात में जब संजय को याद करते हुए सोने के लिए उद्यत होती है तब निशीथ बार-बार संजय की आकृति को हटाकर स्वयं आ खड़ा होता है। दीपा चाहने लगती है कि निशीथ उससे कहे कि वह पिछली सारी बातें भूलकर आज भी उससे प्रेम करता है। वह मानने लगती है कि निशीथ के साथ उसका पहला प्यार था। उस प्यार में बेसुधी थी, विभोरता के क्षण थे और घनी तन्मयता थी। वह स्वीकार करती है कि प्रथम प्रेम ही सच्चा प्रेम होता है, बाद में किया हुआ प्रेम तो अपने को भूलने, का भरमाने का प्रयास मात्र होता है। अपनी इस भावना के साथ जब वह कलकत्ता से वापस हो रही होती है तब गाड़ी के चलते समय निशीथ के हाथ का हलका स्पर्श पाकर वह धन्य हो उठती है, ‘मुझे लगता है, यह स्पर्श, यह सुख, यह क्षण ही सत्य है, बाकी सब झूठ है, अपने को भूलने का, भरमाने का, छलने का असफल प्रयास है।’ रास्ते भर दीपा यही सोचती रहती है कि उसका और निशीथ का प्रेम ही सच्चा प्रेम है, वही सच है और वह तय करती है कि संजय से मिलने के बाद वह उससे इस सत्य से अवगत करा देगी और कहेगी कि ‘आज लग रहा है, तुम्हारे प्रति मेरे मन में जो भावना है, वह प्यार की नहीं, केवल कृतज्ञता की है। तुमने मुझे उस समय सहारा दिया था जब अपने पिता और निशीथ को खोकर चूर-चूर हो चुकी थी। …. मेरा मुरझाया, मरा मन हरा हो उठा मैं कृत-कृत्य हो उठी, और समझने लगी कि मैं तुमसे प्यार करती हूँ। पर प्यार की बेसुध घड़ियाँ, वे विभोर क्षण, तन्मयता के वे पल आए ही नहीं, जहाँ शब्द चुक जाते हैं। तुम पूरक थे, मैं गलती से तुम्हें प्रियतम समझ बैठी।’ लेकिन कानपुर आने के बाद इसी दीपा का मन फिर बदल जाता है। उसे निशीथ की उदासीनता और तटस्थता खलने लगती है।

नियुक्ति की सूचना के लिए निशीथ के पत्र का आस लगाए बैठी दीपा को जब इरा का पत्र और बाद में अत्यन्त ठंडे भाव से लिखा हुआ निशीथ का पत्र मिलता है तब वह फिर कल्पना लोक के स्वर्ग से यथार्थ की जमीन पर आ जाती है और ढेर सारे रंजनीगंधा के फूलों के साथ उपस्थित संजय के चुंबन का स्पर्श महसूस करती हुई सोचने लगती है, “और मुझे लगता है, यह सुख, यह क्षण ही सत्य है वह सब झूठा, मिथ्या था, भ्रम था।”

भाषा शैली

‘यही सच है’ की भाषा सहज, स्वाभाविक और प्रवाहपूर्ण है। उसमें कहानी की नायिका ‘दीपा’ के मनोगत यथार्थ और उसके तीव्र अंतर्द्वंद्वों को रूपायित करने की पूरी क्षमता है। चूँकि यह कहानी शहरी वातावरण और शिक्षित नवयुवकों और नवयुवती की कहानी है, इसलिए इसकी भाषा में अंग्रेजी शब्दों का स्वाभाविक प्रयोग हुआ है जो भाषा के साथ-साथ पात्रों की आधुनिकता को भी प्रमाणित करता है। मन्नू भंडारी की भाषा मनुष्य के अंतर्द्वंद्वों को चित्रित करने में काफ़ी समर्थ है। वे भावावेग को जितने सधे ढंग से व्यंजित करती हैं, वह उनकी भाषा की सादगी और उसकी व्यंजकता का श्रेष्ठ उदाहरण है। निशीथ से मिलने के बाद दीपा की आवेगपूर्ण स्थिति का वर्णन देखिए- “मेरी साँस जहाँ की तहाँ रूक जाती है आगे के शब्द सुनने के लिए। पर शब्द नहीं आते। बड़ी कातर, करूण और याचना भरी दृष्टि से मैं उसे देखती हूँ, मानो कह रही हूँ कि तुम कह क्यों नहीं देते निशीथ कि आज भी तुम मुझे प्यार करते हो, तुम मुझे सदा अपने पास रखना चाहते हो, जो कुछ हो गया है, उसे भूलकर तुम मुझसे विवाह करना चाहते हो। कह दो निशीथ, कह दो।”

प्रश्न अभ्यास

1. नई कहानी आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में ‘यही सच है’ की विशेषताएँ लिखिए।

2. ‘यही सच है’ शीर्षक की सार्थकता प्रतिपादित कीजिए।

3. ‘यही सच है’ की प्रेम-संवेदना की आधुनिकता पर प्रकाश डालिए।

4. ‘दीपा’ के व्यक्तित्व की विशेषताएँ लिखिए।

5. ‘यही सच है’ कहानी की मार्मिकता का विश्लेषण कीजिए।

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Avinash Ranjan Gupta

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