Hindi Sourabh Class X Hindi solution Odisha Board (TLH) 2. मनुष्यता मैथिली शरण गुप्त

मैथिलीशरण गुप्त का जन्म चिरगाँव झाँसी में सन् 1886 में हुआ था। उनकी पढ़ाई घर पर ही हुई। उन्होंने हिंदी के अलावा संस्कृत, बंगला, मराठी और अंग्रेजी में भी अच्छा ज्ञान प्राप्त किया। बचपन से ही वे कविता लिखने लगे थे। अपने जीवन काल में ही वे राष्ट्रकवि के नाम से प्रसिद्ध हुए।

गुप्तजी का परिवार रामभक्त था। उन्होंने भारतीय जीवन के आदर्श, इतिहास और संस्कृति को अपने काव्य का आदर्श बनाया। स्नेह, प्रेम, दया, उदारता आदि मानवीय भावों को भी साहित्य के माध्यम से उजागर किया।

इस कविता में मनुष्य को महान बनने की प्रेरणा दी गई है। कवि कहते हैं जिसने इस धरा पर जन्म लिया है, एक न एक दिन अवश्य मरेगा। इसलिए हमें कभी मृत्यु से नहीं डरना चाहिए। हम ऐसे मरे कि मरने के बाद भी अमर हो जाएँ। यदि हम जीवन भर सत्कर्म नहीं करेंगे तो हमें अच्छी मृत्यु नहीं मिलेगी अर्थात् मरने के बाद कोई याद नहीं रखेगा। जो व्यक्ति दूसरों के काम आता है वह कभी मरता नहीं है। क्योंकि वह कभी भी अपने लिए नहीं जीता है। पशु जिस प्रकार अपने आप मरते रहते हैं उसी तरह की प्रवृत्ति मनुष्य में भी कई बार दिखाई देती है जो ठीक नहीं है। मनुष्य को तो मनुष्य की मदद करने में प्राण तक दे देना चाहिए।

संपत्ति के लोभ में पड़कर हमें गर्व से नहीं इठलाना चाहिए। कुछ अपने मित्र और परिवार आदि लोगों को देखकर भी अपने को बलवान नहीं मानना चाहिए क्योंकि इस संसार में कोई भी अनाथ या गरीब नहीं होता। यहाँ कोई भी अनाथ नहीं हो सकता क्योंकि ईश्वर जो तीनों लोकों के नाथ हैं, वे सदा सबके साथ रहते हैं। क्योंकि ईश्वर दीनबंधु हैं। गरीबों पर दया करने वाले भी हैं परम दयालु हैं। विशाल हाथ वाले हैं अर्थात् वे सबकी मदद करने के लिए सदा तत्पर रहते हैं। जो अधीर होकर अहंकारी बन जाते हैं वे तो सच में भाग्यहीन हैं। मनुष्य तो वही है जो मनुष्य की सेवा करे और उसके लिए मरे। मनुष्य के लिए प्रत्येक मनुष्य बंधु है, परम मित्र है। इसे हमें  समझना होगा। यही हमारा विवेक है। एक ही भगवान हम सब के पिता हैं। वे पुरातन प्रसिद्ध पुरुष हैं। वे ईश्वर हैं। यह तो सत्य है कि हमें अपने कर्मों के अनुरूप फल भोगना होता है। इसलिए बाहरी तौर पर हम भले ही अलग अलग दिखाई देते हैं पर अंदर से एक हैं। हम में अंतर की एकता है, वेद ऐसा ही कहते हैं। समाज में अनर्थ तब होता है जब मनुष्य दूसरे को अपना बंधु नहीं मानता है। मनुष्य को ही मनुष्य की पीड़ा को दूर करना होगा। इसलिए सही मायने में मनुष्य वह है जो मनुष्य के लिए मरता है

पद 01

विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी,

मरो परंतु यों करो कि याद जो करें सभी।

हुई न यों सुमृत्यु तो वृथा मरे, वृथा जिए,

मरानहीं वही कि जो जिया न आपके लिए।

वही पशु प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे,

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे॥

शब्दार्थ

विचार – सोच

मर्त्य – मरणशील (Mortal)

मृत्यु – मौत

सुमृत्यु – अच्छी मौत

वृथा – बेकार

जिया – जीना

पशु – जानवर

प्रवृत्ति – आदत

चरे – चरना

व्याख्या

कवि चेतना शक्ति की प्रबलता वाले मनुष्य में परमार्थ भाव की कामना करते हुए कहते हैं कि यह सभी जानते हैं कि मनुष्य का जीवन नश्वर है। उसे मृत्यु से भयभीत नहीं होना चाहिए। उसे मानव के हित अपना जीवन व्यतीत कर अपने कर्मों से सदा अमर हो जाना चाहिए। उसे जनहित के लिए आजीवन प्रयास करना चाहिए ताकि उसकी मृत्यु के बाद भी लोग उसे याद करें। मरने के  बाद यदि हमें याद किया जाए, वही मृत्यु व जीवन श्रेष्ठ कहलाता है, जो व्यक्ति सदा लोगों के लिए काम करता है वास्तव में वह मरकर  भी नहीं मरता। जो लोग अपने स्वार्थ के लिए जीते हैं ऐसे मानव मनुष्य न होकर पशु ही हैं क्योंकि यह तो पशु प्रवृत्ति है कि वह मात्र स्वार्थ में जीवनयापन करता है। मनुष्य कहलाने का अधिकारी तो वही है जिसके जीवन का प्रत्येक पल दूसरों की भलाई में लगा हो।

 पद 02

रहो न भूल के कभी मदांध तुच्छ वित्त सें,

सनाथ जान आपको करो न गर्व चित्त में।

अनाथ कौन है यहाँ? त्रिलोकनाथ साथ हैं,

दयालु दीनबंधु के बड़े विशाल हाथ हैं।

अतीव भाग्यहीन हैं अधीर भाव जो करे,

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे॥

शब्दार्थ

मदांध – घमंड में अंधा

तुच्छ – मामूली

वित्त – धन

सनाथ – नाथ के साथ

गर्व  – अभिमान

चित्त  – मन

अनाथ – नाथ के बिना

त्रिलोकनाथ – तीनों लोकों के नाथ

दयालु – Kind

दीनबंधु – गरीबों के मसीहा

विशाल – बड़ा

अतीव – अत्यधिक

भाग्यहीन – जिसका भाग्य साथ न दे

अधीर – जिसमें धीरज न हो

व्याख्या

कवि संसार की भौतिकता को अस्थायी दर्शाते हुए कहते हैं कि किसी भी व्यक्ति को धन के गर्व से उन्मत्त होकर स्वार्थी व्यवहार करना उपयुक्त नहीं है। मानवीय गुण स्थायी होते हैं तथा नश्वर वस्तुओं के आकर्षण में मानवता की उपेक्षा बिलकुल भी सही नहीं है। कभी भी अपनी क्षमताओं, उपलब्धियों तथा समर्थता का गर्व करके अकार्य न करें। इस संसार का नियंत्रण प्रकृति के हाथ में हैं वही सबका रक्षक है। उस दयानिधान, दीनबंधु विधाता के होते हुए भला कोई भी प्राणी असहाय तथा अनाथ कैसे हो सकता है? जो व्यक्ति अधीर होकर परार्थ भावना का भाव त्याग देता है, वह अत्यंत ही भाग्यहीन है। वास्तव में मनुष्य कहलाने का अधिकारी वही है जो जो पूरी मानवजाति के विकास के लिए अपना सब कुछ समर्पित कर दे।

 पद 03

मनुष्य मात्र बंधु है यही बड़ा विवेक है,

पुराण पुरुष स्वयं पिता प्रसिद्ध एक है।

फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद हैं।

पंरतु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद हैं।

अनर्थ है कि बंधु ही न बंधु की व्यथा हरे;

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।

शब्दार्थ

 मात्र – केवल

बंधु – मित्र

विवेक – बुद्धि

पुराणपुरुष – परमात्मा

स्वयंभू – जो खुद पैदा हुआ हो

पिता – परमात्मा

प्रसिद्ध – विख्यात

फलानुसार – फल के अनुसार

कर्म – कर्तव्य

अवश्य – ज़रूर

बाह्य – बाहरी

भेद – अंतर

अंतरैक्य – आत्मा की एकता

प्रमाणभूत – साक्षी

अनर्थ – बर्बाद

व्यथा – परेशानी

हरे – दूर करना

व्याख्या

कवि कहते हैं कि मनुष्य को सदा विवेकशील  व्यवहार करना चाहिए। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। जीवन व जगत में सदा एक-दूसरे के काम आना चाहिए। वेद-पुराणों में वर्णन है कि इस जगत का नियंता परमात्मा है। मनुष्य को अपने कर्मानुसार विभिन्न जन्म और जीवन मिलते हैं। बाह्य रूप से इस कर्मानुसार फल की विभिन्नता को देखा जा सकता है लेकिन प्रत्येक  प्राणी में प्रकृति के गुणों का निवास है। यदि भाई ही भाई की पीड़ा दूर नहीं करेगा तो इससे बुरा कुछ अन्य नहीं हो सकता। प्रत्येक मनुष्य को एक-दूसरे के काम आना चाहिए। मनुष्य कहलाने का अधिकारी वही है जो मनुष्य के काम आता है तथा मानवता की राह पर चलकर जीवनयापन करता है।

1. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दो-तीन वाक्यों में दीजिए :

(क) कवि ने कैसी मृत्यु को सुमृत्यु कहा है?

उत्तर – दूसरों के लिए जब जीवन बलिदान किया जाए तथा परहित के लिए जब अपना संपूर्ण जीवन लगाकर मृत्यु को प्राप्त हो जाए ऐसी मृत्यु को कवि ने सुमृत्यु कहा है जिसमें मरकर भी व्यक्ति अमर हो जाता है तथा युगों तक जन समुदाय द्वारा याद किया जाता है।

(ख) यहाँ कोई अनाथ नहीं है ऐसा कवि ने क्यों कहा है?

उत्तर – “यहाँ कोई अनाथ नहीं है। कवि ने ऐसा कहा है क्योंकि तीनों लोकों के स्वामी त्रिलोकनाथ सब पर अपने कृपा रूपी कर रखे हुए हैं। वे अपनी दिव्यदृष्टि से सभी को निरंतर देख रहे हैं।   

(ग) मनुष्य मात्र बंधु है से आप क्या समझते हैं? स्पष्ट कीजिए।

उत्तर – मनुष्य को सदा विवेकशील व्यवहार करना चाहिए। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। जीवन व जगत में सदा एक-दूसरे के काम आना चाहिए। यदि भाई ही भाई की पीड़ा दूर नहीं करेगा तो इससे बुरा कुछ अन्य नहीं हो सकता। प्रत्येक मनुष्य को एक-दूसरे के काम आना चाहिए। मनुष्य कहलाने का अधिकारी वही है जो मनुष्य के काम आता है तथा मानवता की राह पर चलकर जीवनयापन करता है।

(क) मनुष्य मात्र बंधु है यही बड़ा विवेक है,

पुराण पुरुष स्वयंभू – पिता प्रसिद्ध एक है।

उत्तर कवि गुप्त जी अपनी इन पंक्तियों के माध्यम से यह कहना चाहते हैं कि अगर हम यह मान लें कि दुनिया के सारे मनुष्य हमारे बंधु हैं, हमारे मित्र हैं, तो इससे बड़ी समझदारी कि बात और कुछ भी नहीं हो सकती क्योंकि हम सब पुराण-पुरुष जो स्वयं पैदा हुए थे उनके ही पुत्र है।  

(ख) रहो न भूल के कभी मदांध तुच्छ वित्त में।

सनाथ जान आपको करो न गर्व चित्त में।

उत्तर यहाँ गुप्त जी यह कहना चाहते हैं कि अगर हमारे पास अत्यधिक धन आ जाए तो हमें कभी भी घमंड नहीं करना चाहिए क्योंकि जिस तरह धन आया है उसी तरह धन के चले जाने की भी संभावना बनी रहती है। उसी प्रकार अगर आप सनाथ है यानी कि आपके परिवार के सभी सदस्य आपका ख्याल रखते हैं तो भी गर्व या अभिमान को अपने निकट नहीं आने देना चाहिए क्योंकि मृत्यु तो अवश्यंभावी है। अतः, कवि यही कहना चाहते हैं कि हमारा पूरा जीवन अभिमानरहित होना चाहिए।      

(क) कवि किससे न डरने की बात कर रहे हैं?

उत्तर – कवि मृत्यु से न डरने की बात कर रहे हैं।

(ख) कवि कैसी मृत्यु को प्राप्त करने का परामर्श दे रहे हैं?

उत्तर कवि मनुष्यों को सुमृत्यु प्राप्त करने का परामर्श दे रहे हैं।

(ग) कवि मनुष्य की किस पशु-प्रवृत्ति की बात कर रहे हैं?

उत्तर जब मनुष्य केवल अपने लिए ही जीता और मरता है तब ऐसी प्रवृत्ति को कवि ने मनुष्य की पशु-प्रवृत्ति कहा है।

(घ) मनुष्य क्या पाकर मदांध हो जाता है?

उत्तर – मनुष्य धन पाकर मदांध हो जाता है।

(ङ) सनाथ होने का घमंड क्यों नहीं करना चाहिए?

उत्तर – सनाथ होने का घमंड नहीं करना चाहिए क्योंकि यहाँ कोई भी अनाथ नहीं है, सबके साथ त्रिलोकनाथ हैं।

(च) भाग्यहीन कौन है?

उत्तर जो व्यक्ति अधीर भाव धारण करें वह अति भाग्यहीन है।

(छ) संसार में मनुष्य का बंधु कौन है?

उत्तर – संसार में मनुष्य का बंधु संसार के सभी मनुष्य हैं।

(ज) पुराण पुरुष हमारे क्या हैं?

उत्तर – पुराण पुरुष स्वयंभू तथा हमारे पिता हैं।

(झ) वेद किसका प्रमाण देते हैं?

उत्तर वेद हम सबकी अंतर की एकता का प्रमाण देते हैं।

(ञ) कौन बंधु की व्यथा हरण कर सकता है?

उत्तर बंधु की व्यथा बंधु अर्थात् मनुष्य ही हरण कर सकता है।

1. उपयुक्त विभक्ति-चिह्नों से शून्य स्थान भरिए :

(से, में, के, का, को, के लिए )

(क) फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद हैं।

(ख) वेद अंतरैक्य में प्रमाण हैं।

(ग) वही मनुष्य है जो मनुष्य के लिए मरे।

2. निम्नलिखित शब्दों के लिंग बताइए :

प्रवृत्ति स्त्रीलिंग

अंतरिक्ष पुल्लिंग

मृत्यु – स्त्रीलिंग

विचार – पुल्लिंग

व्यथा – स्त्रीलिंग

अनर्थ पुल्लिंग

3. निम्नलिखित शब्दों के प्रयोग से एक-एक वाक्य बनाइए :

विवेक हमें सदैव विवेक से काम लेना चाहिए।

प्रवृत्ति मानवता की प्रवृत्ति ही हमें अमर बनाती है।

मर्त्य मृत्यु शब्द का विशेषण रूप ही मर्त्य है।

बंधु भक्त के परम बंधु उसके आराध्य होते हैं।

व्यथा हमें अपनी व्यथा सबके सामने नहीं रखनी चाहिए।  

You cannot copy content of this page