हिंदी खंड

कृष्ण और कालिया दमन की कथा

गरमी के दिन थे, कृष्ण यमुना के तट पर ग्वाल-बालों के साथ गाएँ चरा रहे थे। गाएँ इधर-उधर छिटकी हुई, बड़ी तन्मयता के साथ घास चर रही थीं। ग्वाल-बाल इधर-उधर खेल रहे थे। धूप बड़ी तेज थी। कुछ ग्वाल-बालों और गायों को प्यास लगी। वे यमुना के तट पर जाकर पानी पीने लगे। लेकिन पानी पीते ही वे मूर्च्छित होकर गिर पड़े और देखते ही देखते निष्प्राण हो गए।

गायों और ग्वाल-बालों को मूर्च्छित होकर गिरते देख श्रीकृष्ण दौड़कर उनके पास पहुँचे। उन्होंने देखा, गायों और ग्वाल-बालों के मुख से फेन-सा बाहर निकल रहा था। श्रीकृष्ण का हृदय दुख से भर गया। उन्होंने शीघ्र ही अपनी अमृत संजीवनी शक्ति का प्रयोग किया। आश्चर्य, गाएँ और ग्वाल-बाल पुनः जीवित हो उठे।

यमुना में तट से कुछ दूर एक कुंड-सा बन गया था, जो बड़ा गहरा था। उस कुंड में एक भयानक सर्प निवास करता था। जिसे कालियानाग कहते थे। उसकी कई पत्नियाँ भी थीं। वह बड़ा विषैला था। उसके विष के कारण कुंड का सारा पानी विषाक्त हो गया था। केवल कुंड का पानी ही नहीं, यमुना का जल भी विषैला हो गया था। जिस प्रकार चूल्हे पर रखा हुआ पानी आग की गरमी से खौलता है, उसी प्रकार कुंड का पानी भी कालियानाग के विष से खौला करता था। कितने ही मनुष्य, पक्षु और पक्षी उस पानी को पीकर अपना दम तोड़ चुके थे। चारों ओर उस कुंड का आतंक फैला हुआ था। कोई भी मनुष्य डर के कारण उस ओर नहीं जाता था। फिर भी कभी-कभी अनजान में मनुष्य, पशु या पक्षी उस पानी को पीकर अपना दम तोड़ दिया करते थे।

कृष्ण के कानों में भी कालियानाग के आंतक की कहानी पड़ चुकी थी। उस दिन जब उन्होंने अपनी गायों और ग्वाल-बालों को दम तोड़ते हुए अपनी आँखों से देखा, तो वे व्याकुल हो उठे। उन्होंने प्राणियों की रक्षा के लिए कालियानाग को मार डालने का संकल्प किया। कृष्ण का अवतार ही अत्याचारियों को मिटाने और दुखी प्राणियों की रक्षा के लिए हुआ था।

यमुना के किनारे कदंब का एक वृक्ष था। उसकी डालें यमुना के उस पानी को स्पर्श करती थीं, जिसके नीचे कालियानाग निवास करता था। श्रीकृष्ण मन ही मन कुछ सोचकर कदंब के वृक्ष पर जा चढ़े और देखते ही देखते यमुना में उस जगह कूद पड़े, जहाँ कालियानाग के विष की गरमी से पानी खौल रहा था। कृष्ण यमुना में कूदते ही पानी के भीतर समाविष्ट हो गए।

कालियानाग यह देखकर बड़ा विस्मित हो उठा कि एक तेजस्वी बालक उसके विष की परवाह किए बिना उसकी ओर चला आ रहा है, वह क्रुद्ध होकर कृष्ण की ओर झपटा। कृष्ण और कालियानाग में संघर्ष होने लगा। यह देखकर सारे ग्वाल-बाल चीखने-चिल्लाने लगे, कन्हैया-कन्हैया की पुकार मचाने लगे। पशु-पक्षी व्याकुल होकर चहचहाने लगे, अपनी भाषा में कृष्ण-कृष्ण की पुकार करने लगे।

ग्वाल-बालों ने जाकर यह खबर नंदबाबा और यशोदा को सुनाई। नंद और यशोदा व्याकुल होकर मन ही मन सोच रहे थे, न जाने क्यों आज कृष्ण बलराम को साथ लिए बिना अकेले ही गाएँ चराने के लिए वन में चले गए, न जाने आज वन में क्या हो रहा है? एक ग्वाले ने नंद यशोदा को बताया कि किस तरह कन्हैया काँछनी काछकर कदंब के वृक्ष पर चढ़े और किस तरह वे कालियादह में कूदकर देखते ही देखते अदृश्य हो गए।

उधर, यमुना के जल के भीतर कालियानाग और श्रीकृष्ण में संघर्ष हो रहा था। यद्यपि नंद, यशोदा और गोप तथा गोपियाँ कृष्ण का चमत्कार देख चुकी थीं, किंतु फिर भी वे कृष्ण को एक बालक ही समझती थीं। वे कालियानाग की भयंकरता और कृष्ण की सुकुमारता को सोच-सोचकर रोने लगीं। यमुना के किनारे आंसुओं का सागर उमड़ पड़ा। सारा वातावरण सकरुण स्वर में गूँज उठा।

उधर यमुना-जल के भीतर कालियानाग से संघर्ष करते हुए कृष्ण को भी नंद, यशोदा और गोपों तथा गोपियों की व्याकुलता का पता चला। वे अब तक कालियानाग के साथ लीला कर रहे थे। किंतु यशोदा और नंद की अधीरता ने उन्हें भी अधीर बना दिया। वे शीघ्र ही कालियानाग की कुंडली की लपेट से बाहर निकलकर कालियानाग के हजारों फनों पर चढ़ गए और उसके फनों को रह-रहकर इस तरह पैरों से कुचलने लगे, मानो नृत्य कर रहे हों।

कालियानाग के फनों से रक्त बहने लगा। श्रीकृष्ण कालियानाग के फनों को पैरों से कुचलते हुए कुंड में पानी से ऊपर उठे। नंद यशोदा, गोप और गोपियों ने जब कृष्ण को देखा तो उनके जाते हुए प्राण लौट आए।

कालियानाग को संकट में फँसा देखकर उसकी पत्नियाँ कृष्ण के सामने उपस्थित हुईं। वे विनम्र वाणी में बोलीं, “प्रभो, हमारे पति का स्वभाव विकारों से भरा हुआ है, यही कारण है कि वे आपके अतुल बल-वैभव को समझ नहीं पाए। हम आपकी शरण में हैं। कृपया हमारे पति की रक्षा कीजिए।”

स्वयं कालियानाग भी आर्त्तवाणी में बोला, “हे अशरण शरण, मैं आपकी शरण में हूँ। नाग होने के कारण मैं स्वभाव से ही कुटिल हूँ। दुर्गुणों से भरा हुआ हूँ। मैं अज्ञानी आपके अतुल बल-वैभव को समझ नहीं सका। मुझ पर कृपा कीजिए, मुझे क्षमा का दान दीजिए।”

कालियानाग और उसकी पत्नियों की प्रार्थना ने भगवान श्रीकृष्ण के हृदय में दया उत्पन्न कर दी। वे अमृत के समान अपनी कृपा दृष्टि करते हुए बोले, “कालियानाग, अब तुम यहाँ मत रहो। यह स्थान छोड़कर समुद्र में चले जाओ।” कालियानाग ने भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा का पालन किया। वह कालियादह छोड़कर अपनी पत्नियों सहित समुद्र में चला गया।

भगवान श्रीकृष्ण ने इसी प्रकार दावाग्नि और प्रलंबासुर से भी गायों, गोपों और ग्वाल-बालों की रक्षा की थी। उनका अतुल बल-वैभव देखकर ब्रज के समस्त गोप अब यह समझने लगे थे कि नंद का पुत्र श्रीकृष्ण साधारण मानव न होकर, नारायण का अवतार है। अतः समस्त ब्रजवासी उन्हें अपने बीच पाकर स्वयं को धन्य मानने लगे थे।

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