नंद और यशोदा दोनों बड़े भाग्यशाली थे, जिनकी गोद में बैठकर श्रीकृष्ण अपनी बाल- लीलाएँ करते थे। उनके भाग्य की ठीक-ठीक प्रशंसा शारदा भी नहीं कर सकतीं। धर्मग्रंथों से पता चलता है कि नंद अपने पूर्वजन्म में एक वसु थे। यशोदा धरा थीं, नंद की पत्नी थीं। दोनों ने तप द्वारा ब्रह्मा जी को प्रसन्न करके भगवान की भक्ति और प्रेम का वरदान प्राप्त किया था। उसी वरदान के प्रतिफल स्वरूप नंद ने गोकुल में जन्म धारण किया था और यशोदा उनकी पत्नी हुई थीं। उसी वरदान के फलस्वरूप नंद और यशोदा को श्रीकृष्ण को पुत्र रूप में प्राप्त करने का अमर सुख प्राप्त हुआ था।
कृष्ण धीरे-धीरे बड़े हुए। जब वे बड़े हुए तो गोप-बालकों के साथ इधर-उधर खेलने लगे, बाल-लीलाएँ करने लगे। कृष्ण प्राय अपने संगी-साथियों को लेकर गोपियों के घर में घुस जाते थे। स्वयं तो दूध, दही और मक्खन खाते ही थे, अपने साथियों को भी खिलाया करते थे।
श्रीकृष्ण छींके पर रखी हुई मक्खन की मटकी से बड़ी चतुराई से मक्खन निकालकर खा लेते थे। वे किसी नुकीली चीज से मटकी की पेंदी में छेद कर दिया करते थे। जब मक्खन गिरने लगता था, तो कृष्ण अपने गोप-बालकों के साथ गिरते हुए मक्खन को मुख में ले लिया करते थे। कभी-कभी वे दूध, दही और मक्खन की मटकियों को फोड़ भी दिया करते थे।
प्रायः प्रतिदिन गोपियाँ यशोदा के पास अपनी-अपनी शिकायतें लेकर जाया करती थीं। कोई गोपी कहती थी—यशोदा मैया, तुम्हारा कन्हैया बड़ा शरारती हो गया है। उसने मेरी दही की मटकी फोड़ दी। कोई गोपी कहती—यशोदा मैया, तुम्हारा कृष्ण दूध पी गया है। कोई गोपी कहती – यशोदा मैया, तुम्हारे कृष्ण ने मेरा सारा मक्खन खा लिया है।
शिकायत के समय कृष्ण मौजूद रहते थे। वे गोपियों की शिकायतें सुनकर मुस्कराते हुए कहते थे- मैया, तुम इन गोपियों की बातों पर विश्वास न करो। मैं सवेरा होते ही गायों को चराने के लिए वन में चला जाता हूँ और संध्या होने पर लौटता हूँ। तुम्हीं सोचो, मैं इनका दूध, दही और मक्खन कब खाऊंगा? श्रीकृष्ण की मुस्कराहट देखकर यशोदा समझ जाती थीं कि कृष्ण बड़ा नटखट हो गया है। वह गोपियों को चिढ़ाने के लिए अवश्य उनका दूध, दही और मक्खन खा जाता होगा।
गोपियाँ श्रीकृष्ण को पकड़ने का बड़ा प्रयत्न करती थीं, किंतु वे उन्हें पकड़ नहीं पाती थीं। बालक श्रीकृष्ण उनका हर एक दांव काट दिया करते थे। पर एक दिन बाल श्रीकृष्ण एक चतुर गोपी की पकड़ में आ गए। वे रंगे हाथ पकड़ लिए गए। उनके हाथों में तो मक्खन लगा ही था, मुख से भी मक्खन लगा हुआ था।
गोपी कृष्ण का हाथ पकड़े हुए उन्हें यशोदा जी के पास ले गई। उसने उन्हें यशोदा जी के सामने खड़ा करके कहा, “यशोदा मैया, अब तो आपको विश्वास हो जाएगा कि आपका कान्हा हमारा मक्खन चुराकर खा जाया करता है। देखिए, इसके हाथों और मुख पर मक्खन लगा हुआ है। मैंने इसे मक्खन चुराकर खाते हुए पकड़ा है। “
बात सच थी। मक्खन श्रीकृष्ण के हाथों और मुख पर लगा हुआ था। यशोदा जी बालकृष्ण की ओर देखती हुई बोलीं, ‘“क्यों रे लाला, गोपी क्या कह रही है? क्या तू सचमुच मक्खन चुराकर खा
गया?”
बालकृष्ण ने रोनी सूरत बनाकर उत्तर दिया, “मैया, सभी ग्वाल बालक मेरे पीछे पड़े रहते हैं, मुझे चिढ़ाते रहते हैं। उन्होंने मुझे पकड़कर जबरदस्ती मेरे हाथों और मुख पर मक्खन लगा दिया है। तेरी सौगंध मैया, मैंने मक्खन चुराकर नहीं खाया है।”
बालकृष्ण की रोनी सूरत देखकर यशोदा तो हँसी ही, गोपी भी हँस पड़ी। अद्भुत थी वह रोनी सूरत। मनुष्य की तो बात ही क्या, देवता भी उस रोनी सूरत पर मोहित हो सकते थे।
जब गोपियों की शिकायतें अधिक बढ़ गईं, तो एक दिन यशोदा ने बालकृष्ण को डोरी से बाँधने का निश्चय किया। वे एक डोरी लेकर उसे बालकृष्ण की कमर में बाँधने लगीं, किंतु वह डोरी दो अंगुल छोटी पड़ गई। यशोदा जी जिस किसी ओर से भी डोरी बाँधने का प्रयत्न करतीं, डोरी दो अंगुल छोटी पड़ जाती थी। यशोदा जी बांधते-बांधते थक गईं, किंतु बालकृष्ण बँध नहीं सके। आखिर, माँ की परेशानी देखकर वह अपने आप ही बँध गए।
यशोदा जी के द्वार पर यमलार्जुन के दो वृक्ष थे। दोनों वृक्ष आपस में सटे हुए थे, बीच में बहुत कम जगह थी। सटे हुए होने के कारण उन्हें यमलार्जुन कहते थे। वास्तव में वे दोनों वृक्ष नहीं थे, कुबेर के पुत्र थे। एक का नाम नलकूबर था और दूसरे का नाम मणिग्रीव। पूर्वजन्म में एक बार दोनों शराब पीकर उन्मत्त होकर नाच रहे थे। संयोग की बात, नारद जी भी वहाँ पहुँचे। उन दोनों ने शराब के नशे में नारद जी का अपमान कर दिया। नारद जी ने उन्हें श्राप दे दिया कि वे अर्जुन के वृक्ष बन जाएँगे और भगवान कृष्ण के द्वारा उनका उद्धार होगा।
एक दिन यशोदा जी ने बालकृष्ण को ऊखल से कसकर बाँध दिया। वे उन्हें बाँधकर घर के बाहर चली गईं। ऊखल में बँधे हुए बालकृष्ण ऊखल को घसीटते हुए अर्जुन के वृक्षों के पास गए। वे ऊखल सहित दोनों वृक्ष के बीच से निकलकर दूसरी ओर चले गए। फलतः दोनों वृक्ष गिर पड़े और कुबेर के दोनों पुत्र शाप से मुक्त होकर देवलोक को चले गए।
एक दिन गोप बालकों ने यशोदा जी के पास जाकर उनसे कहा, “यशोदा मैया, तुम्हारे कृष्ण ने मिट्टी खाई है।” यशोदा जी ने कृष्ण को जा पकड़ा। वे उसका हाथ पकड़कर उनसे पूछने लगीं, “क्यों रे लाला, क्या तूने मिट्टी खाई है?”
कृष्ण ने उत्तर दिया, ‘“नहीं मैया? मैंने मिट्टी नहीं खाई है। ये सारे ग्वाल-बाल झूठ बोल रहे हैं।”
यशोदा जी बोलीं, “तू बड़ा नटखट हो गया है। इस तरह मैं नहीं मानूँगी, अपना मुख मुझे खोलकर दिखाओ।”
यशोदा जी के आग्रह पर बालकृष्ण ने अपना मुख खोल दिया। आश्चर्य, महान आश्चर्य ! यशोदा जी को बालकृष्ण के मुख में आकाश, सूर्य, चंद्रमा, तारे और ग्रह-उपग्रह आदि सभी दिखाई पड़े। उन्हें बालकृष्ण के मुख में लोक-लोकों का दर्शन हुआ। उन्होंने स्वयं अपने को भी बालकृष्ण के मुख में देखा।
यशोदा जी विस्मय की लहरों में डूब गईं, मन-ही-मन सोचने लगीं, उनका पुत्र कोई चमत्कारिक योगी है। सिद्ध महात्मा है। माँ की आकुलता देखकर बालकृष्ण ने अपनी योगमाया का उन पर प्रभाव डाला। यशोदा जी सबकुछ भूल गईं।
गोकुल में कंस द्वारा भेजे गए राक्षसों का उत्पात बढ़ता ही जा रहा था। आए दिन कोई-न-कोई घटना घटती ही जा रही थी। अतः बड़े-बूढ़े गोपों ने नंद बाबा को सलाह दी, “हमें गोकुल छोड़कर वृंदावन चले जाना चाहिए। गोकुल की अपेक्षा हम वृंदावन में अधिक सुरक्षित रहेंगे।”
नंदराय को गोपों की सलाह समयानुकूल लगी। फलतः गोकुल के सभी गोप अपनी-अपनी गायों और बछड़ों को लेकर वृंदावन चले गए।