महर्षि दुर्वासा के शाप से देवता तेजहीन हो गए तो असुर और दैत्यों ने उन पर मनमाने अत्याचार करने आरंभ कर दिए। निर्बल और तेजहीन देवता भगवान विष्णु की शरण में पहुँचे। उन्होंने श्रीहरि से प्रार्थना की, “प्रभु, हम पर कृपा कीजिए और किसी प्रकार देवों को दैत्यों के भय से मुक्त कराइए।” यह सुन श्रीहरि ने उन्हें सुझाव दिया, “तुम सब देवता असुर और दैत्यों के साथ मिलकर समुद्र मंथन करो। उससे जो रत्न तुम्हें प्राप्त होंगे उन्हें पाकर तुम पुनः तेजस्वी बन जाओगे।”
“हम तो तैयार हैं, प्रभु!” देवता बोले, “लेकिन क्या असुर और दैत्य भी इसके लिए तैयार होंगे?”
“देवेंद्र।” श्रीहरि ने कहा, “तुम दैत्यराज बलि के पास जाओ। उसे स्मरण दिलाओ कि देव और दैत्य एक ही पिता की संतानें हैं। दैत्यराज बलि बहुत भावुक प्रवृत्ति का है। मुझे आशा है, वह देवों से सहयोग करने को तैयार हो जाएगा।”
भगवान विष्णु का परामर्श मानकर इंद्र दैत्यराज बलि के पास पहुँचा। बलि ने उसका समुचित आदर सत्कार किया और उचित आसन दिया। फिर उसने देवेंद्र से उसके आने का कारण पूछा, तो इंद्र ने कहा, “दैत्यराज बलि। देवता और दैत्य एक ही पिता महर्षि कश्यप की संतानें हैं, अतः परस्पर वे भाई-भाई हैं। कितना अच्छा हो यदि हम आपस का यह वैरभाव छोड़कर प्रेमपूर्वक हिल-मिलकर रहें।”
“विचार तो उत्तम है आपका।” दैत्यराज बलि बोले, “लेकिन क्या ऐसा संभव है?” “दुनिया में असंभव कुछ भी नहीं है, दैत्यराज। आवश्यकता सिर्फ इस बात की है कि हम अपने-अपने वचन पर दृढ़ रहें।” इंद्र ने कहा।
“मैं अपने वचन पर कायम रहूँगा।” बलि ने कहा, “जब तक देवता दैत्यों को उकसाने अथवा उनके अधिकारों को हड़पने की कोई कोशिश नहीं करेंगे, दैत्य उनसे वैरभाव नहीं रखेंगे।”
“भगवान विष्णु का मानना है कि यदि दैत्य और देवता दोनों तैयार हो जाएँ तो वे मिलकर समुद्र मंथन कर सकते हैं। समुद्र के गर्भ में हजारों प्रकार के ऐसे-ऐसे अमूल्य रत्न छिपे पड़े हैं जिन्हें पाकर धरा पर रहने वाले सभी प्राणी लाभान्वित हो सकते हैं। समुद्र के दोहन से जो भी वस्तुएँ प्राप्त हों, हम उन्हें आपस में मिलकर बांट लेंगे।” इंद्र ने बताया।
“यदि ऐसा है तब हमें देवों के साथ मिलकर कार्य करने में कोई आपत्ति नहीं।” राजा बलि बोले।
तत्पश्चात् राजा बलि के पार्षदों ने मिलकर मंत्रणा की और राजा बलि को अपना निर्णय सुना दिया। सुनकर बलि ने कहा, “देवेंद्र। मेरे पार्षदों की राय है कि इस कार्य में दैत्य और देवता मिलकर कार्य करें। अब यह बताइए कि मथानी के लिए किसे चुना जाए?”
“मंदराचल पर्वत इसके लिए सर्वथा उपयुक्त रहेगा।”
“और नेति रज्जु के लिए?” बलि ने पूछा।
अगर नागराज वासुकि इसके लिए तैयार हो गए तो उन्हें नेति के स्थान पर प्रयुक्त किया जा सकता है। रही बात पर्वत को टिकाने की तो उसके लिए मैं श्रीहरि से प्रार्थना करूँगा।” इंद्र ने बताया।
“तब निश्चय हो गया। हम जल्दी ही यह कार्य शुरू कर देंगे।”
दैत्य और दानवों ने मिलकर बड़े परिश्रम से मंदराचल पर्वत को उठाया और उसे समुद्र की दिशा में ले चले। इस प्रयास में अनेक दैत्य और देवता इसके नीचे आकर कुचले गए। लेकिन यह कार्य अधिक देर तक न चल सका। मंदराचल के भारी बोझ से दैत्य और देवता दोनों ही बुरी तरह हाँफने लगे और उन्हें कुछ कदम चलना भी मुश्किल हो गया। इंद्र घबराया हुआ श्रीहरि की शरण में पहुँचा। बोला, “देव। मंदराचल के भारी बोझ से कुचलकर अनेक देवता और दैत्य दम तोड़ चुके हैं। अब उसे कुछ कदम तक ले जाना भी मुश्किल है। आप सहायता नहीं करेंगे तो यह कार्य सिद्ध नहीं हो पाएगा।”
“चिंता न करो देवेंद्र।” श्रीहरि बोले, “मैं मंदराचल को अभी सागर में पहुँचाए देता हूँ।”
भगवान श्रीहरि गरुड़ पर सवार होकर कार्यस्थल पर पहुँचे। उन्होंने बाएँ हाथ से मंदराचल को उठा लिया और उसे ले जाकर सागर में स्थित कर दिया। लेकिन बात फिर भी न बनी। भारी मंदराचल समुद्र में डूबने लगा तो दैत्यों और देवों में चिंता व्याप्त हो गई। भगवान विष्णु उनकी चिंता भाँप गए। बोले, “तुम लोग चिंता मत करो। अब मैं स्वयं कूर्म (कछुआ) बनकर इसे अपनी पीठ पर धारण किए लेता हूँ।”
भगवान विष्णु ने अपनी योगमाया से एक विशाल कच्छप का रूप धारण किया और डूबते हुए मंदराचल को अपनी पीठ पर टिका लिया। सागर मंथन आंरभ हो गया। वासुकि नाग को नेति के रूप में प्रयोग किया जाने लगा। असुर और दैत्य वासुकि के सिर की ओर और देवता उसे पूंछ की ओर से खींचने लगे।
घर्षण के श्रम से वासुकि अपने मुख से जहर उगलने लगा, जिसकी गरमी से व्याकुल होकर दैत्य व्याकुल होने लगे। जबकि देवता बड़े आराम से वासुकि की पूँछ थामे रहे।
समुद्र मंथन में सबसे पहले निकला काल-कूट विष। देवता और दैत्य दोनों में से ही कोई उसे लेने को तैयार न हुआ। तब भगवान शिव आगे बढ़े और उन्होंने जनकल्याण के लिए विष अपने कंठ में रख लिया। विष पी लेने के कारण कंठ नीला पड़ गया। तभी से वे नीलकंठ के नाम से प्रख्यात हुए।
दूसरी बार के मंथन में कामधेनु निकली जो भगवान विष्णु के परामर्श से वन में रहने वाले ऋषि- मुनियों और ब्राह्मणों को दान कर दी गई। इस तरह महर्षि वसिष्ठ और दुर्वासा आदि ऋषिगण कामधेनु पा गए।
तीसरी बार मंथन के पश्चात् सागर से उच्चैश्रवा नामक घोड़ा निकला, जिस पर मुग्ध होकर दैत्यराज बलि ने उसे अपने लिए माँग लिया।
चौथी बार श्वेत रंग का चार दाँतों वाला ऐरावत हाथी निकला जिसे इंद्र ने अपने अधिकार में कर लिया। पांचवीं बार कौस्तुभ मणि निकली जिसे भगवान विष्णु ने यह कहकर कि मैं भी तो इस कार्य में आप लोगों की मदद कर रहा हूँ, कौस्तुभ मणि ले ली।
इसी प्रकार छठी बार पारिजात नाम का चिरवांछित फल देने वाला वृक्ष निकला, जिसे पहले तो जन-कल्याण के लिए समुद्र के किनारे स्थापित कर दिया गया फिर बाद में देवता उसे देवलोक ले उड़े।
सातवीं बार रंभा नामक सुंदरी समुद्र के गर्भ से निकली जो देवों और दैत्यों में से किसी को भी न मिली। उसने स्वेच्छाचारिणी बनकर देवलोक में रहना स्वीकार किया।
आठवीं बार जब दाएँ हाथ में कमल और बाएँ हाथ में माला लिए लक्ष्मी जी सागर के गर्भ से निकलीं तो दोनों ही पक्ष उन्हें पाने के लिए लालायित हो उठे। दैत्य बोले, “यह हमारी है, हम इसे लेंगे।”
“नहीं। ऐसी कांतिमय रमणी सिर्फ देवलोक में ही रहने के योग्य है। इसलिए यह देवलोक में जाएगी।” देवताओं ने आग्रह किया।
लक्ष्मी जी को प्राप्त करने के लिए दोनों ही पक्ष आपस में झगड़ने लगे। तभी भगवान विष्णु ने उन्हें शांत किया और बोले, “देवो और दैत्यो। तुम दोनों ने ही आपस में झगड़ा न करने का वचन दिया है। तुम दोनों के लिए यही उचित है कि आपस में न झगड़कर देवी लक्ष्मी पर ही यह निर्णय छोड़ दो कि वे किसके पास रहें।”
इस पर लक्ष्मी जी ने स्वेच्छा से विष्णुजी का वरण कर लिया। वे भगवान विष्णु की अर्द्धांगिनी बन गईं। तत्पश्चात् वारुणि (मदिरा) प्रकट हुई जिसे पाकर दैत्य प्रसन्न हो गए। अंत में एक हाथ में अमृत कलश और दूसरे में ‘हरीतकी’ थामे नारायण स्वरूप वैद्य धन्वंतरि प्रकट हुए जिन्हें देखकर दोनों ही पक्ष प्रसन्न हो उठे। दैत्य कह उठे, “जिस अमृत को प्राप्त करने के लिए हमने इतना परिश्रम किया है, वह हमें अब प्राप्त हुआ है। सबसे पहले हम इसका पान करेंगे।”
उसी समय एक दैत्य आगे झपटा और उसने धन्वंतरि के हाथ से अमृत कलश छीन लिया। यह देखकर इंद्र तत्काल उसकी ओर दौड़ पड़ा, वह जोर से चिल्लाता हुआ बोला, “इस अमृत को तुम लोग अकेले नहीं पी सकते। इसे निकालने में देवों ने भी उतना ही श्रम किया है, जितना तुम लोगों ने। इस अमृत घट में आधा हिस्सा देव भी लेंगे।”
“हरगिज नहीं।” दैत्य बोले, “पहले हम दैत्य इसका पान करेंगे, बाद में जितना बच जाए उसे तुम देव आपस में मिलकर बाँट लेना।”
यह सुनकर विष्णु आहिस्ता से इंद्र के पास पहुँचे और उन्होंने इंद्र के कान में कहा, “देवेंद्र। इस समय दैत्यों से झगड़ा करना उचित नहीं है। कहीं ऐसा न हो कि क्रोध में आकर वे अमृत घट को भूमि पर पटक दें। थोड़ा धैर्य रखो। मैं कोई उपाय सोचता हूँ।”
जिस दैत्य ने धन्वंतरि के हाथ से अमृत-घट छीना था, वह अचानक अमृत-घट को लेकर भाग छूटा। सारे दैत्य उसके पीछे-पीछे दौड़ पड़े। इस अफरा-तफरी में दैत्यों को इतना समय न मिल पाया कि वे अमृत पी सकें। तत्पश्चात् भगवान विष्णु ने अपनी मोहिनी माया रची। उन्होंने एक अतीव सुंदरी का वेश बनाया, जिसे देखकर देव और दैत्य दोनों ही विस्मित हो उठे। सुंदरी देवों और दैत्यों के बीचों बीच जा खड़ी हुई। सुंदरी बोली, “अरे दैत्यो। थोड़े से अमृत के लिए तुम लोग पागलों की तरह क्यों झगड़ते हो। मुझे अमृत का घट दो, मैं बारी-बारी से दोनों पक्षों को इसका पान कराए देती हूँ।”
देव, दैत्य और असुर उस मोहिनी सुंदरी से इतने प्रभावित हो चुके थे कि उन्होंने तुरंत मोहिनी की बात मानकर उसे मध्यस्थ बनाना स्वीकार कर लिया। मोहिनी रूप धारण किए भगवान विष्णु ने दैत्यों से कहा, “पहले आप लोग स्नान करके स्वच्छ होकर यहां आओ और पंक्तिबद्ध होकर मेरे सामने बैठ जाओ। तत्पश्चात् मैं बारी-बारी से तुम सबको अमृत पिलाती हूँ।”
“दैत्य और देव मोहिनी को दिए हुए वचनानुसार स्नान करके अलग-अलग पंक्तिबद्ध होकर बैठ गए। मोहिनी ने दैत्यों को अमृत-घट दिखाते हुए कहा, “इस कलश के ऊपरी भाग में जो अमृत है, वह पतला है और कम प्रभावकारी है। नीचे के हिस्से में अमृत गाढ़ा और अपेक्षाकृत अधिक प्रभावशाली है। बताइए, पहले अमृतपान कौन करना चाहेगा? आप लोग या देव?”
“ऊपर का भाग तो देवों को ही पिलाइए देवी। हम तो नीचे का गाढ़ा अमृत ही पिएँगे।” दैत्यों ने कहा।
“तब ठीक है।” मोहिनी देवों की ओर घूमकर बोली, “पहले मैं देवों से ही आरंभ करती हूँ।” मोहिनी ने देवों को अमृत पिलाना शुरू किया। लेकिन राहु नाम का एक दैत्य मोहिनी की इस चतुराई को भाँप गया। वह देवता जैसा रूप धारण कर चुपके से चंद्रमा और सूर्य के मध्य आ बैठा। सूर्य को अमृतपान कराकर जैसे ही मोहिनी आगे बढ़ी, चंद्रमा ने राहु को पहचान लिया। उसने मोहिनी को सचेत करके कहा, “ठहरो देवी। इसे अमृत मत पिलाना, यह देवता नहीं, कोई छद्मवेशधारी दैत्य है।” मोहिनी ने घट पीछे खींच लिया, किंतु तब तक अमृत की कुछ बूँदें राहु पी चुका था। यह देख मोहिनी ने अमृत का शेष भाग चंद्रमा को पिलाया और कलश को भूमि पर पटक कर अपने वास्तविक स्वरूप में आ गई। राहु ने मोहिनी के स्थान पर भगवान विष्णु को खड़ा पाया तो वह भयभीत होकर एक ओर को भाग छूटा।
लेकिन वह दूर न जा सका। विष्णु का सुदर्शन चक्र चला और उसने खट से राहु का सिर काट दिया। राहु का सिर कटकर एक ओर जा गिरा और धड़ एक ओर। विष्णु अपने चक्र से अभी उसके और टुकड़े कर देना चाहते थे, तभी चंद्रमा ने हाथ जोड़कर उनसे विनती की, “ठहरिए देव। अब इसके और टुकड़े मत कीजिए। यह अमृतपान करके अमर हो चुका है। अब आप इसके जितने टुकड़े करेंगे, इसके कटे शरीर से उतने ही राहु और पैदा हो जाएँगे और देवों को प्रताड़ित करते रहेंगे।” यह सुनकर श्रीहरि ने अपना चक्र रोक दिया। इस प्रकार राहु के और टुकड़े होने से रह गए। राहु के ये दोनों टुकड़े राहु और केतु कहलाए।
श्रीहरि ने राहु से कहा, “देखो राहु। तुमने देवों के बीच छलपूर्वक बैठकर अमृतपान कर लिया है, इसलिए अब तुम भी देवों की श्रेणी में आ गए हो। अब अपनी आसुरी वृत्तियाँ छोड़ो। अब से तुम सूर्य आदि सात ग्रहों की तरह नवग्रह पूजा के अधिकारी बन गए हो।” कहा जाता है तभी से सात ग्रहों के स्थान पर नौ ग्रहों की पूजा की जाती है। राहु और केतु, चंद्रमा और सूर्य पर कुपित रहते हैं अतः ये समय-समय पर चंद्र और सूर्य को प्रताड़ित करते रहते हैं। इन्हीं दोनों के कोप से सूर्य और चंद्रग्रहण होते हैं।
किसी-किसी पुराण में ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि धन्वंतरि के हाथ से जो दैत्य अमृत कलश छीनकर भागा था, उस अमृत घट को इंद्र के पुत्र जयंत ने उससे छीन लिया था और वह उसे लेकर आकाश में उड़ गया था। जयंत अमृत घट को लेकर जिस-जिस भी स्थान पर विश्राम के लिए उतरा, वह स्थान पवित्र हो गया। ये स्थान थे – महाराष्ट्र के नासिक में गोमती के किनारे त्र्यंबकेश्वर, उज्जैन मध्यप्रदेश में शिप्रा के तट पर महाकालेश्वर, प्रयाग उत्तर प्रदेश में गंगा-यमुना और सरस्वती का संगम एवं हरिद्वार में गंगा तट। प्रति बारह वर्षों में इन स्थानों पर एक बार कुंभ और छः वर्षों में अर्द्धकुंभ के मेले लगते हैं। करोड़ों श्रद्धालु उन दिनों उन पुन्य सलिलाओं में स्नान कर स्वयं को धन्य मानते हैं। कितने ही युग बीत गए, यह सिलसिला अब भी जारी है।