संत विनोबा – लेखक परिचय
महात्मा गाँधी के सिद्धांतों में पूर्ण निष्ठा, विश्वास एवं उनको तत्परता से क्रियान्वित करने वाले संत विनोबा एक नैष्ठिक ब्रह्मचारी, प्रखर विद्वान और कर्मठ समाजसेवी रहे गाँधीजी की विभिन्न रचनात्मक प्रवृत्तियों को साकार रूप देने, प्रयोग की कसौटी पर उन्हें कसकर उनकी उपयोगिता को साकार रूप देने तथा प्रभविष्णुता को सिद्ध करने में विनोबा जी का योगदान महत्त्वपूर्ण रहा। आप स्वभाव से ही अध्ययनशील तथा अध्यासाई थे। निरंतर विकासशीलता विनोबा जी का श्रेष्ठ गुण मना जाता है। विनोबा जी के विचार, वाणी और आचार की एकरूपता उनको सही माने में संत प्रमाणित करती है। उनकी स्मरण शक्ति अभूतपूर्व रही।
जीवन और शिक्षण
विनोबा जी संस्कृत के प्रकाण्ड पंडित रहे और मराठी आपकी मातृभाषा होने के कारण उस पर भी आपका पूर्ण अधिकार रहा। विनोबा जी बहुभाषा कोविद थे और उन्हें भारतवर्ष की प्रायः सभी प्रमुख भाषाओं का ज्ञान था। नपे-तुले आडम्बरहीन शब्दों में अपनी बात व्यक्त कर देना विनोबा जी का खास गुण है। आपके विचार सुलझे हुए, तर्क युक्तिसंगत और कथन स्पष्ट एवं संक्षिप्त होते हैं। आपके कई वाक्य सूत्रबद्ध होते हैं जिनमें गहन आशय छिपा होता है। गागर में सागर भर देने की अद्भुत क्षमता उनमें परिलक्षित होती है। समाजगत बुराइयों, रुढ़िगत अंधविश्वासों के प्रति एक हल्की-सी चुटकी लेकर ही आपकी वाणी मौन नहीं हो जाती वरन् उन समस्याओं का समुचित समाधान भी हम उसमें पाते हैं। आपकी भाषा, सरल, सुबोध होते हुए भी विषय को पूर्णतया स्पष्ट करने वाली होती है।
इनका प्रस्तुत जीवन और शिक्षण निबंध छात्रों, अध्यापकों एवं समाज को आत्म-परीक्षण करने के लिए बाध्य करता है। उनके मतानुसार आज की शिक्षा का सबसे बड़ी दोष यह है कि आधी आयु तक मनुष्य यह समझ नहीं पाता कि ज़िन्दगी बसर करने के लिए उसे किस प्रकार की तैयारी की आवश्यकता है यही कारण है कि आज का युवक अपने विद्यार्थी जीवन में भविष्य के लक्ष्य और उसकी पूर्ति की आवश्यक तैयारी नहीं कर पाता। इसे ही यदि हम सीधे-सादे शब्दों में कहना चाहें तो कहोगे की आज की शिक्षा जीवन-यापन के उपायों क कोई ज्ञान हमें नहीं कराती अर्थात्त् जीवन और शिक्षा का कोई संबंध नहीं रह गया है। ऐसी स्थिति मंञ मनुष्य की अवस्था दयनीय हो जाती है और वह जीवन को भयानक वस्तु समझने लगता है। इस दोष से बचने के लिए क्या करना चाहिए और वह कैसे किया जा सकता है इन सब बातों का विवेचन प्रस्तुत निबंध में किया गया है। शिक्षा में जीवन के प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त करा देने की आवश्यकता पर विनोबा जी ने बल दिया है।
जीवन और शिक्षण
आज की विचित्र शिक्षण पद्धति के कारण जीवन के दो टुकड़े हो जाते हैं। आयु के पहले पन्द्रह-बीस वर्षों में आदमी जीने की झंझट में न पड़कर सिर्फ शिक्षा को प्राप्त करे और बाद को शिक्षण को बस्ते में लपेट रखकर मरने तक जिए।
यह रीति प्रकृति की योजना से विरूद्ध है। हाथ भर लंबाई का बालक साढ़े तीन हाथ का कैसे हो जाता है। यह उसके अथवा औरों के ध्यान में भी नहीं आता। शरीर की वृद्धि रोज़ होती रहती है। यह वृद्धि सावकाश, क्रम-क्रम से, थोड़ी-थोड़ी होती है। इसलिए उसके होने का भान तक नहीं था। यह नहीं होता कि आज रात को सोवे तब दो फुट ऊँचाई थी और सबेरे उठकर देखा तो ढाई फुट हो गई। आज की शिक्षण-पद्धति का तो यह ढंग है कि अमुक वर्ष से बिल्कुल आखिरी दिन तक मनुष्य जीवन के विषय में पूर्ण रूप से गैर जिम्मेदार रहे तो भी कोई हर्ज नहीं, यही नहीं उसे गैर जिम्मेदार रहना चाहिए और आगामी वर्ष का पहला दिन निकला कि सारी जिम्मेदारी उठा लेने की तैयारी हो जाना चाहिए।
सम्पूर्ण गैर जिम्मेदारी से सम्पूर्ण जिम्मेदारी में कूदना तो एक हनुमान – कूद ही हुई। ऐसी हनुमान-कूद की कोशिश में हाथ पैर टूट जाए तो क्या?
भगवान ने अर्जुन से कुरुक्षेत्र में भगवत गीता कहीं। पहले भगवत गीता की क्लास’ लेकर अर्जुन को कुरुक्षेत्र में नहीं ढकेला, तभी उसे वह गीता पची। हम जिसे जीवन की तैयारी का ज्ञान कहते हैं उसे जीवन से बिल्कुल अलग तरह रखना चाहिए, इसलिए उस ज्ञान से मौत की ही तैयारी होती है।
बीस वर्ष का उत्साही पुरुष अध्ययन में मगन है तरह-तरह के मुझे विचारों के महल बना रहा है। “मैं शिवाजी महाराज की मातृभूमि की सेवा करूंगा। मैं वाल्मीकि-सा कवि बनूंगा। मैं न्यूटन की तरह खोज करूंगा।” एक, दो, चार जाने क्या-क्या कल्पना करता है। ऐसी कल्पना करने का भाग्य भी थोड़े को ही मिलता है। पर जिनको मिलता है उनकी ही बात लेते हैं। जिन कल्पनाओं का आगे क्या नतीजा निकलता है? जब नोन- तेल- लकड़ी के फेर में पड़ा, जब पेट का प्रश्न सामने आया, तो बेचारा दीन बन जाता है। जीवन की जिम्मेदारी क्या चीज है, आज तक उसकी बिल्कुल ही कल्पना नहीं की थी और अब तो पहाड़ सामने खड़ा हो गया फिर क्या करता है? फिर पेट के लिए वन-वन फिरने वाले शिवाजी, करुणा गीत गाने वाले वाल्मीकि और कभी नौकरी की तो कभी औरत की, कभी लड़की के लिए वर की और अंत में शमशान की शोध करने वाले न्यूटन – जिस प्रकार की भूमिकाएँ लेकर अपनी कल्पनाओं का समाधान करता है, यह हनुमान कूद का फल है।
मैंने मैट्रिक के एक विद्यार्थी से पूछा – “क्यों जी, तुम आगे क्या करोगे?”
“आगे क्या? आगे कॉलेज में जाऊँगा। “
“ठीक है। कॉलेज में तो जाओगे। लेकिन उसके बाद? यह सवाल तो बना ही रहता है।”
“सवाल तो बना ही रहता है। पर उसका अभी से विचार क्यों किया जाए? आगे देखा जाएगा।” फिर तीन साल बाद उसी विद्यार्थी से वही सवाल पूछा।
“अभी तक कोई विचार नहीं हुआ।”
“विचार हुआ नहीं यानी? लेकिन विचार किया था क्या?”
“नहीं साहब, विचार किया ही नहीं। क्या विचार करें? कुछ सूझता नहीं। पर अभी डेढ़ बरस बाकी है। आगे देखा जाएगा।”
“आगे देखा जाएगा।” ये वे ही शब्द हैं जो तीन वर्ष पहले कहे गए थे। पर पहले की आवाज में बेफिक्री थी। आज की आवाज में थोड़ी चिंता की झलक थी।
फिर डेढ़ वर्ष बाद उसी प्रश्नकर्ता ने उसी विद्यार्थी से अथवा कहो अब ‘गृहस्थ’ से वही प्रश्न पूछा। इस बार बेचारा चिंताक्रान्त था। अब आवाज की बेफिक्री बिल्कुल गायब थी। “ततः किम्? ततः किम्? ततः किम्?” यह शंकराचार्य का पूछा हुआ सनातन सवाल दिमाग में कसकर चक्कर लगाने लगा था। पर पास जवाब था नहीं।
आज की मौत कल पर ढकेलते-ढकेलते एक दिन ऐसा आ जाता है कि उस दिन मरना ही पड़ता है। यह प्रसंग उन पर नहीं आता जो मरण के पहले ही मर लेते हैं, जो अपना मरण आंखों से देखते हैं। जो मरण का अगाउ अनुभव लेते हैं, उनका मरण टलता है और जो मरण के अगाउ अनुभव से जी चुराते हैं, खींचते हैं, उनकी छाती पर मरण आ पड़ता है। सामने खंभा है, यह बात अंधे की उस खंभे का छाती में प्रत्यक्ष धक्का लगने के बाद मालूम होता है। आंख वाले को यह खम्मा पहले ही दिखाई देता है। अतः उसका धक्का उसकी छाती को नहीं लगता।
जिंदगी की जिम्मेदारी कोई निरी मौत नहीं है और मौत ही कौन ऐसी बड़ी ‘मौत’ हैं? अनुभव के अभाव में यह सारा ‘हौआ’ है। जीवन और मरण दोनों आनंद की वस्तु होनी चाहिए। कौन पिता है जो अपने बच्चों के लिए परेशानी की जिंदगी चाहेगा? तिस पर ईश्वर के प्रेम और करुणा का कोई पार हैं?
वह अपने लाड़ले बच्चों के लिए सुखमय जीवन का निर्माण करेगा की परेशानी और झगड़ों से भरा जीवन रचेगा! कल्पना की क्या आवश्यकता प्रत्यक्ष देखिए न? हमारे लिए जो चीज जितनी जरूरी है उसके उतनी ही सुलभता से मिलने का इंतजार ईश्वर की ओर से है। पानी से हवा ज्यादा जरूरी है तो ईश्वर ने पानी से हवा को अधिक सुलभ किया है। जहाँ नाक है वहाँ हवा मौजूद है। पानी से अन्न की जरूरत कम होने की वजह से पानी प्राप्त करने की बनिस्बत अन्न प्राप्त करने में अधिक परिश्रम करना पड़ता है।’आत्मा’ सबसे अधिक महत्त्व की वस्तु होने के कारण वह हर एक को हमेशा के लिए दे डाली है। ईश्वर की ऐसी प्रेम-पूर्ण योजना है जिसका ख्याल न करके हम निकम्मे जड़ जवाहरात जमा करने – जितने जड़ बन जाएँ तो तकलीफ हमें होगी ही। पर यह हमारी जड़ता का दोष है, ईश्वर का नहीं।
जिंदगी की जिम्मेदारी कोई डरावनी चीज नहीं है, वह आनंद से ओत-प्रोत है, बशर्ते कि ईश्वर की रची हुई जीवन की सरल योजना को ध्यान में रखते हुए अनुप्रयुक्त वासना को दबाकर रखा जाए। पर जैसे वह आनंद से भरी हुई वस्तु है वैसे ही शिक्षा से भी भरपूर है। यह पक्की बात समझनी चाहिए जो जिंदगी की जिम्मेदारी से वंचित हुआ है वह सारे शिक्षण का फल गँवा बैठा। बहुतों की धारणा है कि बचपन से ही जिंदगी की जिम्मेदारी का ख्याल अगर बच्चों में पैदा हो जाए तो जीवन कुम्हला जाएगा। पर जीवन की जिंदगी की जिम्मेदारी का भान होने से अगर जीवन कुम्हलाता हो तो फिर वह जीवन -वस्तु ही रहने लायक नहीं है। पर आज यह धारणा बहुतेरे शिक्षा शास्त्रियों की भी है और इसका मुख्य कारण है जीवन के विषय में दुष्ट कल्पना। जीवन मानी कलह, यह मान लेना इस नीति के अरसिक माने हुए परंतु वास्तविक मर्म को समझने वाले मुर्गे से सीख लेकर ज्वार के दानों की अपेक्षा मोतियों को मान देना छोड़ दिया जाए तो जीवन के अंदर का कलह जाता रहेगा और जीवन में सहकार दाखिल हो जाएगा। बंदर के हाथ में मोतियों की माला (मरकट-भूषण अंग) यह कहावत जिन्होंने गढ़ी है उन्होंने मनुष्य का मनुष्यत्व सिद्धनकरके मनुष्य के पूर्वजों के संबंध में डार्विन का सिद्धांत सिद्ध किया है। ‘हनुमान के हाथ में मोतियों की माला’ वाली कहावत जिसमें रची अपने मनुष्यत्व के प्रति वफादार रहे।
जीवन अगर भयानक वस्तु हो, कलह हो तो बच्चों को उसमें दाखिल मत करो और खुद भी मत जियो। पर वह अगर जीने लायक वस्तु हो तो लड़कों को उसमें ज़रूर दाखिल करो। बिना उसके उन्हें शिक्षण नहीं मिलने का। भगवद्गीता जैसे कुरुक्षेत्र में कही गई वैसे शिक्षा जीवन क्षेत्र में देनी चाहिए – दी जा सकता है। ‘दी जा सकती है’ यह भाषा भी ठीक नहीं है। वहीं वह मिल सकती है।
अर्जुन के सामने प्रत्यक्ष कर्तव्य करते हुए सवाल पैदा हुआ। उसका उत्तर देने के लिए भगवद्गीता निर्मित हुई। इसी का नाम शिक्षा है। बच्चों को खेत में काम करने दो। वहाँ कोई सवाल पैदा हो तो उसका उत्तर देने के लिए सृष्टि-शास्त्र अथवा पदार्थ-विज्ञान की या दूसरी जिस चीज की ज़रूरत हो उसका ज्ञान दो। यह सच्चा शिक्षण होगा। बच्चों को रसोई बनाने दो। उसमें जहाँ जरूरत हो पाक-शास्त्र सिखाओ। पर असली बात यह है कि उनको जीवन जीने दो। व्यवहार में काम करने वाले आदमी को भी शिक्षण मिलता ही रहता है। वैसे ही छोटे बच्चों को भी मिले। भेद इतना ही होगा कि बच्चों के आस-पास ज़रूरत के अनुसार मार्ग-दर्शन करने वाले मनुष्य मौजूद हों। यह आदमी भी ‘सिखाने वाले’ बनकर ‘नियुक्त’ होंगे। वे भी ‘जीवन जीने वाले हों।, जैसे व्यवहार में आदमी जीवन जीते हैं। अंतर इतना ही है कि इस ‘शिक्षक’ कहलाने वालों का जीवन विचारमय होगा, उसके विचार मौकों पर बच्चों को समझा कर बताने की योग्यता उनमें होगी। पर ‘शिक्षक’ नाम के किसी स्वतंत्र धंधे की जरूरत नहीं है, न ‘विद्यार्थी’ नाम के मनुष्य-कोटी के से बाहर के किसी प्राणी की है। और क्या करते हो’ पूछने पर ‘पढ़ता हूँ’ या ‘पढ़ाता हूँ’ जैसे जवाब की जरूरत नहीं है। ‘खेती करता हूँ’ अथवा ‘बुनता हूँ’ ऐसा शब्द पेशेवर कहिए, व्यवहारिक कहिए। पर जीवन के भीतर से उत्तर आना चाहिए। इसके लिए विद्यार्थी का उदाहरण राम लक्ष्मण का और गुरु का उदाहरण विश्वामित्र का लेना चाहिए। विश्वामित्र यज्ञ करते थे उनकी रक्षा के लिए उन्होंने दशरथ के लड़कों की याचना की। इसी काम के लिए दशरथ ने लड़कों को भेजा। लड़कों में भी यह जिम्मेदारी की भावना थी कि हम यज्ञ रक्षा के ‘काम’ के लिए जाते हैं। उसमें उन्हें अपूर्व शिक्षा मिली। पर यह बताना हो कि राम लक्ष्मण ने क्या किया तो कहना होगा की यज्ञ रक्षा की ‘शिक्षा प्राप्त की’ नहीं कहा जाएगा। पर शिक्षा उन्हें मिली जो मिलनी ही थी!
शिक्षा कर्तव्य-कर्म का आनुषंगिक फल है। जो कोई कर्तव्य करता है, उसे जाने अनजाने वह मिलता ही है। लड़कों को भी वह उसी तरह मिलना चाहिए। औरों को वह ठोकरें खा खा कर मिलता है। छोटे लड़कों में आज इतनी शक्ति नहीं आई है,इसीलिए उनके आसपास ऐसा वातावरण बनाना चाहिए कि वेबहुत ठोकरें न खाने पाएँ और धीरे-धीरे स्वावलंबी बनें ऐसी अपेक्षा और योजना होनी चाहिए। शिक्षा फल है और ‘मां फलेषु कदाचन’ यह मर्यादा इस फल के लिए भी लागू है। खास शिक्षा के लिए कोई कर्म करना यह भी सकाम हुआ और उसमें भी ‘इदमद्य मया लब्धम्’ -आज मैंने यह पाया, ‘इदं प्राप्स्ये ‘ -कल वह पाऊँगा, इत्यादि वासनाएँ आती ही हैं। इसलिए इस ‘शिक्षा मोह’ से छूटना चाहिए। इस मोह से जो छूटा उसे सर्वोत्तम शिक्षा मिली समझनी चाहिए। मां बीमार है, उसकी सेवा करने में मुझे खूब शिक्षा मिलेगी। पर इस शिक्षा के लोभ से मुझे माता की सेवा नहीं करनी है। वह तो मेरा पवित्र कर्तव्य है। इस भावना से मुझे माता की सेवा करनी चाहिए। अथवा माता बीमार है और उसकी सेवा करने से मेरी दूसरी चीज जिसे मैं शिक्षा समझता हूँ वह जाती है तो इस शिक्षा की नष्ट होने के डर से मुझे माता की सेवा नहीं टालनी चाहिए।
प्राथमिक महत्त्व के जीवनापयोगी परिश्रम को शिक्षा में स्थान मिलना चाहिए। कुछ शिक्षा शास्त्रियों का इस पर कहना है कि ये परिश्रम शिक्षा की दृष्टि से ही दाखिल किए जाएँ, पेट भरने की दृष्टि से नहीं। आज ‘पेट भरने का’ जो विकृत अर्थ प्रचलित है, उससे घबड़ाकर यह कहा जाता है और उस हद तक वह ठीक है। पर मनुष्य को ‘पेट’ देने में ईश्वर का हेतु है। ईमानदारी से ‘पेट भरना’ अगर मनुष्य साध ले तो समाज के बहुतेरे दुःख और पातक नष्ट ही हे जायें। इससे मनु ने ‘योषर्थशुचिः’ – जो आर्थिकदृष्टि से पवित्र है, वही पवित्र है, यह उद्गार प्रकट किया है। ‘सर्वेषामविरोधेन’ कैसे जियें, इस शिक्षा में सारा सीखना समा जाता है। अविरोधवृत्ति से शरीर – यात्रा करना मनुष्य का प्रथम कर्तव्य है। यह कर्तव्य करना ही उसकी आध्यात्मिक उन्नति होगी। इसी से शरीर – यात्रा के लिए उपयोगी परिश्रम करने को ही शास्त्रकारों ने ‘यज्ञ’ नाम दिया है। उदर भरण नोहे जाणिजे यज्ञकर्म – यह उदर भरण नहीं है, इसे ‘यज्ञ-कर्मजान’, वामन पंडित का यह वचनप्रसिद्ध है। अतः मैं शरीर – यात्रा के लिए परिश्रम करता हूँ, यह भावना उचित है। शरीर यात्रा से मतलब अपने साढ़े तीन हाथ के शरीर की यात्रा न समझकर समाज – शरीर की यात्रा, यह उदार अर्थ मन में बैठना चाहिए। मेरी शरीर – यात्रा अर्थात्त् समाज की सेवा और इसीलिए ईश्वर की पूजा इतना समीकरण दृढ़ होना चाहिए। यह भावना हर एक में होनी चाहिए। इसलिए वह छोटे बच्चों में भी होनी चाहिए। इसके लिए उनकी शक्ति भर उन्हें जीवन में भाग लेने का मौका देना चाहिए और जीवन को मुख्य केन्द्र बनाकर उसके आस-पास आवश्यकतानुसार सारे शिक्षण की रचना करनी चाहिए।
इससे जीवन के दो खण्ड न होंगे। जीवन की जिम्मेदारी अचानक आ पड़ने से उत्पन्न होने वली कठिनाई पैदा न होगी। अनजाने शिक्षा मिलती रहेगी पर सीखने का मोह नहीं चिपकेगा और निष्काम कर्म की ओर प्रवृत्ति रहे।
सारांश
विनोबा जी का निबंध “जीवन और शिक्षण” आज की शिक्षा पद्धति की कमियों को उजागर करता है, जो जीवन से अलग होकर केवल किताबी ज्ञान पर केंद्रित है। यह जीवन की जिम्मेदारियों के लिए तैयार नहीं करती, जिससे युवा भविष्य के लक्ष्यों को समझने और उनकी तैयारी में असफल रहते हैं। विनोबा जी शिक्षा में जीवन के प्रत्यक्ष अनुभवों को शामिल करने पर बल देते हैं, ताकि बच्चे स्वावलंबी बनें और जीवन को आनंदमय समझें। शिक्षा को कर्तव्य-कर्म का हिस्सा बनाना चाहिए, जैसा कि भगवद्गीता और राम-लक्ष्मण के उदाहरणों से स्पष्ट है।
शब्दार्थ
हिंदी शब्द | हिंदी अर्थ | तमिल अर्थ | English Meaning |
प्रकाण्ड | महान, विद्वान | மகத்தான | Eminent |
कोविद | विद्वान, जानकार | அறிஞர் | Scholar |
आडम्बरहीन | दिखावे से रहित | ஆடம்பரமற்ற | Unpretentious |
सूत्रबद्ध | संक्षिप्त और गहन | சூத்திரமான | Aphoristic |
रुढ़िगत | परंपरागत | மரபுவழி | Traditional |
अंधविश्वास | अंधा विश्वास | மூடநம்பிக்கை | Superstition |
चुटकी | व्यंग्य, हल्का तंज | கிண்டல் | Pinch (sarcasm) |
सुबोध | समझने में आसान | புரிந்துகொள்ளக்கூடிய | Comprehensible |
विचित्र | अजीब, असामान्य | விசித்திரமான | Strange |
गैर जिम्मेदार | गैर-जिम्मेदारी वाला | பொறுப்பற்ற | Irresponsible |
हनुमान-कूद | अचानक बड़ा प्रयास | பெரிய முயற்சி | Leap of Hanuman |
कुम्हलाना | मुरझाना | வாடுதல் | Wilt |
कलह | झगड़ा, संघर्ष | சண்டை | Conflict |
सहकार | सहयोग | ஒத்துழைப்பு | Cooperation |
पेशेवर | व्यवसायिक | தொழில்முறை | Professional |
स्वावलंबी | आत्मनिर्भर | சுயமாக நிற்பவர் | Self-reliant |
आनुषंगिक | सहायक, गौण | துணை | Incidental |
पातक | पाप, अपराध | பாவம் | Sin |
यज्ञ | धार्मिक कर्म | யாகம் | Sacrifice (ritual) |
अविरोधवृत्ति | बिना विरोध की प्रवृत्ति | எதிர்ப்பற்ற பண்பு | Non-oppositional attitude |
जीवन और शिक्षण के प्रश्न
- जीवन और शिक्षण का महत्त्व समझाइए।
उत्तर – पाठ के अनुसार, जीवन और शिक्षण का महत्त्व यह है कि ये दोनों एक-दूसरे से जुड़े हुए और अविभाज्य होने चाहिए। शिक्षण का उद्देश्य व्यक्ति को जीवन-यापन के उपायों का ज्ञान कराना और उसे जीवन की ज़िम्मेदारी के लिए तैयार करना है। जिस शिक्षा से जीवन के प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त नहीं होते, वह अपूर्ण है और मनुष्य को जीवन को एक भयानक वस्तु समझने के लिए मजबूर कर देती है। सही शिक्षा जीवन की ज़िम्मेदारी को एक आनंद से ओत-प्रोत वस्तु में बदल देती है और निष्काम कर्म की ओर प्रवृत्त करती है।
- जीवन में शिक्षण का स्थान क्या है?
उत्तर – विनोबा जी के अनुसार, जीवन में शिक्षण का स्थान अलग से नहीं होना चाहिए। शिक्षण जीवन क्षेत्र में ही मिलना चाहिए। यह कर्तव्य-कर्म का आनुषंगिक फल है। बच्चों को जीवन जीने और व्यवहार में काम करने का मौका देना चाहिए, और उसी दौरान ज़रूरत के अनुसार उन्हें ज्ञान (जैसे सृष्टि-शास्त्र, पाक-शास्त्र आदि) दिया जाना चाहिए। शिक्षण को जीवन से अलग रखना, लेखक के अनुसार, मृत्यु की तैयारी के समान है, क्योंकि यह व्यक्ति को जीवन की ज़िम्मेदारियों के लिए गैर-जिम्मेदार बना देता है।
- विनोबा भावे का जीवन और शिक्षण के बार में क्या विचार है?
उत्तर – विनोबा भावे के मुख्य विचार इस प्रकार हैं –
जीवन और शिक्षण अभिन्न हैं – शिक्षा को जीवन से अलग नहीं किया जाना चाहिए, अन्यथा जीवन के दो टुकड़े हो जाते हैं (एक टुकड़ा सिर्फ़ शिक्षा का, दूसरा सिर्फ़ जीवन का)।
वर्तमान शिक्षा का दोष – आज की शिक्षा का सबसे बड़ा दोष यह है कि आधी आयु तक मनुष्य यह समझ नहीं पाता कि उसे किस प्रकार की तैयारी की आवश्यकता है, यानी यह जीवन-यापन के उपायों का ज्ञान नहीं कराती।
सीधी जिम्मेदारी – शिक्षा मनुष्य को सम्पूर्ण गैर-जिम्मेदारी से सम्पूर्ण जिम्मेदारी में अचानक कूदने के लिए मजबूर करती है, जो कि अनुचित है।
शिक्षण का माध्यम – शिक्षा जीवन के प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त करा देने वाली होनी चाहिए।
ज्ञान का फल – जो ज़िंदगी की जिम्मेदारी से वंचित हुआ है, वह सारे शिक्षण का फल गँवा बैठा।
निष्काम कर्म – शिक्षा का मोह छोड़कर, पवित्र कर्तव्य भावना से कर्म करना चाहिए। शिक्षा तो कर्तव्य-कर्म का आनुषंगिक फल है।
- महात्मा गांधी के सिद्धांतों पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर – इस दिए गए पाठ ‘जीवन और शिक्षण’ में महात्मा गांधी के सिद्धांतों का प्रत्यक्ष उल्लेख या टिप्पणी नहीं की गई है। हालांकि, विनोबा भावे महात्मा गांधी के परम अनुयायी और उनके विचारों से अत्यधिक प्रभावित थे।
- विनोबा के अनुसार वर्तमान शिक्षा कैसी होनी चाहिए।
उत्तर – विनोबा जी के अनुसार वर्तमान शिक्षा निम्नलिखित बातों पर आधारित होनी चाहिए –
जीवन को केंद्र बनाना – जीवन को मुख्य केंद्र बनाकर उसके आस-पास आवश्यकतानुसार सारे शिक्षण की रचना करनी चाहिए।
प्रत्यक्ष अनुभव – शिक्षा में जीवन के प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त करा देने की आवश्यकता पर बल देना चाहिए।
परिश्रम को स्थान – प्राथमिक महत्त्व के जीवनापयोगी परिश्रम को शिक्षा में स्थान मिलना चाहिए (पेट भरने की दृष्टि से नहीं, बल्कि यज्ञ-कर्म/समाज सेवा की भावना से)।
मार्ग-दर्शन – बच्चों को जीवन जीने दो, व्यवहार में काम करने दो, और उनके आस-पास ज़रूरत के अनुसार मार्ग-दर्शन करने वाले शिक्षक हों, जो स्वयं भी ‘जीवन जीने वाले’ हों।
निष्काम शिक्षा – ‘शिक्षा मोह’ से छूटना चाहिए। शिक्षा को कर्तव्य-कर्म का आनुषंगिक फल समझना चाहिए, न कि किसी लोभ या वासना का कारण।
- विनोबा के जीवन दर्शन पर पाँच वाक्य लिखिए।
उत्तर – विनोबा जी के जीवन दर्शन पर पाँच वाक्य –
उनका जीवन दर्शन सरल, सुलझा हुआ और तर्कसंगत विचारों पर आधारित है, जिनमें नपे-तुले और आडम्बरहीन शब्दों का प्रयोग होता है।
वे मानते हैं कि जीवन की जिम्मेदारी कोई डरावनी चीज नहीं, बल्कि आनंद से ओत-प्रोत है, बशर्ते ईश्वर की सरल योजना को ध्यान में रखा जाए।
उनका दर्शन जीवन और शिक्षण की एकात्मकता पर बल देता है, जहाँ जीवन के अनुभव ही सच्ची शिक्षा प्रदान करते हैं।
वे समाजगत बुराइयों और अंधविश्वासों के प्रति केवल चुटकी लेकर मौन नहीं होते, बल्कि उनके समुचित समाधान भी प्रस्तुत करते हैं।
वे निष्काम कर्म की भावना को महत्त्व देते हैं, जिसके अनुसार शिक्षा पवित्र कर्तव्य करने का स्वाभाविक (आनुषंगिक) फल है, न कि कर्म का लक्ष्य।
- जीवन और शिक्षण पाठ का सारांश लिखिए।
उत्तर – ‘जीवन और शिक्षण’ निबंध में विनोबा भावे ने जीवन और शिक्षा के अटूट संबंध पर ज़ोर दिया है। वह वर्तमान शिक्षा पद्धति को दोषपूर्ण मानते हैं क्योंकि यह मनुष्य को जीवन-यापन के उपायों का ज्ञान नहीं कराती और जीवन को दो टुकड़ों में विभाजित कर देती है – पहले शिक्षा और बाद में जीवन की ज़िम्मेदारी। उनके अनुसार, यह स्थिति युवक को भविष्य के लिए तैयार नहीं कर पाती और उसे जीवन एक ‘भयानक वस्तु’ लगने लगता है।
लेखक शिक्षा को कर्तव्य-कर्म का आनुषंगिक फल मानते हैं, जो कि जीवन क्षेत्र में ही मिलनी चाहिए। बच्चों को सीधे जीवन के कार्य (जैसे खेती, रसोई) में भाग लेने देना चाहिए और आवश्यकतानुसार ज्ञान देना चाहिए। वे जोर देते हैं कि शिक्षा का उद्देश्य जीवन की ज़िम्मेदारी का भान कराना है, जो वास्तव में आनंद से भरी हुई है। अंत में, वह प्राथमिक महत्त्व के जीवनापयोगी परिश्रम को शिक्षा में स्थान देने की वकालत करते हैं, जिससे समाज-सेवा और ईश्वर-पूजा की भावना से अविरोधवृत्ति से जीवन यापन किया जा सके।
II) सही या गलत चुनकर लिखिए
1 विनोबा जी के विचार, वाणी और आचार की एकरूपता संत प्रमाणित करती है
उत्तर – सही (विचारों का सुलझा होना, कथन का स्पष्ट और संक्षिप्त होना उनके संत-चरित्र को दर्शाता है।)
2 जिंदगी की जिम्मेदारी कोई निरी मौत नहीं है
उत्तर – सही
- अनुभव के अभाव में यह सारा ‘हौआ’ है
उत्तर – सही (जीवन की जिम्मेदारी या मौत, अनुभव के अभाव में ही ‘हौआ’ लगती है।)
- जीवन और मरण दोनों आनंद की वस्तु होनी चाहिए
उत्तर – सही
- प्राथमिक महत्त्व के जीवनापयोगी परिश्रम को शिक्षा में स्थान मिलना चाहिए
उत्तर – सही
6 भगवान ने अर्जुन से कुरुक्षेत्र में भगवद्गीता कहीं।
उत्तर – सही
7 जिन्दगी की जिम्मेदारी कोई निरी मौत है।
उत्तर – गलत (पाठ में लिखा है – “जिंदगी की जिम्मेदारी कोई निरी मौत नहीं है।”)
8 जिन्दगी की जिम्मेदारी कोई डरावनी चीज नहीं है।
उत्तर – सही
9 शिक्षा कर्तव्य कर्म का आकर्षक फल नहीं है।
उत्तर – गलत (पाठ के अनुसार, “शिक्षा कर्तव्य-कर्म का आनुषंगिक फल है”, न कि आकर्षक फल।)
III) खाली जगह भरिए
1 जीवन और शिक्षण समाज को _________ करने के लिए बाध्य करता है।
उत्तर – आत्म-परीक्षण
2 आज की आवाज में थोड़ी _________ थी।
उत्तर – चिंता
3 शिक्षा का कर्तव्य कर्म का _________ फल है।
उत्तर – आनुषंगिक
बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर
- विनोबा जी की भाषा की विशेषता क्या थी?
a) जटिल और आडम्बरपूर्ण
b) सरल, सुबोध और स्पष्ट
c) केवल संस्कृत में
d) लंबी और अस्पष्ट
उत्तर – b) सरल, सुबोध और स्पष्ट - विनोबा जी ने आज की शिक्षा का सबसे बड़ा दोष क्या बताया?
a) यह बहुत महँगी है
b) यह जीवन-यापन के लिए तैयार नहीं करती
c) यह केवल किताबी ज्ञान देती है
d) यह बच्चों को आलसी बनाती है
उत्तर – b) यह जीवन-यापन के लिए तैयार नहीं करती - लेख के अनुसार आज की शिक्षा पद्धति के कारण जीवन में क्या होता है?
a) जीवन सुखमय हो जाता है
b) जीवन के दो टुकड़े हो जाते हैं
c) जीवन और शिक्षा एक हो जाते हैं
d) जीवन आसान हो जाता है
उत्तर – b) जीवन के दो टुकड़े हो जाते हैं - लेख में शिक्षा और जीवन के संबंध को किसके द्वारा समझाया गया है?
a) भगवद्गीता और अर्जुन
b) शिवाजी और वाल्मीकि
c) न्यूटन और वैज्ञानिक
d) राम और लक्ष्मण
उत्तर – a) भगवद्गीता और अर्जुन - विनोबा जी ने शिक्षा में किसे शामिल करने पर बल दिया?
a) किताबी ज्ञान
b) जीवन के प्रत्यक्ष अनुभव
c) केवल नैतिक शिक्षा
d) धार्मिक शिक्षा
उत्तर – b) जीवन के प्रत्यक्ष अनुभव - लेख में “हनुमान-कूद” का क्या अर्थ है?
a) अचानक जिम्मेदारी लेना
b) धीरे-धीरे प्रगति करना
c) आलस्य करना
d) किताबी ज्ञान प्राप्त करना
उत्तर – a) अचानक जिम्मेदारी लेना - लेख के अनुसार जीवन को भयानक समझने का कारण क्या है?
a) धन की कमी
b) शिक्षा का जीवन से अलग होना
c) सामाजिक समस्याएँ
d) अंधविश्वास
उत्तर – b) शिक्षा का जीवन से अलग होना - विनोबा जी ने बच्चों को शिक्षा में क्या करने की सलाह दी?
a) केवल किताबें पढ़ने की
b) जीवन जीने और कर्तव्य करने की
c) केवल नैतिकता सिखाने की
d) प्रतियोगिताओं में भाग लेने की
उत्तर – b) जीवन जीने और कर्तव्य करने की - लेख में जीवन की जिम्मेदारी को क्या बताया गया है?
a) डरावनी चीज
b) आनंद से भरी चीज
c) बोझिल कार्य
d) असंभव कार्य
उत्तर – b) आनंद से भरी चीज - लेख में शिक्षा को किसका आनुषंगिक फल कहा गया है?
a) किताबी ज्ञान का
b) कर्तव्य-कर्म का
c) धन संचय का
d) सामाजिक कार्य का
उत्तर – b) कर्तव्य-कर्म का - विनोबा जी ने बच्चों को किस तरह का वातावरण देने की बात कही?
a) किताबी ज्ञान से भरा
b) मार्गदर्शन और स्वावलंबन वाला
c) प्रतियोगी और तनावपूर्ण
d) धार्मिक और रूढ़िगत
उत्तर – b) मार्गदर्शन और स्वावलंबन वाला - लेख में शिक्षा का उद्देश्य क्या बताया गया है?
a) केवल डिग्री प्राप्त करना
b) जीवन जीने की तैयारी करना
c) धन कमाना
d) सामाजिक प्रतिष्ठा पाना
उत्तर – b) जीवन जीने की तैयारी करना - लेख में “ततः किम्” का क्या अर्थ है?
a) भविष्य का सवाल
b) वर्तमान की चिंता
c) अतीत का विश्लेषण
d) धार्मिक प्रश्न
उत्तर – a) भविष्य का सवाल - विनोबा जी ने जीवन को कैसी वस्तु बताया?
a) भयानक और जटिल
b) आनंद और शिक्षा से भरी
c) केवल संघर्षपूर्ण
d) अर्थहीन और दुखद
उत्तर – b) आनंद और शिक्षा से भरी - लेख में राम और लक्ष्मण के उदाहरण से क्या समझाया गया है?
a) यज्ञ रक्षा का महत्त्व
b) शिक्षा का कर्तव्य-कर्म से संबंध
c) धार्मिक शिक्षा का महत्त्व
d) सैन्य प्रशिक्षण का महत्त्व
उत्तर – b) शिक्षा का कर्तव्य-कर्म से संबंध - लेख में जीवन की तुलना किससे की गई है?
a) युद्ध के मैदान से
b) शरीर की वृद्धि से
c) किताबी ज्ञान से
d) धन संचय से
उत्तर – b) शरीर की वृद्धि से - लेख के अनुसार शिक्षा में क्या शामिल करना चाहिए?
a) केवल सैद्धांतिक ज्ञान
b) जीवनापयोगी परिश्रम
c) केवल नैतिक शिक्षा
d) धार्मिक अनुष्ठान
उत्तर – b) जीवनापयोगी परिश्रम - लेख में “शिक्षा मोह” से क्या तात्पर्य है?
a) शिक्षा के प्रति प्रेम
b) शिक्षा के लिए लालच
c) शिक्षा का डर
d) शिक्षा की अनदेखी
उत्तर – b) शिक्षा के लिए लालच - विनोबा जी ने शिक्षक की भूमिका को कैसे परिभाषित किया?
a) केवल ज्ञान देने वाला
b) जीवन जीने और मार्गदर्शन करने वाला
c) सख्त नियम लागू करने वाला
d) किताबी ज्ञान पढ़ाने वाला
उत्तर – b) जीवन जीने और मार्गदर्शन करने वाला - लेख में “यज्ञ-कर्म” का क्या अर्थ है?
a) धार्मिक अनुष्ठान
b) समाज की सेवा के लिए परिश्रम
c) व्यक्तिगत लाभ के लिए कार्य
d) केवल पूजा-पाठ
उत्तर – b) समाज की सेवा के लिए परिश्रम
अति लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर
विनोबा जी के व्यक्तित्व से संबंधित प्रश्न
- प्रश्न – विनोबा भावे किस विषय के प्रकाण्ड पंडित थे?
उत्तर – विनोबा भावे संस्कृत के प्रकाण्ड पंडित थे। - प्रश्न – विनोबा जी की मातृभाषा कौन-सी थी?
उत्तर – विनोबा जी की मातृभाषा मराठी थी। - प्रश्न – विनोबा जी को कितनी भाषाओं का ज्ञान था?
उत्तर – विनोबा जी को भारत की लगभग सभी प्रमुख भाषाओं का ज्ञान था। - प्रश्न – विनोबा जी की भाषा शैली कैसी थी?
उत्तर – उनकी भाषा सरल, सुबोध, तर्कसंगत और संक्षिप्त होती थी। - प्रश्न – उनके वाक्यों में कौन-सा विशेष गुण पाया जाता है?
उत्तर – उनके वाक्य सूत्रबद्ध होते हैं जिनमें गहन आशय छिपा होता है। - प्रश्न – समाज की बुराइयों के प्रति विनोबा जी का दृष्टिकोण कैसा था?
उत्तर – वे समाज की बुराइयों पर हल्की चुटकी लेकर भी उनके समाधान प्रस्तुत करते थे। - प्रश्न – विनोबा जी की वाणी का प्रमुख प्रभाव क्या था?
उत्तर – उनकी वाणी आत्म-परीक्षण के लिए प्रेरित करती थी।
निबंध के विषय से संबंधित प्रश्न
- प्रश्न – “जीवन और शिक्षण” निबंध का मुख्य विषय क्या है?
उत्तर – इस निबंध का मुख्य विषय जीवन और शिक्षा के बीच संबंध स्थापित करना है। - प्रश्न – विनोबा जी के अनुसार आज की शिक्षा का सबसे बड़ा दोष क्या है?
उत्तर – उनके अनुसार आज की शिक्षा में जीवन-यापन का ज्ञान नहीं दिया जाता। - प्रश्न – आधुनिक शिक्षा के कारण मनुष्य की क्या स्थिति हो गई है?
उत्तर – आधुनिक शिक्षा के कारण मनुष्य जीवन को भयानक और कठिन समझने लगा है। - प्रश्न – विनोबा जी ने जीवन और शिक्षा के बीच किस प्रकार का संबंध बताया है?
उत्तर – उन्होंने बताया कि शिक्षा को जीवन से अलग नहीं किया जाना चाहिए। - प्रश्न – शिक्षा और जीवन के बीच विभाजन का परिणाम क्या होता है?
उत्तर – इससे व्यक्ति जीवन के प्रति गैर-जिम्मेदार हो जाता है। - प्रश्न – विनोबा जी ने शिक्षण पद्धति की तुलना किससे की है?
उत्तर – उन्होंने वर्तमान शिक्षण पद्धति की तुलना “हनुमान-कूद” से की है। - प्रश्न – ‘हनुमान-कूद’ से लेखक का क्या तात्पर्य है?
उत्तर – इसका अर्थ है — सम्पूर्ण गैर-जिम्मेदारी से अचानक पूरी जिम्मेदारी में कूद पड़ना। - प्रश्न – विनोबा जी के अनुसार यह कूद क्यों खतरनाक है?
उत्तर – क्योंकि इसमें व्यक्ति मानसिक रूप से तैयार नहीं होता और जीवन में असफलता पाता है।
शिक्षा की त्रुटियों से संबंधित प्रश्न
- प्रश्न – लेखक के अनुसार विद्यार्थी जीवन में सबसे बड़ी कमी क्या है?
उत्तर – विद्यार्थी भविष्य की जिम्मेदारियों के प्रति तैयार नहीं होता। - प्रश्न – निबंध में “आगे देखा जाएगा” वाक्यांश से क्या अभिप्राय है?
उत्तर – यह छात्रों की भविष्य के प्रति लापरवाही और टालमटोल की प्रवृत्ति दर्शाता है। - प्रश्न – विनोबा जी ने “ततः किम्” शब्द का प्रयोग किस अर्थ में किया है?
उत्तर – उन्होंने इसका प्रयोग जीवन के अंतिम उद्देश्य पर प्रश्न उठाने के लिए किया है। - प्रश्न – आधुनिक विद्यार्थी जीवन के प्रति कब गंभीर होता है?
उत्तर – जब जिम्मेदारी उसके सामने आ खड़ी होती है। - प्रश्न – शिक्षा को जीवन से अलग रखने का परिणाम क्या होता है?
उत्तर – इससे शिक्षा मृत ज्ञान बन जाती है और जीवन में उसका कोई उपयोग नहीं होता।
गीता और अर्जुन के उदाहरण से संबंधित प्रश्न
- प्रश्न – विनोबा जी ने भगवद्गीता का उदाहरण क्यों दिया है?
उत्तर – यह बताने के लिए कि सच्ची शिक्षा जीवन के कर्म-क्षेत्र में ही मिलती है। - प्रश्न – अर्जुन को गीता कब समझ में आई?
उत्तर – जब वह जीवन के कर्म-क्षेत्र यानी युद्धभूमि में खड़ा था। - प्रश्न – अर्जुन और आधुनिक विद्यार्थी में क्या अंतर बताया गया है?
उत्तर – अर्जुन ने जिम्मेदारी उठाकर ज्ञान पाया, जबकि आधुनिक विद्यार्थी जिम्मेदारी से भागता है।
जीवन और जिम्मेदारी से जुड़े प्रश्न
- प्रश्न – विनोबा जी ने जीवन की जिम्मेदारी को किस रूप में देखा है?
उत्तर – उन्होंने जीवन की जिम्मेदारी को आनंद और शिक्षा से भरा हुआ बताया है। - प्रश्न – जीवन की जिम्मेदारी से डरने का कारण क्या है?
उत्तर – अनुभव के अभाव और गलत कल्पनाओं के कारण मनुष्य जिम्मेदारी से डरता है। - प्रश्न – ईश्वर की योजना के विषय में विनोबा जी का क्या विचार है?
उत्तर – ईश्वर की योजना प्रेमपूर्ण और न्यायसंगत है; उसने हर आवश्यक वस्तु सुलभ बनाई है। - प्रश्न – जीवन को सुखमय बनाने के लिए लेखक ने क्या उपाय बताया है?
उत्तर – वासनाओं को दबाकर ईश्वर की बनाई सरल योजना के अनुसार जीवन जीना। - प्रश्न – जीवन के प्रति दुष्ट कल्पना क्या कहलाती है?
उत्तर – यह मान लेना कि जीवन कलह और कष्ट से भरा है, दुष्ट कल्पना है।
सच्चे शिक्षण की अवधारणा से संबंधित प्रश्न
- प्रश्न – लेखक के अनुसार सच्चा शिक्षण क्या है?
उत्तर – सच्चा शिक्षण वही है जो जीवन के प्रत्यक्ष अनुभवों से प्राप्त हो। - प्रश्न – बच्चों को शिक्षा कैसे दी जानी चाहिए?
उत्तर – उन्हें जीवन जीने का अवसर देकर और अनुभव के साथ शिक्षित किया जाना चाहिए। - प्रश्न – लेखक ने शिक्षण का उदाहरण किससे दिया है?
उत्तर – उन्होंने शिक्षण का उदाहरण खेत, रसोई और व्यवहार से दिया है। - प्रश्न – राम और लक्ष्मण के उदाहरण से लेखक क्या समझाना चाहते हैं?
उत्तर – वे बताते हैं कि शिक्षा कर्तव्य के पालन से अपने आप मिलती है। - प्रश्न – लेखक के अनुसार शिक्षा किसका फल है?
उत्तर – शिक्षा कर्तव्य-कर्म का स्वाभाविक फल है। - प्रश्न – निष्काम कर्म और शिक्षा का क्या संबंध है?
उत्तर – निष्काम कर्म से सच्ची शिक्षा स्वतः प्राप्त होती है। - प्रश्न – शिक्षा के मोह से मुक्त होने का क्या अर्थ है?
उत्तर – इसका अर्थ है ज्ञान प्राप्ति के लोभ से ऊपर उठकर कर्तव्यभाव से कर्म करना।
जीवनोपयोगी परिश्रम और शिक्षा से संबंधित प्रश्न
- प्रश्न – शिक्षा में किन परिश्रमों को स्थान देना चाहिए?
उत्तर – शिक्षा में जीवनोपयोगी परिश्रम जैसे खेती, सेवा आदि को स्थान देना चाहिए। - प्रश्न – ईमानदारी से ‘पेट भरना’ क्यों आवश्यक है?
उत्तर – क्योंकि यह मनुष्य की आर्थिक पवित्रता और सामाजिक शुद्धता का प्रतीक है। - प्रश्न – लेखक ने “यज्ञ-कर्म” शब्द का क्या अर्थ बताया है?
उत्तर – जीवनोपयोगी परिश्रम को उन्होंने ‘यज्ञ-कर्म’ कहा है। - प्रश्न – शरीर-यात्रा का उदार अर्थ क्या है?
उत्तर – शरीर-यात्रा का अर्थ समाज की सेवा और ईश्वर की पूजा करना है। - प्रश्न – विनोबा जी का अंतिम संदेश क्या है?
उत्तर – जीवन को ही शिक्षा का केंद्र बनाकर, कर्तव्य और आनंद के साथ जीना ही सच्चा शिक्षण है।
लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर
- विनोबा जी ने आज की शिक्षा पद्धति की क्या कमी बताई?
उत्तर – विनोबा जी ने कहा कि आज की शिक्षा जीवन से अलग है और जीवन-यापन के लिए आवश्यक तैयारी नहीं कराती। यह केवल किताबी ज्ञान देती है, जिससे युवा भविष्य के लक्ष्यों और जिम्मेदारियों के लिए तैयार नहीं हो पाते। - लेख में “हनुमान-कूद” से क्या तात्पर्य है?
उत्तर – “हनुमान-कूद” से तात्पर्य अचानक गैर-जिम्मेदारी से पूर्ण जिम्मेदारी में कूदने से है। यह शिक्षा पद्धति की कमी दर्शाता है, जो जीवन की जिम्मेदारियों के लिए धीरे-धीरे तैयार नहीं करती, जिससे युवा असफल हो सकते हैं। - विनोबा जी ने शिक्षा में जीवन के अनुभवों को क्यों महत्त्वपूर्ण माना?
उत्तर – विनोबा जी ने जीवन के प्रत्यक्ष अनुभवों को महत्त्वपूर्ण माना क्योंकि ये बच्चों को स्वावलंबी और जिम्मेदार बनाते हैं। इससे शिक्षा जीवन से जुड़ती है, और बच्चे कर्तव्य-कर्म के माध्यम से वास्तविक ज्ञान प्राप्त करते हैं। - लेख में भगवद्गीता के उदाहरण से क्या समझाया गया है?
उत्तर – भगवद्गीता के उदाहरण से समझाया गया कि शिक्षा जीवन के कर्तव्यों के बीच दी जानी चाहिए, जैसे अर्जुन को कुरुक्षेत्र में दी गई। यह जीवन की जिम्मेदारियों से अलग नहीं होनी चाहिए, बल्कि उनसे जुड़ी होनी चाहिए। - लेख में जीवन को आनंदमय क्यों बताया गया है?
उत्तर – जीवन को आनंदमय बताया गया क्योंकि यह ईश्वर की प्रेमपूर्ण योजना का हिस्सा है। आवश्यकताएँ सुलभ हैं, और जिम्मेदारियाँ डरावनी नहीं, बल्कि आनंद और शिक्षा से भरी हैं, यदि उन्हें सही दृष्टिकोण से अपनाया जाए। - विनोबा जी ने बच्चों को शिक्षा कैसे देने की सलाह दी?
उत्तर – विनोबा जी ने सलाह दी कि बच्चों को जीवन जीने और कर्तव्यों में शामिल करने से शिक्षा देनी चाहिए। खेत में काम, रसोई बनाना आदि अनुभवों से सिखाना चाहिए, जहाँ मार्गदर्शन उपलब्ध हो। - लेख में “शिक्षा मोह” से बचने की सलाह क्यों दी गई?
उत्तर – “शिक्षा मोह” से बचने की सलाह दी गई क्योंकि शिक्षा के लिए लालच सकाम कर्म को जन्म देता है। शिक्षा कर्तव्य-कर्म का आनुषंगिक फल होनी चाहिए, न कि केवल डिग्री या लाभ के लिए। - लेख में राम और लक्ष्मण के उदाहरण से क्या सीख मिलती है?
उत्तर – राम और लक्ष्मण के उदाहरण से सीख मिलती है कि शिक्षा कर्तव्य-कर्म के साथ मिलती है। विश्वामित्र के यज्ञ रक्षा के कार्य में उन्हें अनुभव से शिक्षा मिली, जो किताबी ज्ञान से नहीं मिल सकती। - लेख में जीवन की जिम्मेदारी को डरावना क्यों नहीं माना गया?
उत्तर – जीवन की जिम्मेदारी डरावनी नहीं है क्योंकि यह ईश्वर की प्रेमपूर्ण योजना का हिस्सा है। यह आनंद और शिक्षा से भरी है, यदि इसे अनुभव और सही दृष्टिकोण के साथ अपनाया जाए। - विनोबा जी ने शिक्षक की भूमिका को कैसे परिभाषित किया?
उत्तर – विनोबा जी ने शिक्षक को जीवन जीने वाला और मार्गदर्शन करने वाला बताया, न कि केवल ज्ञान देने वाला। शिक्षक का जीवन विचारमय होना चाहिए, जो बच्चों को कर्तव्यों के बीच सिखाने की योग्यता रखता हो।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर
- विनोबा जी ने आज की शिक्षा पद्धति की कमियों को कैसे उजागर किया?
उत्तर – विनोबा जी ने बताया कि आज की शिक्षा जीवन से अलग होकर केवल किताबी ज्ञान देती है, जो जीवन-यापन की तैयारी नहीं कराती। यह जीवन को दो हिस्सों में बाँट देती है—शिक्षा और जिम्मेदारी—जिससे युवा भविष्य के लिए तैयार नहीं हो पाते और जीवन को भयानक समझने लगते हैं। - लेख में भगवद्गीता और अर्जुन के उदाहरण से शिक्षा के बारे में क्या समझाया गया?
उत्तर – भगवद्गीता और अर्जुन के उदाहरण से समझाया गया कि शिक्षा को जीवन के कर्तव्यों के बीच देना चाहिए, न कि अलग से। अर्जुन को कुरुक्षेत्र में प्रत्यक्ष कर्तव्य के दौरान गीता का ज्ञान मिला। यह दर्शाता है कि शिक्षा जीवन के अनुभवों से जुड़ी होनी चाहिए, ताकि यह सार्थक हो। - विनोबा जी ने बच्चों को शिक्षा देने के लिए क्या विधि सुझाई?
उत्तर – विनोबा जी ने सुझाया कि बच्चों को जीवन जीने और कर्तव्यों में शामिल करके शिक्षा देनी चाहिए। खेत में काम, रसोई बनाना आदि अनुभवों से सिखाना चाहिए, जहाँ आवश्यकतानुसार मार्गदर्शन हो। यह उन्हें स्वावलंबी बनाता है और शिक्षा को जीवन से जोड़ता है। - लेख में जीवन को आनंदमय और शिक्षा से भरा क्यों माना गया?
उत्तर – जीवन को आनंदमय और शिक्षा से भरा माना गया क्योंकि यह ईश्वर की प्रेमपूर्ण योजना का हिस्सा है। आवश्यकताएँ सुलभ हैं, और जिम्मेदारियाँ डरावनी नहीं, बल्कि आनंद और शिक्षा देती हैं। सही दृष्टिकोण से जीवन और मरण दोनों आनंदमय हो सकते हैं। - विनोबा जी ने “यज्ञ-कर्म” को शिक्षा से कैसे जोड़ा?
उत्तर – विनोबा जी ने “यज्ञ-कर्म” को समाज की सेवा के लिए परिश्रम से जोड़ा, जो शिक्षा का आधार है। यह शरीर-यात्रा को समाज की सेवा और ईश्वर की पूजा से जोड़ता है। बच्चों को ऐसी शिक्षा देनी चाहिए, जिसमें परिश्रम और कर्तव्य के माध्यम से स्वावलंबन और आध्यात्मिक उन्नति हो।

