अहा बाल्य जीवन भी क्या हैं!
(1) प्रस्तावना – बाल्य जीवन की विशेषता
(2) बाल्य जीवन के आनंद–
(क) कोई चिन्ता नहीं होती।
(ख) कोई दायित्व नहीं होता।
(ग) मस्ती रहती है।
(घ) काल्पनिक दुनिया में विचरण होता है।
(ङ) रँगीली रचना में संलग्नता रहती है।
(3) बाल-सुलभ प्रवृत्तियाँ
(4) उपसंहार – सारांश
‘अहा बाल्य जीवन भी क्या है!’ बाल्यावस्था भी कैसी मनोरम अवस्था है। इसमें कितना आकर्षण, कितना माधुर्य, कितनी रमणीयता, कितनी सरसता है! बाल्य जीवन की समता कोई जीवन नहीं कर सकता। बालक विश्व की अनुपम विभूति है, विधाता की अद्वितीय रचना है, प्रकृति की अनूठी निधि है, माता- पिता के नेत्रों का तारा है, अँधेरे घर का प्रकाश है। उसमें दैवी प्रभा है, अलौकिक शक्ति है। वह संसार की कलुषित छाया से अछूता है। पवित्रता का प्रतीक है। वह झोंपड़ी और चिथड़ों में राज्य-सुख का अनुभव करता है। प्रकृति ने उसे चंचल और नटखट बनाया है। चुपचाप एक स्थान पर बैठना उसके लिए असंभव है। शक्ति आधिक्य के कारण वह कभी थकान का अनुभव नहीं करता और दिनभर कुदकता, फुदकता, कूदता, फाँदता, खेलता फिरता है।
बाल्य जीवन के अनेक आनंद हैं। बालक को किसी प्रकार की कोई चिन्ता नहीं होती। जब भूख लगी तब खाना खा लिया। जब प्यास लगी तब पानी पी लिया। खाने-पीने के जिस पदार्थ की रुचि हुई उसे मचल कर माता-पिता से प्राप्त कर लिया। कभी दहीबड़े की चाट खाई तो कभी भल्ले की। कभी कचौड़ी खाई तो कभी समौसा। कभी लाइमजूस पर पैसे खर्च किए तो कभी टाफी पर। कभी रसगुल्ला पर हाथ साफ किया तो कभी चमचम पर। कभी मलाई से रसनेन्द्रिय तृप्त की तो कभी लच्छेदार रबड़ी से। कभी आइसक्रीम का स्वाद लिया तो कभी सुगन्धित शर्बत का। कभी सेव खाया तो कभी संतरा। कभी आम खाया तो कभी अनार। कभी काजू खाया तो कभी अखरोट। कभी बादाम खाया तो कभी मूँगफली। इसी प्रकार मनोरंजन की इच्छित वस्तुएँ भी बालक को उपलब्ध हो जाती हैं। इसके लिए उसके पास रोना, मचलना एवं रूठना अमोघ साधन हैं। न उसे कमाई की चिन्ता है और न धन के सदु- पयोग की। दूध के कुल्ले करने में उसका मन मैला नहीं होता।
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बाल्य जीवन में कोई दायित्व नहीं होता। बालक पूर्णतया स्वच्छंद होता है। उस पर किसी प्रकार का कोई भार नहीं होता। न उसके जिम्मे कोई कार्य होता है और न कोई प्रबन्ध। वह अपने कार्यों के लिये अपने को किसी के प्रति उत्तरदायी भी नहीं समझता। इस प्रकार की चेतना उसमें होती ही नहीं। वह जो कुछ करता है ‘स्वान्तः सुखाय’ करता है, खेल-खेल में करता है। काम के बनने-बिगड़ने या परिणाम का उसे ज्ञान कहाँ ? खूब खाना, खूब खेलना और खूब घूमना-फिरना बचपन का प्रसाद है।
बाल्य जीवन में अजीव मस्ती रहती है। बालक सदैव प्रसन्न – चित्त एवं निश्चिन्त रहता है। वह खेल-कूद में मग्न रहता है और मौज से समय व्यतीत करता है। वह पागल की भाँति बेसुध होकर विभिन्न क्रीड़ाओं में संलग्न हो जाता है और भूख-प्यास को भूल जाता है। कभी-कभी तो वह इतना तल्लीन हो जाता है कि माता- पिता द्वारा भोजन के लिए बुलाने पर भी अपने खेल से विरत नहीं होता। देखिए बालक राम की दशा-
“भोजन करत बुलावत राजा।
नहीं आवत तजि बाल-समाजा॥”
बालक की दुनिया अलौकिक होती है। वह अतीन्द्रिय जगत् में सैर करता है, काल्पनिक दुनिया में विचरता है। उसकी दुनिया के नर-नारी हाड़-माँस के नहीं होते और न कभी मरते ही हैं। उन पर प्रकृति का कोई नियम लागू नहीं होता। न वे कुछ खाते हैं, न कुछ पीते हैं। फिर भी बहुत कार्य करते हैं, बालक के हाथ के खिलौने बनकर दिन भर क्रियाशील रहते हैं।
इस काल्पनिक दुनिया का निर्माता एवं नियामक स्वयं बालक ही होता है। बही अपनी स्वप्निल सृष्टि की रचना करता है। सारे दिन अपनी रंगीली रचना में तन्मयता के साथ जुटा रहता है। कल्पना की तूलिका से वह सुन्दर से सुन्दर रंग भरकर बढ़िया से बढ़िया चित्र उपस्थित करता है। उसकी बुद्धि विश्लेषणात्मक होती है। वह संसार की प्रत्येक वस्तु का विश्लेषणात्मक अध्ययन करता है। आप उसे कोई यंत्र दीजिए। वह उसके कल-पुर्जे खोलने का प्रयत्न करेगा। इस प्रकार के प्रयत्न में कभी-कभी यंत्र टूटकर बेकार भी हो जाएगा, जिसके लिए उसे दंड का भागी होना पड़ेगा।
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बाल्य जीवन में कतिपय प्रवृत्तियों की प्रमुखता रहती है। स्पर्द्धा ( होड़) करना बालकों का स्वभाव है। कोई बालक अपने को दूसरे से हीन नहीं समझता और न किसी को अपने से बढ़कर देख सकता है। देखिए बालक कृष्ण अपनी चोटी को बलदाऊ की चोटी से छोटा देखकर किस प्रकार माता यशोदा से प्रश्न कर रहे हैं-
“मैया कबहिं बढ़ेगी चोटी?
किती बार सोहि दूध पियत भई यह अजहूँ है छोटी॥”
खिजाने की प्रवृत्ति भी बालकों में पाई जाती है। चिढ़ाना उन्हें अच्छा लगता है। इसी प्रवृत्ति के कारण बच्चे प्रायः पागलों एवं बुड्ढों को बहुत चिढ़ाया करते हैं। निम्नांकित पंक्तियों में कृष्ण बलदाऊ द्वारा चिढ़ाए जाने की माता यशोदा से कर रहे हैं-
“मैया मोहिं दाऊ बहुत खिझायो।
मोसों कहत मोल को लीनों तू जसुमति कब जायो।”
हठ करना भी बाल-स्वभाव है। बाल हठ प्रसिद्ध है। इच्छा की पूर्ति न होने पर बालक प्रायः धरती पर लोट जाया करते हैं। देखिए बालक कृष्ण के ऐसा करने पर यशोदाजी उन्हें समझा रही हैं-
“कत हौ आरि करत मेरे मोहन यो तुम आँगन लोटी।”
चपलता भी बालकों की विशेष प्रवृत्ति है। मछली के समान बालकों का चित्त चंचल रहता है। बालक राम की चपलता का एक दृश्य देखिए-
“भोजन करत चपल चित, इत उत अवसर पाइ।
भाजि चले किलकात मुख, दधि ओदन लपटाइ ||”
नकल करना भी बाल-स्वभाव की एक विशेषता है। बालक अपने माता-पिता, भाई-बहिन, पड़ोसी आदि की नकल किया करते हैं। ऐसा करने में उन्हें बहुत आनंद आता है। नकली विवाह, नकली भोज, नकली दुकान आदि की योजना इस प्रवृत्ति का फल है।
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सारांश यह है कि बाल्य जीवन प्रत्युत्तम है। इसमें आनंद ही आनंद है। सिर पर न कोई भार रहता है और न कोई चिंता। पूर्ण स्वच्छंदता के साथ खेल-कूद में मन लगा रहता है। क्या संसार की कोई वस्तु बाल्य-जीवन की तुलना कर सकती है?