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18 वर्ष में मताधिकार का औचित्य

18 varsh me voting raght ka ouchita par ek nibandh

संकेत बिंदु – (1) पहली बार मतदान (2) मतदान की आयु का 18 वर्ष होना (3) छात्रों का सक्रिय राजनीति में योगदान (4) छात्रों द्वारा राजनीति का उपयोग (5) उपसंहार।

आज़ादी के बाद 26 जनवरी 1950 को भारत में संविधान लागू हुआ और इस दिन को गणतंत्र दिवस के नाम से जाना गया। डॉ. भीमराव अंबेडकर विश्व विख्यात विधिवेत्ता थे। भारत के संविधन की रूपरेखा तैयार करने में उन्होंने अथक प्रयास किया। भारतीय शासनतंत्र को प्रजातांत्रिक रूप देने में संविधान सभा के सभी सदस्य सहमत थे। इससे यह स्पष्ट हैं कि देश में जहाँ भिन्न भाषाएँ, भिन्न धर्म-वर्ग निवास करते हैं, प्रजातांत्रिक शासन व्यवस्था के साथ ही समन्वय रखा जा सकता है। इस व्यवस्था में देश के प्रत्येक व्यक्ति को देश में सरकार बनाने का अपना योगदान देने का अवसर मिला। 21 वर्ष के ऊपर के आयु के व्यक्ति बिना किसी भेदभाव के निर्वाचन में अपना मत देने का अधिकार रखता है और इसी मतदान प्रक्रिया से भारत में सरकार का गठन हुआ।

सन् 1952 में स्वतंत्र भारत का पहला चुनाव देश में संपन्न हुआ और इस चुनाव में लगभग 45.7 प्रतिशत मतदान हुआ। 1957 के चुनाव में 47.7 प्रतिशत, 1962 के चुनाव में 55.4 प्रतिशत, 1967 में 61.3 प्रतिशत, 1971 में 55.3 प्रतिशत, 1977 में 605 प्रतिशत, 1980 में 57 प्रतिशत, 1984 में 48.1 प्रतिशत रहा।

देश के प्रधानमंत्री श्री राजीव गाँधी ने मतदान का प्रतिशत बढ़ाने और अपनी पार्टी की प्रभुसत्ता बनाए रखने के लिए वर्ष 1989 में लोकसभा में एक बिल पास कराया जिसमें 18 वर्ष के लोगों को भी मतदान में सम्मिलित किया गया। लेकिन 1989 के चुनावों में मतदान का प्रतिशत 36.6 ही रह गया।

कल तक तो विश्वविद्यालय के छात्र ही जिनकी आयु 21 वर्ष होती थीं मतदान में भाग ले सकते थे और अब मतदान की आयु सीमा 18 वर्ष हो जाने से स्कूल-कॉलेज के छात्र भी मतदान में भाग लेने के अधिकारी हो गए। सरकार ने कुछ भी सोचा हो अगर परिणाम इसके विपरीत हुआ। एक तो मतदान का प्रतिशत पहले की अपेक्षा जबकि बढ़ना चाहिए था दूसरे स्कूलों-कॉलेजों के छात्रों में भी राजनीति ने खुलकर प्रवेश किया। यही नहीं छात्रों की पढ़ाई का प्रतिशत भी गिरा।

दूसरी ओर राजनीति के प्रबल रंग से प्रभावित होकर छात्र सड़कों पर भी आये परिणामस्वरूप किसी-न-किसी विवाद को लेकर देश की संपत्ति को हानि हुई। 1989 से अब तक के यदि कार्यकाल को देखा जाए तो विद्यार्थी वर्ग ने राजनीति में सक्रिय भाग लिया। इसी काल में आंदोलन भी अधिक हुए, तोड़फोड़ की घटनाएँ, आगजनी, पत्थरबाजी, इसी खुली राजनीति का परिणाम ही कहा जा सकता है।

मेरे विचार से यदि सरकार 18 वर्ष की आयु के व्यक्ति को मताधिकार के योग का अधिकार न देती तो संभवतः मंडल आयोग के विरोध में छात्रों का आत्मदाह व्यापक स्तर न होता। यह इसलिए संभव हुआ क्योंकि छात्र ने यह जान लिया कि उनके पास सरकार बनाने और सरकार हटाने का अधिकार आ गया है। वर्ष 1991 के चुनावों में छात्रों ने अपनी राजनीति का खुले रूप से उपयोग किया। इस प्रक्रिया से छात्रों की जो पढ़ाई की हानि हुई इसका अनुमान शायद ही किसी ने लगाया हो। नेता बन जाना तो हर व्यक्ति के लिए आसान होता है मगर योग्य व्यक्ति बनकर स्वयं को स्थापित करना जीवन की कसौटी माना जाता है। कक्षा 11 से 12 के छात्र जब अपने मताधिकार की बात कहता है तो मानो ऐसा लगता है कि जैसे उसने कोई ‘अल्लादीन का चिराग’ प्राप्त कर लिया हो। छात्र जब राजनीति की बात करता है तो वह यह भूल जाता है कि वह इस देश का भावी निर्माता भी है, देश की उन्नति का वह सहायक भी है।

18 वर्ष में मताधिकार का क्या औचित्य है, सरकार ने किस समझ का इसमें परिचय दिया है, यह समझ में बात नहीं आई। इस संदर्भ में तो केवल यहीं कहा जा सकता है कि तत्कालीन सरकार ने मतदान के प्रतिशत को ऊपर उठाने का प्रयास किया होगा और दूरगामी परिणामों पर ध्यान शायद नहीं दिया गया। यदि विद्यार्थी को राजनीति से दूर रखा जाएगा तो यह देश और विद्यार्थी दोनों के लिए ही हितकर होगा ऐसा मेरा अपना विचार है। अन्यथा कक्षा 11 व 12 का छात्र पढ़ने में कम राजनीति में अधिक रुचि होगी, जिसके भयंकर परिणाम भी देश के सामने आने लगेंगे।

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