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स्वतंत्र भारत के दस वर्ष (1957)

1957 ka bharat par nibandh

एक विद्वान का कथन है कि “देश की उन्नति उस समय रुक जाती है जबकि वह पराधीनता के पाश में जकड़ दिया गया हो और उसकी उन्नति उस समय से प्रारंभ हो जाती है जब उसमें स्वातन्त्र्य – भावना का उदय हो गया हो। स्वतंत्र होने के बाद से तो प्रायः उसकी उन्नति की गति बहुत तीव्र हो जाती है।” इन शब्दों में जो सच्चाई है, प्रायः प्रत्येक देश का इतिहास उसका समर्थन करता है। इंगलैंड रोम के शासन से मुक्त होने के बाद ही यूरोपियन राष्ट्रों का समकक्ष हो गया और बाद में उन्नति के शिखर पर पहुँच गया। जर्मनी के विभिन्न भागों को प्रिंस बिस्मार्क ने विदेशी शासन से मुक्त करके जब से एक किया तब उसका सितारा बुलन्द हो गया। मैजिनी, कावूर और गैरिबाल्डी के प्रयत्नों में स्वतंत्र होकर इटली ने उन्नति के मार्ग पर चलना शुरू किया। अमरीका, ब्रिटिश दासता से मुक्त होकर आर्थिक व राजनैतिक क्षेत्रों में जिस उन्नति-शिखर पर जा पहुँचा, उसे कौन नहीं जानता? बीसवीं सदी में प्रथम विश्व युद्ध के बाद टर्की ने कमाल अतातुर्क के नेतृत्व में जिस क्रांति का सूत्रपात किया, उसने समस्त टर्की का कायाकल्प कर दिया। चीन का इतिहास भी इसी सच्चाई का एक उदाहरण है। बात यह है कि राजनैतिक पराधीनता देश में न प्रतिभा को ऊँचा उठने का अवसर देती है और न देशवासियों में आगे बढ़ने की प्रेरणा व स्फूर्ति दे पाती है। जो उपर्युक्त सत्य अन्य देशों के लिए सत्य था, वह भारत के लिए भी पूर्ण सत्य हो रहा है, इसका स्पष्ट प्रमाण 1947 के बाद के कुछ वर्ष हैं।

हमारी समस्याएँ

जब भारतवर्ष स्वतंत्र हुआ, उसके सामने निम्नलिखित समस्याएँ उपस्थित थीं-

(1) शरणार्थियों की समस्या ;

(2) आर्थिक संकट, अन्न-वस्त्र की दुर्लभता महँगाई, बेकारी और उद्योग- धन्धों की कमी ;

(3) 600 स्वतंत्र रियासतों की विकट समस्या ;

(4) भावी संविधान का निर्मारण

(5) कश्मीर का संघर्ष तथा पाकिस्तान में झगडे ;

(6) राष्ट्र-निर्माण ; और

(7) स्वतंत्र विदेश नीति।

विस्थापितों का पुनर्वास

देश के विभाजन के समय किसी ने यह कल्पना भी न की थी कि जनता को भी किसी समय अपने सदियों के घरबार छोड़कर दर-दर भटकना पड़ेगा। किंतु अविश्वास, द्वेष, रक्तपात और अमानुषिक बर्बरता के इस संसार में जो हो जाए, थोड़ा है। पाकिस्तान का जन्म ही दो जातियों के द्वेषपूर्ण सिद्धांत के ‘आधार पर हुआ था। विद्वेष, घृणा, झूठ और पशुता पाकिस्तान की नीव में थे। वहाँ हिंदू-सिखों पर अत्याचार हुए। 60 लाख से अधिक हिंदू सिख वहाँ से निराश होकर भारत आए। उनके पुनर्वास और उन्हें रोज़ी देने की समस्या भीषण रूप से देश के सामने आई। पूर्वी पाकिस्तान से भी 50 लाख हिंदू यहाँ आने को विवश हुए हैं और आज भी वहाँ से निष्क्रमण जारी है। स्वतंत्र भारत की सरकार ने एकदम इस समस्या को हाथ में लिया। आज पश्चिमी पाकिस्तान के शरणार्थी करीब-करीब घरों में बस चुके हैं। उन्हें जमीन व जायदादें मिल रही हैं। 23 लाख शरणार्थी खेती बाड़ी में लग चुके हैं। शहरी क्षेत्रों में 12 लाख व्यक्तियों को निष्क्रान्ताओं के घरों में और 10 लाख को 2 लाख नए घरों में बसाया गया है। उनको क्षति के एवज में करीब 31 करोड़ रुपया मिल चुका है। जो योजनाएँ बनी है, उन्हें देखते हुए भी यह आशा की जानी चाहिए कि निकट भविष्य में शरणार्थी, शरणार्थी न रहेंगे और समृद्ध, समर्थ व बलवान नागरिक के रूप में भारत की उन्नति में अपना भाग अदा करने वाले बन जाएँगे।

पूर्वी बंगाल में आज भी पाकिस्तान की सरकार हिंदुओं को परेशान कर रही है। इस कारण हिंदू वहाँ से त्रस्त होकर भारत में आ रहे हैं। उनकी समस्या को हल करना अभी आसान काम नहीं है परंतु सरकार निरंतर प्रयत्न कर रही है कि उन्हें विभिन्न राज्यों में बसा दिया जाए।

आर्थिक संकट

आर्थिक संकट की समस्या भी कम विकट न थी। स्वतंत्रता प्राप्ति से तीन चार वर्ष पूर्व बंगाल में 35,00,000 आदमी भूख से तड़पकर मर चुके थे। अन्न-वस्त्र आदि जीवनोपयोगी पदार्थों की बेहद कमी थी। बेकारी कम न थी, कोई चीज सुलभ न थी, चोरबाजार, भ्रष्टाचार आदि का बोलबाला था। एक ओर सरकार ने विदेशों से अन्न मँगाया, राशन व कट्रोल के क्षेत्र को बढ़ाया, दूसरी ओर पंचवर्षीय योजना बनाकर अन्न, वस्त्र तथा अन्य जीवनोपयोगी पदार्थों को अधिक सुलभ करने का महत्त्वपूर्ण प्रयास किया। प्रथम योजना पूर्ण हो चुकी है और दूसरी पंचवर्षीय योजना का प्रारंभ हो चुका है।

प्रथम योजना के पाँच वर्षो में 20 अरब रुपया व्यय हुआ है। इसके कारण देश बहुत समृद्ध हो गया है। राष्ट्रीय आय 17.5 प्रतिशत बढ़ गई है। करीब डेढ़ करोड़ टन अनाज ज्यादा पैदा हुआ। दूसरी फसलों में भी काफी वृद्धि हुई है। बहुत से नए उद्योग खोले जा चुके हैं, जिनकी कल्पना भी पाँच वर्ष पहले करनी कठिन थी। वस्तुतः देश आर्थिक समृद्धि के मार्ग पर चल पड़ा है। यह स्वतंत्र भारत की ऐसी सफलता है, जिस पर हम गर्व कर सकते हैं।

रियासतों का विलीनीकरण

अंग्रेज शासक भारत से जाते हुए केवल देश को दो खंडों में विभक्त ही नहीं कर गए, परंतु भारत में अराजकता फैलाने तथा अपने अड्डे कायम रखने के लिए देश की 600 रियासतों को बिल्कुल आजाद कर देने का भारी षड्यंत्र भी कर गए। उनका विचार था कि 17वीं और 18वीं सदी की तरह यह रियासतें फिर परस्पर लड़ने लगेंगी और देश पर हम फिर अधिकार कर लेंगे। वस्तुतः यदि यह रियासतें स्वतंत्र रहतीं तो दो सदी पहले के गढ़े मुर्दे फिर उखड़ते और यह रियासतें न केवल परस्पर लड़ने लगतीं अपितु भारतवर्ष की स्वतंत्रता और अखंडता के लिए भारी खतरा बन जातीं। महामति सरदार पटेल की नीति- कुशलता के आगे अंग्रेजों की कूटनीति परास्त हो गई। उन्होंने बिना एक बूँद खून बहाए व्यावहारिक कुशलता में सब रियासतों को भारतीय संघ में सम्मिलित कर लिया। सैकड़ों छोटी-छोटी रियासतों का अस्तित्व ही नहीं रहा है। बड़ी-बड़ी रियासतें भी पड़ोसी राज्यों में अथवा रियासती संघों में विलीन कर दी गई। जिस कार्य के लिए जर्मनी के प्रिंस बिस्मार्क या चीन के चाँगकाई शेक को वर्षों तक युद्ध करने पड़े, वह काम सरदार पटेल ने बिना खून बहाए कर दिया। स्वतंत्र भारत की यही एक ऐसी सफलता है जिसकी ओर संकेत करके वह संसार के राजनीतिज्ञों से पूछ सकता है कि इसके मुकाबले का कोई चमत्कार तुमने भी किया है?

संविधान का निर्माण

किसी देश के संविधान निर्माण का प्रश्न बहुत कठिन होता है। अनेक प्रकार के स्वार्थ अनेक प्रकार की विचारधाराएँ, किसी एक सर्वसम्मत संविधान को बनने नहीं देतीं। यह काम कितना कठिन होता है, इसके लिए पाकिस्तान की ओर निर्देश कर देना काफी है। वहाँ अब तक संविधान का अंतिम रूप निश्चित नहीं हो सका। परंतु भारत ने अनेक भीषण समस्याओं के बावजूद 1946 के अंत तक संविधान बना लिया और 26 जनवरी 1650 से तो वह लागू भी हो गया। यह संविधान कितना अधिक महत्त्वपूर्ण हैं और इसमें कितनी विशेषताएँ हैं, स्थानाभाव से इसकी चर्चा हम इन पंक्तियों में नहीं कर सकते। इतने सुंदर संविधान का निर्माण स्वतंत्र भारत की बहुत बड़ी सफलता है।

दो महान् चुनाव

गत दस वर्षो में दो महान् चुनाव भारत ने देखे। भारत के वयस्क मतदाताओं की संख्या ही चीन को छोड़कर अन्य किसी भी देश से अधिक है। 17 करोड़ मतदाता भारत में हैं; जिनमें करीब 50 प्रतिशत ने चुनाव में अपने वोट दिये। लोकतंत्र के इतिहास में इतने बड़े पैमाने पर और इतने अधिक शांतिपूर्ण चुनाव असाधारण महत्त्व रखते हैं। सब दलों को चुनाव के प्रचार में पूरी आजादी दी गई थी और जनता ने निःसंकोच होकर अपने मत प्रदान किए।

कश्मीर का संघर्ष

हम ऊपर कह आये हैं कि सरदार पटेल की व्यवहार कुशलता से सब रियासतें भारतीय संघ में सम्मिलित हो गई। वे सब भारतीय सीमा के अंतर्गत थीं। किंतु कश्मीर की भौगोलिक स्थिति इन से भिन्न थी। उसकी सीमा एक ओर भारत से मिलती थी और दूसरी ओर पाकिस्तान से। कश्मीर ने किसी भी राज्य में सम्मिलित न होने का निर्णय किया। पाकिस्तान ने उस पर जबर्दस्ती दबाव डालने के लिए आक्रमण कर दिया। इस पर कश्मीर के महाराजा और वहाँ की सबसे बड़ी सार्वजनिक संस्था नेशनल कान्फ्रेंस ने भारत में सम्मिलित होने का ऐलान कर दिया। अब कश्मीर पर आक्रमण भारत पर आक्रमण था, इसलिए काश्मीर को बचाना भारत के लिए आवश्यक हो गया। भारत के लिए कश्मीर में अपनी सेनाएँ पहुँचाना अत्यंत कठिन था क्योंकि भारतीय सीमा से कोई सड़क कश्मीर नहीं जाती थी। भारत ने अत्यंत दूरदर्शिता व चुस्ती से काम लिया और एक ही दिन में भारत में चलने वाले हवाई जहाजों को एकत्र करके अपनी सेनाएँ श्रीनगर के हवाई अड्डे पर पहुँचा दीं। कुछ घण्टों की देर खतरनाक साबित हो जाती, क्योंकि पाकिस्तानी मुसलमानों की आक्रामक सेनाएँ हवाई अड्डे से कुछ ही मील दूर रह गई थीं। भारतीय सेना के वहाँ पहुँचते ही नक्शा बदल गया। कुछ समय में उन्होंने अधिकांश भाग पर अधिकार कर लिया। भारत की सेनाएँ और भी आगे बढ़ जातीं, परंतु यह मामला सुरक्षा परिषद् में पहुँच चुका था और विराम-संधि करनी पड़ी। आज भी कश्मीर का मामला वैसा ही उलझा हुआ है, क्योंकि राष्ट्रसंघ अमेरिका के दबाव में आकर यह घोषणा करने में टालमटोल कर रहा है कि आक्रमणकारी कौन है। पंडित नेहरू ने उदारतावश यह घोषणा की थी कि यदि कश्मीर से सब आक्रमणकारी निकल गए तो हम कश्मीरी जनता का मत लेंगे कि वह किस राज्य में सम्मिलित होना चाहती है। एक ओर यह शर्त पूरी नहीं हो रही, दूसरी तरफ अमरीका ने पाकिस्तान से सैनिक सहायता की संधि कर ली है। इसलिए मतग्रहण का प्रश्न भी अब टल सा गया है। वयस्क मताधिकार के आधार पर कश्मीर की नवनिर्वाचित असेम्बली ने भी भारतीय संघ में सदा के लिए सम्मिलित होने की घोषणा कर दी है। उधर पाकिस्तान कश्मीर को लेने के लिए सख्त कोशिश कर रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि कश्मीर का एक चौथाई भाग जो पाकिस्तान में है, उसी के पास रहेगा और शेष तीन-चौथाई भाग भारत के पास दूसरा कोई विकल्प संभव नहीं दीखता। अमरीका व ब्रिटेन की सहानुभूति इस संबंध में पाकिस्तान के साथ है। लेकिन भारत की शक्ति और भारतीय पक्ष की सबलता के कारण वे अब पाकिस्तान का अधिक समर्थन करने में संकोच कर रहे हैं। अक्तूबर 1957 में फिर यह मामला सुरक्षा परिषद् में पेश हो रहा है, किंतु कोई हल निकलेगा इसकी संभावना कम ही है।

पाकिस्तान से संबंध

देश-विभाजन के साथ ही नहरी पानी, व्यापारिक यातायात, शरणार्थियों की संपत्ति, पुराने लेन-देन का हिसाब तथा अल्पसंख्यक हिंदुओं के साथ दुर्व्यवहार आदि अनेक विवादग्रस्त प्रश्न भी अभी तक सुलझ नहीं पाए हैं। भारत की नीति प्रत्येक प्रश्न को शांति और समझौते के साथ तय करने की है। इसलिए इन प्रश्नों पर स्वभावतः देरी लग रही है और दस वर्ष के लगभग होने को आये, यह प्रश्न अभी तक सुलभ नहीं हैं।

राष्ट्र-निर्माण

जब अंग्रेज शासन करते थे, उनका मुख्य ध्यान देश के आर्थिक शोषण की भोर था। शिक्षा, स्वास्थ्य तथा राष्ट्र निर्माण की अन्य प्रवृत्तियों की ओर उनका ध्यान बहुत कम गया और लाखों गाँवों की तो उन्होंने सर्वथा उपेक्षा कर दी। इसलिए स्वतंत्र भारत के सामने राष्ट्र-निर्माण की एक बहुत बड़ी समस्या थी। यही कारण है कि पहली और दूसरी पंचवर्षीय योजनाओं में राष्ट्र-निर्माण पर विशेष रूप से ध्यान दिया गया। प्रथम योजना में समाज सेवा के विविध अंगों पर करीब साढ़े पाँच अरब रुपया व्यय करने का निश्चय किया गया और दूसरी योजना में साढ़े नौ अरब रुपया। अब प्रायः प्रत्येक राज्य सरकार गाँव- गाँव में स्कूल, हस्पताल खोलने, प्रारंभिक शिक्षा को अनिवार्य करने तथा दलित जातियों को उन्नत करने आदि पर ध्यान दे रही है। ऐसी आशा की जाती है कि आगामी पाँच वर्षों तक भारत में स्कूलों और अस्पतालों का जाल बिछ जाएगा। सामुदायिक योजनाओं का जो जाल सारे देश में फैला है, उससे भी राष्ट्र-निर्माण की प्रवृत्तियों की बहुत प्रगति हुई है।

विदेश नीति

भारत को स्वतंत्र होते ही जिन गंभीर प्रश्नों का सामना करना पड़ा, उनमें से विदेश नीति भी एक थी। अब तक भारत की नीति ब्रिटेन की विदेश- नीति के साथ बंधी हुई थी। ब्रिटेन के मित्र भारत के मित्र थे, उसके शत्रु हमारे भी शत्रु थे। भारत इस नीति को अपना नहीं सकता था। जब भारत स्वतंत्रता प्राप्त करके अंतर्राष्ट्रीय रंगमंच पर पहली बार आया, उसने देखा- कि उस पर दो परस्पर विरोधी गुट एक-दूसरे को मात देने के लिए चालें- चल रहे हैं। दोनों ने भारत को अपने गुट में सम्मिलित होने का निमंत्रण दिया, पर हमारे दूरदर्शी नेता पंडित नेहरू ने तटस्थ नीति अपनाई। वे किसी गुट में सम्मिलित नहीं हुए, वे दोनों के मित्र हैं। उनकी यह तटस्थता नीति पहले किसी को समझ में नहीं आई, पर अब शनै: शनै: अनेक देश भारत के पंचशील के सिद्धांतों को पसंद करने लगे हैं। भारत का प्रभाव निरंतर बढ़ता जा रहा है और यह स्पष्ट होता जा रहा है कि विश्व शांति की स्थापना में भारत सब देशों का नेतृत्व करेगा।’ कुछ ही वर्षों में भारत ने अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में बड़े-बड़े राष्ट्रों को पीछे कर अपना प्रमुख स्थान बना लिया है।

परंतु

हमने संक्षेप से गत दस वर्षो में भारतीय गणतंत्र की सफलताओं पर- प्रकाश डाला है। इन पर हम गर्व कर सकते हैं, परंतु इसका अर्थ यह नहीं है. कि हमें अब कुछ करना नहीं है। अभी अनेक बातों पर ध्यान देने का या तो: अवकाश नहीं मिला है अथवा उनके महत्त्व को समझ नहीं पाए हैं। ऐसी- समस्याओं में से एक है राष्ट्र के नैतिक पतन की समस्या। पिछले महायुद्ध ने जिस अनैतिकता का बीज बो दिया था, आज वह बृहदाकार वृक्ष के रूप में उपस्थित है। समाज में छोटे और बड़े अंग आज चरित्रहीन हो उठे हैं। धनलोलुपता और वासनामयता हमारे चरित्र के अंग बन गए हैं। इसी तरह शराब, मांस और तम्बाकू का भी प्रचार बढ़ रहा है। देश में अनुशासनहीनता भी बढ़ती जा रही है। भारतीय संस्कृति का प्रचार भी आज नहीं हो रहा। विदेशी संस्कृति का प्रभाव दूर होने की बजाए बढ़ रहा है। पर निराश या चिंतित होने की बात नहीं है। संक्रांतिकाल में ऐसी बातें स्वाभाविक हैं। राष्ट्रीय नेताओं और विचारकों का ध्यान इधर जा रहा है। यह आशा करनी चाहिए कि जिस तरह अन्य क्षेत्रों में देश उन्नति कर रहा है, उसी तरह नैतिकता की दिशा में भी भारत उन्नति कर लेगा।

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