31 दिसंबर 1926 का दिन था और रात के 12 बजे थे। पंजाब की सख्त सर्दी थी, लोग ठिठुर रहे थे, पर रावी के पुण्य तट पर एक शानदार पंडाल में इस महान् देश के महान् नेता और सभी प्रान्तों के माननीय प्रति निधि हर्षविभोर होकर पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ-साथ नाच रहे थे, जोश और उमंगों के कारण लाहौर के भीषण शीत का भी उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा था। इसका एक कारण था। इसी समय रात के 12 बजे उन्होंने पंडित नेहरू के सभापतित्व में एक प्रस्ताव पास किया था कि वे पूर्ण स्वतंत्र होकर रहेंगे। पूर्ण स्वराज्य से कम किसी भी शर्त पर वे अंग्रेजों से समझौता नहीं करेंगे। अपने इस प्रस्ताव को राष्ट्र के दृढ़ संकल्प के रूप में परिणत करने के लिए उन्होंने 26 जनवरी 1930 का दिन नियत किया था।
1930 की 26 जनवरी को रविवार था। समस्त राष्ट्र ने सैकड़ों नगरों व हजारों कस्बों में पूर्ण स्वाधीनता दिवस मनाया। तिरंगे झंडों के नीचे वन्देमातरम् तथा राष्ट्रीय गीतों के साथ हजारों की भीड़ ने अपने नेताओं द्वारा नियत एक प्रतिज्ञापत्र पढ़ा, जिसमें यह दृढ़ संकल्प किया गया था कि ‘पूर्ण स्वाधीनता’ हमारा लक्ष्य है और इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए हम सभी प्रकार का बलिदान करने को कटिबद्ध हैं। इसके बाद से प्रतिवर्ष 26 जनवरी का दिन आता और समस्त राष्ट्र नए उत्साह व नई उमंगों के साथ इस संकल्प को दुहराता। महान् राष्ट्र का यह संकल्प ब्रिटिश शासन को दहला देता था, इसलिए उसका दमन चक्र वेग से चलता था। लाठियाँ चलतीं, गिरफ्तारियाँ होतीं और कभी-कभी गोलियाँ भी चलाई जातीं। प्रति वर्ष यह घटना दुहराई जाती – जनता का दृढ़ संकल्प और अपूर्व उत्साह तथा दूसरी ओर नृशंसता- पूर्ण हत्याकांड तथा दमन चक्र। इसलिए 26 जनवरी का दिन देश के राष्ट्रीय संघर्ष में असाधारण महत्त्व प्राप्त करता गया। लंबे संघर्ष के बाद एक समय आया कि 26 जनवरी का दृढ़ संकल्प पूर्ण हो गया और देश स्वाधीन हो गया।
नए संविधान का आरंभ
देश को स्वाधीनता 15 अगस्त को मिली थी, इसलिए यह दिन देश के राजनैतिक इतिहास में असाधारण महत्त्व रखता है, किंतु इससे 26 जनवरी का महत्त्व कम नहीं हुआ है। राष्ट्र यह भूला नहीं है कि स्वाधीनता – प्राप्ति के महान् संग्राम की सफलता का श्रेय 26 जनवरी के इस संकल्प को है। इसलिए जब नए संविधान के लागू होने का प्रश्न आया तो देश ने इस दिन के महत्त्व को देखते हुए 26 जनवरी से ही इसे लागू करने का निश्चय किया। 1646 के अंत में भारत की संविधान सभा ने देश का गौरवपूर्ण संविधान पास कर दिया और 26 जनवरी 1950 को यह संविधान लागू हो गया। इसके लागू होते ही ब्रिटिश शासन का अन्तिम चिह्न – गवर्नर-जनरल – भी देश से विदा हो गया। देशरत्न डॉ. राजेन्द्रप्रसाद ने राष्ट्रपति के रूप में नए संविधान के अनुसार देश का शासन सूत्र अपने हाथ में लिया। 15 अगस्त, 1947 से देश का वैधानिक स्वरूप ब्रिटिश साम्राज्य के उपनिवेश का एक भाग था। अब वह संपूर्ण प्रभुत्व- सम्पन्न लोकतन्त्रात्मक गणराज्य बन गया। ब्रिटिश नरेश का भारत के साथ वैधानिक संबंध भी समाप्त हो गया।

इस तरह 26 जनवरी का महत्त्व देश के इतिहास में और भी बढ़ गया। 1930 में इसी दिन राष्ट्र ने ‘पूर्ण स्वराज्य’ का दृढ़ संकल्प किया और उसने अपने सिर पर स्वाधीनता संग्राम के लिए दिन-रात एक करने व प्रत्येक संभव बलिदान करने का उत्तरदायित्व लिया था। ठीक 20 वर्ष बाद इसी दिन राष्ट्र ने पूर्ण लोकतंत्र शासन की घोषणा की और इसके साथ नागरिकों ने राष्ट्र के शासन व देश की रक्षा का महान् गंभीर उत्तरदायित्व अपने कंधों पर लिया। पूर्ण स्वाधीनता का जितना महत्त्व है, उससे भी अधिक महत्त्व उस उत्तर- दायित्व का है, जो इस दिन समस्त राष्ट्र के नागरिकों ने अपने कंधों पर लिया। वस्तुतः इस दिन को मनाते समय हमें अपने उस गंभीर उत्तरदायित्व को नहीं भूलना चाहिए, जो हमारे सिरों पर इस दिन आ पड़ा है।
लोकतंत्र का उत्तरदायित्व
किसी राजनीतिज्ञ ने कहा है कि स्वाधीनता प्राप्त करने से भी अधिक कठिन स्वाधीनता की रक्षा करना है। यों तो प्रत्येक स्वाधीन देश के नागरिकों को देश की रक्षा करनी चाहिए, किंतु लोकतंत्रात्मक राष्ट्र के नागरिकों पर तो यह उत्तरदायित्व और भी अधिक है। लोकतंत्र व राजतंत्र शासन-पद्धति में एक अंतर है। राजतंत्र पद्धति में देश का स्वामित्व राजा के हाथ में रहता है, जबकि लोकतंत्रात्मक देश में देश का स्वामित्व और पूर्ण उत्तरदायित्व जनता पर आ जाता है। जब विदेशी शासन होता है, अथवा एक राजा ही समस्त शासन करता है, तब जनता अपना उत्तरदायित्व अनुभव नहीं करती, लेकिन लोकतंत्र पद्धति में तो जनता ही स्वयं स्वामिनी या शासक एवं शासित दोनों है। शासक उसी के प्रतिनिधि रूप में शासन करते हैं। शासन की अच्छाई या वही स्वयं जिम्मेदार है। उसका हानि-लाभ उसी को होता है। हो या अवनति, प्रत्येक नागरिक पर उसकी जिम्मेदारी है।
बुराई के लिए देश की उन्नति
यदि हम 26 जनवरी का दिन मनाना चाहते हैं, तो रागरंग या आनंद- हर्ष के साथ हमें गंभीरता से यह भी सोचना चाहिए कि स्वतंत्र और लोकतंत्री देश के नागरिक के नाते हम पर कर्त्तव्य द्वारा उत्तरदायित्व का भी कितना भार आ पड़ा है। उसे हमें उठाना है। इस दिन हमें अपनी पुण्य भारत जननी की अखंड मूर्ति का स्मरण करके यह सोचना है कि उसका शौर्य, उसका तेज, उसका वर्चस्व बढ़ाने के लिए हम क्या कर रहे हैं और हमें क्या करना चाहिए। देश की आर्थिक, नैतिक व सामाजिक उन्नति में हम कितना योगदान कर रहे हैं। देश का शासन कुछ सत्ताधारियों के हाथ में सीमित न हो जाय, शुद्ध लोकतंत्रवाद की परंपरा व मर्यादा स्थिर रहनी चाहिए। अथर्ववेद के पृथिवी सूक्त के एक मंत्र के अनुसार हमें यह दृढ़ निश्चय कर लेना चाहिए-
उदीरारणा उतासीनास्तिष्ठन्तः प्रक्रामन्तः।
पद्भ्यां दक्षिरणसव्याभ्यां मा व्यथिष्महि भूम्याम् ॥
अर्थात् चलते हुए या ठहरे हुए, बैठे हुए या उठे हुए हम दाँयें या बायें पैर से अपनी मातृभूमि को कष्ट न दें। हम प्रति 26 जनवरी को यह सोचें कि इस योजना की सफलता के लिए हमने क्या किया और क्या करना शेष है। इसी दिन हम यह सोचें कि भारत माता की स्नेहमयी विशाल गोद में 36 करोड़ पुत्र-पुत्रियाँ खेल रहे हैं। उन सब के प्रति हम अपना कर्त्तव्य- पालन करें। भारत माता की जिस विशाल अखंड पुण्यमयी मूर्ति का स्मरण कर हम सुजलाम् सुफलाम् शस्यश्यामलाम् माता को नमस्कार करते हैं, 26 जनवरी को उसी ममतामयी, पुण्यजननी का स्मरण कर हम यह निश्चय करें कि इसकी सम्मान वृद्धि के लिए इसके भौतिक व नैतिक अभ्युदय के लिए हम सदा प्रयत्नशील रहेंगे।
26 जनवरी के भारतवासियों के लिए दो संदेश हैं, स्वाधीनता और लोक- तंत्र। ये दोनों महान् संदेश हैं। इनका स्मरण सदा हमें उन्नति का मार्ग- प्रदर्शन करेगा।