संकेत बिंदु – (1) जीवन की शैली और गति (2) अशांत मन के साथ समझौता (3) अतृप्ति और भूख का गुण विकास हेतु (4) असुरक्षा की भावना (5) उपसंहार।
जीवन की एक शैली है। जीवन की एक अपनी गति है – रफ्तार है। जीवन स्वयं एक प्रवाह है जो अपने गंतव्य की ओर अनवरत बह रहा है, परंतु मनुष्यों ने इसे अपनी गति दे दी है। इस पर अपने मन का आवरण चढ़ा दिया है जिसने जीवन की स्वतंत्रता पर प्रश्न चिह्न लगा दिया है।
अब प्रश्न जीने का हो गया है – अब जीने के लिए प्रयास करना पड़ रहा है। अब आदमी जीना चाहता है – उस जीने की चाह ने मनुष्य को वैज्ञानिक बना दिया है। बुद्धिजीवी बना दिया है। संभवतः मनुष्यों की इस माँग ने मनुष्यों को गुलाम बना दिया है। इच्छाओं की पराधीनता, इच्छाओं के विकास के कारण मन वैज्ञानिक बनकर व्यक्तित्व का पुजारी बन गया है और यही रोगों के विकास का कारण बन गया। नीरोगी तन का नीरोगी मन का तनाव युक्त होना-आपदाओं के घर बनाने का कारण संसार की माँग बन गई और प्रेम-आनंद-सुखमय जीवन का जो दुर्लभ खजाना था – वह शांति अशांति में बदल गई।
अशांत मन के साथ समझौता कर अशांत मन को समझाने के लिए मनुष्यों ने जो कुछ भी खोजा वह उसका विज्ञान बन गया। परावर्तन को अनुकूलता की दिशा दे दी गई। आवर्तन की क्रियाशीलता का राज जानकर इसे अपनी दिशा देने की कोशिश की गई।
प्राकृतिकता – स्वाभाविकता में अस्वाभाविकता का जन्म हुआ। मूल दिशा मूल लक्ष्य को दिशा विहीनता मिली जीवन एक प्रश्न बनकर रह गया। प्रेम मनुष्य की संपदा है। आनंद जीवन की स्थिति है। भोग क्रिया है – भोग स्वाभाविकता है – संरचना की — काम जननी है— काम सृजन की प्रक्रिया है – काम एक माँग है जरूरत है – काम जरूरी है – एक Need है – हो जाने का – यह हो जाता है – घटता है – पर इसे घटाने का उपाय खोज लिया है मनुष्ये ने। स्वाभाविकता को दबाकर अपनी चाह की चादर ओढ़ ली।
काम सृजन तो था ही – काम विकास की जननी तो थी ही – काम आनंद का एहसास तो था ही – परंतु मनुष्यों की माँग के कारण काम भोग बन गया – आसक्ति बन गया और आनंदमय काम तनाव का कारण बन गया।
जिस सुख की चाह में आज मानव भटक रहा है – उस संपदा का मालिक तो वह पहले से ही था – वह आनंद – वह शांति तो उसे पहले से ही प्राप्त है। परंतु वह अब इससे भाग रहा है — दूर होता चला गया है।
चाह – भूख अतृप्ति यह गुण विकास हेतु जागरण हेतु थे – इनमें मनुष्यों की ऊर्जाओं को नयी दृष्टि देने का रास्ता था। पर यह रोग का कारण बन गया – यह गुलामी का कारण बन गया — क्योंकि मनुष्य की अपनी संपन्नता ने इसे महान बना दिया। जीना और जीवन का ध्येय पथ था – वह मन का सम्मान का राग का द्वेष का कारण बन गया।
मनुष्य था ही मनुष्य क्योंकि मन को लेकर वह आया था। मनुष्य पशु नहीं था वह तो उसे छोड़कर आ गया था। उसे छोड़ने में मनुष्य की स्वभाविकता थी-मन का व्यसन नहीं था। परंतु मनुष्य पशुता का पुनः साथी बन गया। अपनी यात्रा के पथ पर जहाँ-जहाँ पड़ाव देकर आया था – उन सभी स्मृतियों को मनुष्य ने परावर्तन कर अपना गुण बना लिया – शांत नगरी अशांत हो गई।
सीमाओं का अतिक्रमण हुआ-जीवन जीने की शैली में बदलाव आया – जीवन ऊर्जाएँ आपस में संघर्ष करने लग गई। जीवन-धारा को गंतव्य की ओर ले जाने में काल बँट गया। वह काल-काल बन गया। जीवन कला काम-कला बनकर रह गई। दिशाविहीन मानव इन सभी आपूर्तियों की पूर्ति में ही रह गया। अपने ही घर का रास्ता भूल गया। अपने ही खजाने को खो दिया गया और अपने खजाने की खोज में भागता रह गया।
यात्राएँ अनेक हो गई। भार्ग अनेक बन गए, लक्ष्यविहीन यात्राएँ इच्छाओं में अधीन हो गई। मानव खुद की खोज में खोकर खुद की पूजा में लग गया। काम ने अभिमान का रूप ले लिया। काम ने पहचान का रूप ले लिया- काम ने पूजा का रूप ले लिया-प्रेम जो जीवन था – जीवन जो परमात्मा था – वह प्रेम प्यार बनकर रह गया। मनुष्य स्वयं में एक प्रश्न बनकर रह गया। मनुष्य स्वयं अपनी कृतियों का गुलाम बनकर रह गया।
उसकी आज़ादी छिन गई। उसकी स्वतंत्रता नहीं रही। आज़ादी एक माँग बनकर रह गई। मनुष्य को आज़ादी की खोज के लिए लड़ना पड़ा। यह एक ऐसा संघर्ष का साधन बन गया जिससे मनुष्य-मनुष्य का दुश्मन बन गया।
सीमाएँ बन गई – जातियाँ बन गई – पंथ बन गए – भिन्न-भिन्नताएँ आ गई – समाज बन गया। उनमें अपने-अपने नियम और आचार संहिताएँ बन गईं। आदमी का मन मालिक बन बैठा। बेचैनी का जन्म हुआ विचारों का प्रवाह बन गया। नियम और कानून बने, स्वतन्तत्राएँ, व्यवस्थाएँ परिस्थितियों की दास बनकर रह गईं। सीमाओं ने महत्त्व बना लिया। सीमाओं की सुरक्षा, समाज की सुरक्षा, मर्यादा की सुरक्षा के लिए जीवन बलिदान होने लगा।
असुरक्षा की भावनाओं ने मनुष्य को मनुष्य का दुश्मन बना दिया। इस समाप्त न लेने वाली मानव की कृति ने मानव को मानव से दूर कर दिया। प्रेम ने नफरत को प्रोत्साहित कर दिया। प्रेम ने स्वार्थ प्रेम की चादर ओढ़ ली। प्रेम समझौता बन गया। प्रेम पूजा और प्रार्थना नहीं रह गया। प्रेम समर्पण नहीं रह गया। प्रेम उपयोग की वस्तु हो गई। जो होता था उसे किया जाने लगा। मनुष्य के हृदय ने दरवाजे बंद कर दिए मन सम्राट बन गया। नौकर मालिक बन बैठा। आजादी गई पराधीनता मनुष्य का गुण बन गई।
मर्यादाएँ व्यापार बन गई – मर्यादाएँ चिह्न बन गईं – परिचय देने का। उपासकों, साधकों, तपस्वियों, योगियों, आचार्यों ने मर्यादा को अपनाकर सत्य को छोड़ दिया। जीवन एक कलाकार बनकर रह गया जीने के लिए साध्य महत्त्वपूर्ण बन गए जीना एक बहाना बन गया। मन ने अनेकों बहाने खोजकर जीने के माध्यम को जीने से महत्त्वपूर्ण बना दिया। सम्मान अभिमान स्वाभिमान के लिए स्वयं को मार देना मनुष्य ने स्वीकार कर लिया। आत्महत्याएँ प्रकृति की स्वाभाविकता पर एक आघात बनकर रह गई।
सत्य घुटता गया असत्य आडंबर बढ़ता गया। शब्द, स्पर्श, रस, गंध गन्दे हो गए। प्राकृतिक तत्त्वों में भी मनुष्यों ने मिलावट कर दी। ऋतुओं में बदलाव आ गया। समय असमय वृष्टि अतिवृष्टि होने लगी। अग्नि भी क्रोधित होने लगी। पवन भी अपना आक्रोश दिखाने लगा, पानी भी क्रोध करने लगा। आकाश की गतिविधियाँ असंतुलित होने लगीं। फिर देह कहाँ से क्या जाएगा। फल पेड़-पौधे की पैदाइश में फर्टिलाइजेशन आ गए तो मन को एवं तन को भी फर्टिलाइजेशन ही मिला।
विकास के पथमार्गी मनुष्य ने अपने ही जीवन पथ पर इतनी परेशानियों उलझनों की दीवार दें, चट्टानें, रुकावटें पैदा कर दीं कि वह स्वयं भी भयभीत हो गया।