आत्मनिभर्रता से तात्पर्य है – अपने ऊपर निर्भर रहना। जब मनुष्य अपने कार्य स्वयं करता है तो वह आत्मनिर्भर कहलाता है। वैसे मनुष्य सामाजिक प्राणी है। बहुत से कार्य वह दूसरों के सहारे करता है। किंतु अपने व्यक्तिगत कार्यों का प्रेरक वह स्वयं होता है, उसकी जीवनशैली अपनी होती है। इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि वह दूसरे की उपेक्षा करके मनमर्जी करे। आत्मनिर्भरता का अर्थ यह है कि जिस किसी कार्य को करने की इच्छा करे, उसके लिए पूर्ण तत्परता और लगन का परिचय दे । स्वयं अपने सहारे उसे सिद्ध करने का प्रयास करे। वस्तुतः यह एक प्रकार की स्वतंत्रता है जो अपने आप पर स्वावलंबित होने के भाव को विकसित करती है।
मनुष्य गुणवान होता है, जो नहीं भी है वह अच्छे गुण अपनाना चाहता है। आत्मनिर्भरता एक श्रेष्ठ गुण है जिसका आधार आत्मविश्वास है। इस गुण से संपन्न व्यक्ति संपूर्ण विश्व को अपना कर्मक्षेत्र मानकर परिश्रम करता है और अपने लक्ष्य को प्राप्त करता है। इसी गुण के सहारे वह बड़ी से बड़ी बाधा को भी दूर कर देता है और सफलता का आलिंगन करता है। प्राचीन काल में जब गुरुकुलीय शिक्षा प्रणाली प्रचलित थी, विद्यार्थी प्रात:काल से लेकर सायंकाल तक अपना कार्य स्वयं करते थे। उन्हें बचपन से ही आत्मनिर्भर रहने का पाठ पढ़ाया जाता था। आज का विद्यार्थी भी आत्मनिर्भर होना चाहता है। वह अपना लक्ष्य स्वयं निश्चित करता है और अपने बलबूते पर उसे प्राप्त करना चाहता है। इससे उसमें स्वयं निर्णय करने की शक्ति का विकास होता है जो उसे जीवन में सफल बनाती है।
आत्मनिर्भरता गुण का अभाव व्यक्ति को दूसरों का दास बना देता है। छोटे से छोटे कार्य के लिए भी वह दूसरों का सहारा ढूँढ़ता रहता है। दूसरे शब्दों में वह अकर्मण्य हो जाता है। वह अपने साथ ही नहीं, परिवार, समाज और राष्ट्र के साथ भी अन्याय करता है। इतिहास साक्षी है कि जिस राष्ट्र का भी पतन हुआ है वहाँ के नागरिक आलसी और परिश्रम न करने की प्रवृत्ति से ग्रसित रहे हैं। प्रसिद्ध कहावत है जो अपनी सहायता नहीं करता परमात्मा भी उसका सहायक नहीं होता। परावलंबी होने से बड़ा कोई दोष नहीं है। इसे एक प्रकार की परतंत्रता ही कहा जाएगा। परतंत्र होने पर व्यक्ति, जाति, समाज अथवा राष्ट्र का विकास रुक जाता है। ऐसी स्थिति में हम निःसहाय, विवेकहीन हो जाते हैं, प्राण रहते हुए भी मर जाते हैं।
जीवन में विकास करने की प्रवृत्ति आत्मनिर्भर होने पर ही आती है। यह ऐसी आवश्यकता है जो हमें जीने का मार्ग दिखाती है। निराशा इससे दूर भागती है और मनुष्य पुरुषार्थी होकर अंधकार से प्रकाश की ओर आगे बढ़ता है। आत्मनिर्भरता के दो उपयोगी लाभ होते है – एक तो मनपसंद का कार्य होता है और दूसरे शीघ्र तथा समय पर पूर्ण होता है। शिवाजी, महाराणा प्रताप, अब्राहम लिंकन, सुभाषचन्द्र बोस, महात्मा गाँधी जैसे अनेक महापुरुष हुए हैं जिन्होंने आत्मनिर्भरता गुण अपनाकर इतिहास में अपना नाम स्थापित किया है। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने एक व्यक्ति के सामान को स्टेशन से घर तक पहुँचाकर यही शिक्षा दी थी कि मानव जीवन की बड़ी आवश्यकता स्वावलंबी होना है।
अतः प्रत्येक व्यक्ति का यह कर्त्तव्य है कि वह आत्मनिर्भर बने। इस गुण को ग्रहण कर वह अपना ही नहीं पूरे राष्ट्र और अंततः मानव मात्र को दिशा प्रदान करने में सक्षम होगा। यही मनुजता का मर्म है तथा सुखी होने का सही मार्ग है।