संकेत बिंदु-(1) हिंदू, मुस्लिम और पाश्चात्य संस्कृतियों का समन्वित रूप (2) उपभोक्तावाद का जन्म (3) आधुनिक संस्कृति के अलग-अलग रूप (4) अमर्यादित संग्रह प्रवृति (5) उपसंहार।
आधुनिक संस्कृति प्राचीन हिंदू और मुस्लिम संस्कृतियों तथा पाश्चात्य संस्कृति का समन्वित रूप है। मर्यादाओं के मलबे में दबे जीवन-मूल्यों की विकृति का परिष्कृत रूप है। प्राचीन सांस्कृतिक मान्यताओं, आस्थाओं को नकारने का अंतर्राष्ट्रीय अभियान है।
आज संस्कृति के अर्थ ही बदल गए हैं। केवल नृत्य-संगीत को सांस्कृतिक कार्यक्रम की संज्ञा दी जाती है, जबकि संस्कृति संस्कारित करने वाले जीवन-मूल्यों की पहचान है और यम-नियम द्वारा जीवन जीने की विशिष्ट शैली है। यम अर्थात् सत्य, अहिंसा-अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि है तो सहिष्णुता, त्याग, संतोष, स्वावलंबन आदि नियम हैं। पंच यमों के प्रति आदर, नियमों के प्रति विश्वास और शीलयुक्त आचरण के कारण ही भारतीय संस्कृति जीवंत है।
सौंदर्य को दृष्टि में रखकर जीवन के विषय में विचार करना, उसे अपनाना आधुनिक संस्कृति है। ‘स्व’ के अहम् की वृद्धि और निजीसुख की अभिलाषा आधुनिक संस्कृति के लक्षण हैं। धन और संपत्ति एवं विलासात्मक वस्तुओं का संग्रह आधुनिक संस्कृति के रक्षक हैं। निसर्ग, प्रकृति और राज्य के विधि-विधानों का तिरस्कार आधुनिक संस्कृति की नींव है। खाओ, पीओ और ऐश करो, आधुनिक संस्कृति का उद्देश्य है। इसे संस्कृति न कहकर विकृति कहना ही अधिक उपयुक्त होगा। सम् + कृति अर्थात् सम्यक् कृति और संस्कार इसमें हैं ही कहाँ?
खाओ, पिओ और ऐश करो की जीवन-शैली ने ही तो उपभोक्तावाद को जन्म दिया है। उपभोक्तावाद केवल भोग में विश्वास करता है जो मूल रूप में कृत्रिम आवश्यकताएँ पैदा करता है और कृत्रिम आपूर्तियों द्वारा अतृप्ति की भावना जीवित होती है। अतृप्ति अपराध की जननी है। अपराध जीवन को पतन की ओर ले जाने के कारण बनते हैं।
आदिकाल से अजस्त्र प्रवाहित भारतीय संस्कृति ने विरोधी आक्रामक संस्कृतियों के उपादेय तत्त्वों को ग्रहण कर अपने मूल रूप को यथावत् रखा। उनकी चकाचौंध में डुबकी लगाई, किंतु डूबी नहीं। अन्य जातियों से भी अनेक से तत्त्व ग्रहण किए। पाश्चात्य संस्कृति ने तो आर्य संस्कृति (हिंदू-संस्कृति) अर्थात् भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों पर ही ऐसा आक्रमण किया कि भारतीयों का ‘ब्रेनवाश’ ही कर दिया। अपनी प्राचीन चिंतन-पद्धति का उपहास, अपने सांस्कृतिक परिवेश से घृणा, अपनी परंपराओं के प्रति आक्रामक रवैया इसी ब्रेनवाश का परिणाम है।
श्री जयदत्त पंत के शब्दों में, हमारे तीर्थ अब पवित्रता के अर्थ को खोकर पर्यटन-व्यवसाय के लिए आकर्षण का केंद्र कहे जाने लगे हैं। हमारी विविध संस्कृति समय-असमय प्रदर्शनी की चीज बन गई है। मनोरंजन सांस्कृतिक आयोजन का पर्याय बन गया है। सभ्यता और कला के उत्कर्ष की प्रतीक हमारी मूर्तियाँ आदि तस्करी का शिकार हो गईं हैं, जिनके आगे हमारी पिछली पीढ़ी तक के कोटिशः लोग धूप जलाकर माथा नवाते थे, वे विदेशों में करोड़पतियों के उद्यानों और उनके निजी संग्रहालयों की शोभा बन गईं हैं। हमारे देवी-देवताओं की कीमत लगाई गई और हमने उनको रात के अंधेरे में बेच दिया है।’
आधुनिक संस्कृति के मूलाधार सौंदर्य-प्रेम ने जीवन के हर क्षेत्र में सौंदर्य के दर्शन किए। कृत्रिम वैज्ञानिक उपकरणों से शरीर के सौंदर्य को संपन्न किया, तो कलात्मकता से अपने निवास को सुसज्जित किया। कला-सौंदर्य में अपनी रुचि प्रकट की। विलास और वासना के सौंदर्य ने मानव को मदांध किया। धार्मिकता की असुंदर रूढ़ियाँ टूटीं। असुंदर परंपराएँ परिष्कृत हुईं।
धन और संपत्ति की अमर्यादित संग्रह प्रवृत्ति आधुनिक संस्कृति का अंग है, जो भारतीय संस्कृति के ‘त्याग’ को दुत्कारती है, लांछित करती है। अवैध तथा भ्रष्टाचार के मार्गों ने संग्रह के दीप जलाए। दरिद्र, पीड़ित और नग्न जनता की सहायता राशि में से धनापहरण कर रक्त चूसा। विभिन्न पदार्थों में मिलावट करके तिजोरियाँ भरीं। तस्करी करके अपनी अगली पीढ़ी को भी धनाढ्य बनाया। कानून के प्रहरियों को रिश्वत की मार से क्रीतदास बनाया। विधि-वेत्ताओं की सहायता से कानून का पोस्टमार्टम कर अपने पक्ष में निर्णय पलटवाए।
आधुनिक संस्कृति का भारतीय जीवन-संस्कारों पर प्रभाव नकारा नहीं जा सकता। आज हम बच्चों का जन्मदिन मोमबत्ती बुझाकर मनाते हैं। विवाह संस्कार के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अंग ‘पूजा-पाठ को शीघ्रतः निपटवाना चाहते हैं। सप्तपदी और प्रतिज्ञाओं का मजाक उड़ाते हैं। विवाह मुकुट का स्थान ‘टोपी’ ने ले लिया है।
आधुनिकता घर-घर में घुस गई। पाजामा धोती नाइट सूट बन गए। पेंट-बुशर्ट और टाई परिधान बने हैं। हम जूते पहनकर मेज कुर्सी पर भोजन करने लगे हैं। माँ को मम्मा, पिता को पापा वा डैड तथा शेष लोगों को अंकिल-आंटी से संबोधित करने लगे हैं। माता का चरण-स्पर्श माँ के चुंबन में बदला। पब्लिक स्कूलों में ही हमें ज्ञान के दर्शन होते हैं। पश्चिमी ढंग से रात्रि क्लबों की धुंधली रोशनी में परमानंद के दर्शन होते हैं। शराब और नशीली गोलियों में परम तत्त्व की प्राप्ति जान पड़ती है। करबद्ध नमस्कार का स्थान ‘शेक हैंड’ ने लिया है। टा-टा, बाई बाई से परिजनों को बिदाई दी जाने लगी है।
आधुनिक संस्कृति अपनी स्वतंत्र स्वच्छंद प्रकृति से, इहलोक की सुख-शांति और ऐश्वर्य के सरलतम उपायों से, वर्तमान संसार की अधिकांश जनता को संस्कृत कर देना चाहती है, अपने रंग में रंग देना चाहती है। पाश्चात्य जीवन-मूल्यों, आदर्शों एवं परंपराओं से भूमंडल को आप्लावित कर देना चाहती है। संस्कृति में संस्कार देने की जो क्षमता है, वह आज है कहाँ? इसे संस्कृति न कहकर सभ्यता ही कहना चाहिए, वह भी तथाकथित विशेषण के साथ।