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अहिंसा परमो धर्मः

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संकेत बिंदु – (1) अहिंसा धर्म का मूल (2) परम का अर्थ (3) ऋग्वेद की दृष्टि में अहिंसा (4) व्यक्ति के जीवन में अहं का महत्त्व (5) उपसंहार।

‘अहिंसा परमो धर्मः’  शास्त्रीय वचन है। यह योग शास्त्र के पाँच यमों में से एक है। तुलसी ने भी ‘मानस’ के उत्तरकाण्ड में ‘परम धर्मश्रुति विदित अहिंसा’ कहकर इसका अनुमोदन किया है। इस वैदिक (शास्त्रीय) मान्यता को जैन मत ने अपने पंच महाव्रतों में स्थान दिया है तो बौद्ध मत ने अपने सम्यक् संकल्प का मुख्य अंग मानकर इसको स्वीकृति दी है।

स्कंद पुराण के अनुसार अहिंसा धर्म का मूल है, अतः यह सर्वश्रेष्ठ धर्म है। योग-दर्शन में अहिंसा को धर्म के आवश्यक अंग के रूप में स्वीकारा है। महाकाव्य-काल तथा पुराण-काल में अहिंसा का व्यवहार सर्वश्रेष्ठ धर्म के रूप में हुआ है। अहिंसा के परमधर्म रूप का उल्लेख महाभारत में भी हुआ है।

‘धारयति इति धर्मः’ अर्थात् जो धारण करता है, वह धर्म है। ‘धार्यते अनेन इति धर्म:’, जिसके द्वारा धारण किया जाता है, वह धर्म है। ‘मन, वचन, कर्म से किसी को पीड़ा न देना’ धारण करने योग्य तत्त्व है। क्योंकि ‘पर पीडनम्’ को ‘पापाय’ कहा है। इसलिए अहिंसा परम धर्म है। ‘परम’ इसलिए है क्योंकि अहिंसा ईश्वर के दर्शन का सरल उपाय है। गाँधी जी कहते हैं, ‘अहिंसा में सत्यंश्वर (अर्थात् सत्य रूपी परमात्मा) के दर्शन करने का सीधा और छोटा-सा मार्ग दिखाई देता है।’

अहिंसा एक कला है। उसमें आत्यंतिक अनाग्रह अपेक्षित होता है और अपने से अधिक अन्य की सत्ता को सम्मान में रखा जाता है। सत्य के आग्रह के विपक्ष में इस नितांत अनाग्रह की अहिंसा कहेंगे।’ जैनेन्द्र जी के इन विचारों में ‘ अपने से अधिक अन्य की सत्ता के सम्मान’ पर बल है। यह वृति जब प्राणी का स्थायी मूलभूत और विशेषता बन जाती है तो वह धर्म का स्वरूप ले लेती है। यदि अहिंसा परिपूर्ण हो और साथ ही सत्य के आग्रह को भी संपूर्ण रखा जा सके तो जैनेन्द्र जी का विश्वास है कि इसमें जीवन का समग्र आदर्श प्रस्तुत हो सकता है। दूसरे शब्दों में, अहिंसा की परम-धर्मता की पुष्टि है।

ऋग्वेद में धर्म को उन्नायक (ऊँचा उठाने वाला) तथा समपोषक (प्राण तत्त्व का पालन पोषक करने वाला) तथा ‘ सुबुद्धि द्वारा निश्चित सिद्धांत’ माना गया है। रजनीश कहते हैं ‘ अहिंसा स्वयं के शरीर से ऊपर उठना है। जो शरीर में घिरा रह जाता हैं, वह हिंसा से मुक्त नहीं हो सकता।’ आद्य शंकराचार्य ने हिंसा से मुक्ति को स्वर्ग प्रदाता माना है। स्वर्ग चाहना या मोक्ष प्राप्ति मानव जीवन की चरम आकांक्षा है। इस प्रकार अहिंसा द्वारा मोक्ष का सोपान सिद्ध होना अहिंसा के परम धर्म का सत्यांकन है।

सामाजिक क्षेत्र में नियम, विधि, व्यवहार आदि के आधार पर नियत या निश्चित वे सब काम या बातें जिनका पालन समाज के अस्तित्व के लिए आवश्यक होता है, और जो प्रायः सर्वत्र सार्वजनिक रूप से मान्य होती हैं, धर्म है। धर्म की इस परिभाषा के अंतर्गत कोशकार रामचंद्र वर्मा अहिंसा, दया, न्याय, सत्यता का आचरण मनुष्य मात्र का धर्म मानते हैं। कारण अहिंसा सामाजिक धर्म बनकर ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्व संतु निरामयाः’ को चरितार्थ करती है। यहाँ आकर अहिंसा का परम धर्म रूप दिव्य होता है, दीप्त होता है।

व्यक्ति के जीवन में ‘ अहं’ का विशेष महत्त्व है, क्योंकि यह व्यक्तित्व का परिचायक है। दूषित अहं व्यक्ति के पतन का कारण है। आचार्य रजनीश की धारणा है, ‘अहिंसा है निरहंकार जीवन। अहंकार में ही सारी हिंसा छिपी हैं। अहं केन्द्रित जीवन ही हिंसक जीवन है। अहं जहाँ जितना घनीभूत हैं. वहाँ अहं’ के प्रति उतना ही विरोध और शोषण भी होगा। इसलिए मेरी दृष्टि में अहिंसा मूलतः अहंकार के विसर्जन से ही फलित होती है। जैसे पदार्थ के अणु-विस्फोट से अनंत शक्ति पैदा होती है, ऐसे ही अहं के टूटने से भी होती है। उस शक्ति का नाम है प्रेम।’ प्रेम ही अहिंसा है, जो जीवन में धर्म के सत्, चित् और आनंद रूप में दर्शन करवाती है।

अहिंसा के परम धर्म रूप में दर्शन करने हैं तो श्रीराम का जीवन देखिए। राज्य नहीं, वनवास भेजने वाली माता कैकेयी के प्रति मन, वचन, कर्म से लेशमात्र भी पीड़ा न पहुँचाने का संकल्प, अहिंसा का ज्वलंत धर्म है। ‘सीस पगा न झगा तन में, धोती फटी-सी लटी दुपटी अरु, पाँय उपानहु को नहिं सामा’ वाला दीन दरिद्र सुदामा जब द्वारकाधीश कृष्ण से मिलता है तो जिस मैत्री धर्म का पालन कृष्ण करते हैं उसमें प्रेम रूपी अहिंसा के दिव्य दर्शन होते हैं। विजय अवसर पर किसी सेना नायक द्वारा लाई गई पर सुंदरी को ‘माँ’ कहकर सुरक्षित लौटाने में शिवाजी ने ‘अहं’ का जो विसर्जन किया उसमें शिवा के ‘सत्कार’ रूपी अहिंसा धर्म की छवि निखरती है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल के मतानुसार ‘व्यवस्था या वृत्ति जिससे लोक में मंगल का विधान होता है, अभ्युदय की सिद्धि होती है, उसे धर्म कहते हैं। यही व्यक्तिगत सफलता जिसे ‘नीति’ कहते हैं, सामाजिक आदर्श की सफलता का साधक होकर धर्म हो जाता है।’ जब यह अभ्युदय की सिद्धि और सामाजिक सफलता संशय रहित सर्वोत्तम को चिह्नित करती है तो ‘परम धर्म’ संज्ञा से विभूषित होती है। अहिंसा जब ‘आत्मवत् सर्व भूतेषु’ का चिंतन जागृत कर ‘सर्व भूतेषु कल्याणेषु’ को स्वप्न साकार करती है तो जीवन में आनंद का अजस्र स्रोत प्रवहमान हो उठता है। यही ‘अहिंसा परमोधर्मः ‘ की मंगलमयी परिणति है, चरितार्थता है, सार्थकता है।

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