संकेत बिंदु – (1) सूक्ति का अर्थ (2) अल्पज्ञ और अज्ञानी अपने ज्ञान का प्रदर्शन बढ़-चढ़कर (3) आज का हिंदी साहित्य सूक्ति का पर्याय (4) संसद, मेडिकल और धर्म की अथजल गगरी (5) उपसंहार।
आधी भरी गगरी का जल छलकन ही नहीं, शोर भी मचाता है। ‘संपूर्ण कुम्भो न करोति शब्दम। अर्धोघटो घोष मुपैति नूनम्।’ आधी गगरी में पानी हिल-हिल कर अपनी ध्वनि से अपने अस्तित्व का बोध भी कराता है, जबकि आकंठ भरी गगरी का छल छलकेंगा, पर शोर नहीं मचाएगा। विद्वान, सुसंस्कृत, सुसभ्य मानव जलपूर्ण गगरी के समान गंभीर, शांत होते हैं, जबकि अल्पज्ञ, अज्ञानी, चंचल और समाजद्रोही तत्त्व अधजल गगरी के समान दिखावा करेंगे, अपने अस्तित्व को अनुभूति कराएँगे।
सवल आत्मा भरी गगरी हैं, जो स्वतः छलकती है। निर्बल आत्मा अपनी आंतरिक शांति को तिल-तिल जलाकर प्रदर्शित करती है। ‘होई विवेक मोह भ्रम भागा’ पूर्ण जल-युक्त गगरी की पहचान है। मोह-भ्रम से युक्त अल्प-त्रिवेकी अपने पराक्रम का दिखावा करता है। ‘बुद्धि’ जल पूर्ण गगरी के समान ‘बुद्धिमान’ में अपना अस्तित्व प्रकट करती हैं।
अल्पज्ञ और अज्ञानी अपने ज्ञान का प्रदर्शन बढ़-चढ़ कर करते हैं। सड़क छाप ज्योतिषी अपने को ज्योतिषाचार्य कहेगा। पटरी पर दवा बेचने वाला अपने को डॉक्टर का बाप बताएगा, धनवंतरी का पट-शिष्य बताएगा। घर-घर आशीर्वाद बाँटते साधु अपने ‘स्वाद’ का प्रदर्शन करेंगे। कविता की पहचान से अनभिज्ञ पर रंग-मंच पर गला फाड़ सफल कवियों पर ‘अज्ञेय’ जी ने अधजल गगरी के छलकने का प्रतीक रूप में कैसा सुंदर चित्रण किया है-
किसी को शब्द हैं कंकड़
कूट लो, पीस लो
छान लो, डिबिया में डाल लो
थोड़ी-सी सुगंध दे के
कभी किसी मेले के रेले में
कुंकुम के नाम पर निकाल दो।
भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने अपने निबंध ‘अद्भुत अपूर्व स्वप्न’ में विद्यालय के अध्यापकों की विशेषताओं द्वारा ‘अधजल गगरी छलकत जाए’ पर तीव्र व्यंग्य किया है। विद्यालय के पाँचों पंडित अध्यापक ‘यथानाम तथा गुण’ के अनुसार किस सुंदरता से छलकते हैं, जरा देखिए।
मुग्धमणि जी – नाम के अर्थ के अनुसार ही छात्रों को मुग्ध कर देने वाले मूर्ख को विद्वान और विद्वान को मूर्ख बनाने वाले थे। पाखंडप्रिय जी – धार्मिक पाखंड फैलाने में निपुण थे। प्राणांतक वैद्यराज-औषध देकर रोगी के प्राणहरण करने में दक्ष थे। लुप्तलोचन ज्योतिषाभरण – स्वयं अन्धं थे, पर अपने को नवीन तारों के ज्ञाता मानते थे। वे ज्योतिष के प्रकाश के स्थान पर अंधकार फैलाने में ही पटु थे। शीलदावानल नीति दर्पण – अपने नाम के ही अनुरूप शील-सदाचार को भस्म करके दुराचार और अन्याय का प्रशिक्षण देने वाले थे।
आज का हिंदी साहित्य अधजल गगरी छलकत जाए का सुंदर उदाहरण हैं। आज साहित्य के नाम पर बहुत अनाप-शनाप लिखा जा रहा है। हर ‘अधजल’ साहित्यकार प्रकाशित रचना की ‘गगरी’ में छलक रहा है। जिसमें तुक नहीं, लय नहीं, छंद नहीं, पंक्तियों की एकरूपता नहीं, भाव का गांभीर्य नहीं, अभिव्यक्ति की क्षमता नहीं, फिर भी वह कविता हैं। कहानी ने तो नई कहानी, अ-कहानी, संचेतन कहानी, पता नहीं कितनी चादरें ओढ़ी हैं। कथ्य नहीं, शिल्प नहीं, रोचकता नहीं फिर भी उपन्यास धड़ाधड़ छप रहे हैं। छपना तो अधजल गगरी का छलकना है, किंतु जब ये पुरस्कृत होते हैं, तो लगता है अधजल गगरी के छलकन को ही श्रेष्ठ प्रमाणित किया जा रहा है।
ये ही अधजल के प्रतीक पंडित, स्वनाम धन्य साहित्यकार जब हिंदी समितियों के अध्यक्ष तथा सम्मानीय सदस्य बनते हैं तो उस ‘गगरी’ के ‘जल’ को इतना छलकाते हैं कि हिंदी – शिक्षकों को नानी दादी याद आ जाती है और विद्यार्थियों की योग्यता पर प्रश्नचिह्न लग जाता है। हिंदी पाठ्य-पुस्तकें ‘अशुद्ध छपें’, यह इनकी नैतिक विजय है। उसकी सामग्री बेशक ‘कूड़ा’ हो पर उसमें चहते चौकड़ी मारकर बैठे हैं। वर्ष के बीच में पाठ्यक्रम बदल देना, अधिकार का दुरुपयोग है।
संसद और विधानसभाओं के मान्य सदस्यों की अधजल गगरी जब छलकती है तो संसद रूपी गगरी में तूफान उठता है। वक्तृत्व चातुर्य का स्थान गाली-गलौच; तर्क का स्थान वितंडावाद और नारे बाजी गरिमा का स्थान हाथा-पाई लेता है। यह अधजल इतना उछलता है कि नियंत्रण तथा अनुशासन पीठासीन अध्यक्ष के सामने उसकी औकात पूछ रहे होते हैं।
धर्म की अधजल गगरी छलकती है तो लोग चौराहों तथा कब्रों को पूजते हैं। मिट्टी के ढेले में गणेश जी के दर्शन करते हैं। गेरुए वस्त्र पहने हर ढोंगी में महान साधु की आत्मा के दर्शन करते हैं। माँस का भक्षण करने वाले अहिंसा में विश्वास व्यक्त करते हैं। सामाजिक मान-सम्मान में जब अधजल गगरी छलकती हैं तो ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ की झड़ी लग जाती है। नैतिकता नग्नता का रूप लेती है और नग्नत फैशन का जातिवाद का सूर्य गर्व से चमकता है तो छुआ-छूत का चंद्रमा अपनी शीतलता में अग्नि बरसाता है। राष्ट्रपिता की मिट्टी पलीद होती है और वह शैतान की औलाद कही जाती है।
आज का भारत उस ‘गगरी’ का प्रतीक है जिसके मंत्रीगण अपने ‘अधजल जैसे’ ज्ञान से भारत के भाल को छलका रहे हैं। विश्व प्रांगण में गिरती प्रतिष्ठा, विश्व शक्ति का भारतीय नीति पर दबाव, भारत की मृत प्रायः नैतिकता, अरबों रुपयों के उधार में उपजी आर्थिक विपन्नता, विदेशी पूँजी, विदेशी संस्कृति तथा सभ्यता का बढ़ता वर्चस्व, प्रांतीय सरकारों की अस्थिरता तथा कानून और अनुशासन की हीनता तथा महँगाई की मार से जब भारतवासी सुबक-सुबक कर रोता है और अपने विभाग के विशेषज्ञ मंत्री उज्ज्वल स्वप्नों के स्वर्णिम क्षितिज दिखाते हैं तो बुद्धिमान, पंडित और ज्ञानी भारतवासी, प्रौढ़ और चतुर राजनीतिज्ञ को भी मानना पड़ता है कि अधजल गगरी छलकती ही है।
अधजल गगरी का छलकते जाना उसका स्वभाव हैं, उसकी प्रकृति है। प्रकृति में परिवर्तन कठिन ही नहीं असंभव है। नीम के साथ गुड़ खाने पर भी नीम अपने स्वभाव को प्रकट करता ही है, इसी प्रकार ओछा और छोटा आदमी दिखावा करेगा ही।