संकेत बिंदु – (1) अंत्याक्षरी प्रतियोगिता की सच्ची कथा (2) प्रतियोगिता के नियम और तैयारी (3) मन में उत्साह और प्रतियोगिता की तैयारी (4) प्रतियोगिता से अनेक प्रतियोगी बाहर (5) प्रतियोगिता के अंतिम दौर में मेरी जीत।
आइए, मैं अपनी एक ऐसी प्रतियोगिता की सत्य – कथा सुनाती हूँ, जिसे जीवन में भूल पाना कठिन है। मन-मस्तिष्क से हटा पाना दुष्कर है। स्मृति पटल से विस्मरण कर पाना असंभव है।
दिल्ली- स्कूल अंत्याक्षरी प्रतियोगिता। बाल दिवस की पूर्व संध्या। स्थान है, दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी, श्यामाप्रसाद मुखर्जी मार्ग, दिल्ली का सभागार। समय है, चार बजे सायं। दिल्ली के 399 स्कूलों के 3999 प्रतियोगी अंत्याक्षरी प्रतियोगिता में भाग लेने उपस्थित थे। मंच पर विराजमान थे तीन निर्णायक तथा चौथे संयोजक महोदय। मुख्य अतिथि थे शिक्षा निदेशक।
प्रतियोगिता में विजेताओं के लिए तीन पुरस्कार थे – 1001, 501 तथा 251 रुपये नकद तथा तीन कप प्रथम स्थान प्राप्त करने वाले छात्र के विद्यालय को चल वैजयंती भी दी जाने वाली थी।
नियम यह रखा गया कि विद्यार्थी यदि एक सेकिण्ड में किसी छंद के अंतिम अक्षर से कोई पद्य, कवित्त या दोहा नहीं बोलता, तो उसे ‘आउट’ समझा जाए। वह उठकर पीछे की सीट पर बैठ जाए। केवल हिंदी कवि कवयित्रियों के पद्य ही अंत्याक्षरी में बोले जा सकते थे, अन्य नहीं फिल्मी गीत तो बिल्कुल नहीं।
मैं अपने विद्यालय लक्ष्मी देवी जैन गर्ल्स सीनियर सेकंडरी स्कूल, पहाड़ी धीरज की ओर से इस प्रतियोगिता में भाग ले रही थी। मेरी हिंदी अध्यापिका डॉ. सुषमा गुप्ता ने मेरे साथ कठोर परिश्रम किया था। उन्होंने सुप्रसिद्ध हिंदी कवि तथा कवयित्रियों के पद्य छाँटकर मुझे दिए थे, कंठस्थ करवाए थे। मैंने भी इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था। एक मास से निरंतर अभ्यास कर रही थी। पद्य के शुद्ध उच्चारण और लय पर विशेष बल था।
मन में उत्साह था। विस्मरण की चिंता न थी। स्कूल का नाम रोशन करने की तमन्ना थी। एक सहस्र एक की राशि प्राप्ति की करतल ध्वनि के बीच पुष्प माला पहनने, अध्यापिकाओं से आशीर्वाद लेने तीव्र आकांक्षा थी। संयोजक ने शिक्षा निदेशक महोदय से अक्षर देने की प्रार्थना की। उन्होंने अक्षर न देकर प्रसाद जी के प्रयाण गीत का एक पद्य सुनाया-
अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़ प्रतिज्ञ सोच लो।
प्रशस्त पुण्य पंथ है, बढ़े चलो, बढ़े चलो॥
इस प्रकार ‘ल’ वर्ण से अंत्याक्षरी का प्रारंभ हुआ। जैसे-जैसे अंत्याक्षरी प्रतियोगिता बढ़ रही थी, वैसे-वैसे प्रतियोगियों के मुख से उच्चारित काव्य-श्रवण में आनंद आ रहा था। अनुभव हुआ कि अध्यापक-अध्यापिकाओं ने सचमुच तैयारी करवाई है। प्रथम चक्र में 399 छात्रों में मुश्किल से 21 विद्यार्थी ‘आउट’ हुए।
दूसरा चक्र आरंभ हुआ तो पहले ही छात्र ने ‘पीठ’ शब्द पर अपना दोहा समाप्त किया। ‘ठ’ पर धड़ाधड़ छात्र-छात्राएँ उड़ने लगे। ‘ठ’ ने 50-60 छात्रों को ठोकर मार दी। आयी मेरी बारी – मैंने मैथिलीशरण गुप्त का यह दोहा सुनाकर अंत्याक्षरी को गति प्रदान की- ठहर अरी, इस हृदय में, लगी विरह की आग।
तालवृन्त से और भी, धधक उठेगी जाग॥
अंत्याक्षरी रुकती, प्रतियोगियों को ‘आउट’ करती, पुनः अग्रसर होती चलती रही। दसवें चक्र में केवल दस छात्र-छात्राएँ रह गईं- 9 छात्राएँ तथा 1 छात्र।
दस दौर और चले। ट, ठ, ड की त्रिमूर्ति ने सात विद्याथियों को आउट कर दिया। शेष तीन में से एक मैं भी थी। मुझे लगा कि प्रथम आने का एक ही उपाय है कि विरोधियों को क्ष, त्र, ज्ञ पर अटकाया जाए। दूसरे, दोनों प्रतियोगी भी शायद इन्हीं वर्णों के चक्कर में फँसाकर परास्त करना चाहते थे। अचानक मेरे पल्ले ‘क्ष’ पड़ा। मैंने रघुवीर शरण ‘मित्र’ का दोहा बोला-
क्षमा पुरुष का कवच है, साहस नर का अस्त्र।
धैर्य पुरुष का धर्म है, त्याग पुरुष का शस्त्र॥
मेरे साथ बैठी लड़की ‘त्र’ पर न बोल सकी। उसके बाद लड़के की बारी थी। वह सरस्वती का वरद पुत्र होने की क्षमता प्रकट करना चाहता था। उसने कबीर का दोहा सुना दिया-
त्रिया, त्रिष्णा, पापणी, तासु प्रीति न जोड़ि।
पैड़ी चढ़ि पाछाँ पड़े, लागै मोरि खोड़ि॥
तृतीय का निश्चय हो चुका था। रह गए मैं और एक छात्र लगे एक दूसरे से प्रथम पुरस्कार छीनने का प्रयास करने प्रतियोगिता का दौर चल रहा था, पर द्रौपदी का चीर समाप्त होने में नहीं आ रहा था। इस बीच मुझे एक उपाय सूझा। मैंने एक गिलास पानी माँगा। पानी आने तक विश्राम चाहा। दो क्षण मिले सुस्ताने को सोचने को। मुझे ‘म’ से बोलना था। एक कविता पंक्ति स्वयं गढ़ डाली-
मन वचन कर्म से करे कृतार्थ।
सदा रहो जीवनान्त कृतज्ञ॥
‘ज्ञ’ पर अपने को विचलित देख, उस छात्र का अध्यापक चिल्ला उठे, ‘यह पद गलत है।’ पर निर्णायक- त्रिमूर्ति ने उनकी बात नहीं मानी। घड़ी टिक टिक कर चलती रही, सेकिण्ड समाप्ति पर आया। इधर निर्णायक ने घंटी बजाई, 5-4 मिनट के वाद-विवाद में निर्णय हुआ कि लड़का तभी हारा माना जाएगा, जब लड़की ‘ज्ञ’ पर बोल दे। मैं पहले से ही तैयार थी। लड़के के अध्यापक की ओर इशारा करके बोली-
ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्न है, इच्छा क्यों पूरी हो मन की।
एक दूसरे से न मिल सके, यह बिडंबना है जीवन की॥
हॉल तालियों से गूँज उठा। मेरा चेहरा विजय से दमक उठा। कल्पना साकार हुई। मुझे पुष्पहार पहनाया गया, फोटो खींचे गए। एक हजार एक रुपए पुष्पाच्छादित प्लेट में रखकर दिए गए। स्कूल की ओर से डॉ. सुषमा गुप्ता ने शील्ड ग्रहण की।
अपनी प्रत्युत्पन्नमति से जीती हुई उस प्रतियोगिता को भूल पाना, संभव नहीं, मेरे लिए।