संकेत बिंदु-(1) शीर्षक का अर्थ (2) उद्योगों की प्रगति और वनों का विनाश (3) सिकुड़ते वनों से अनेक हानियाँ (4) सिकुड़ते वन सामूहिक आयामों में खिंचाव (5) उपसंहार।
‘बढ़ती सभ्यता’ समाज की आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक सिद्धियों की प्रगति का द्योतक है, तो ‘सिकुड़ते वन’ जंगल, आवास स्थान तथा बाग-बगीचों के विस्तार की कमी के प्रतीक हैं। ‘बढ़ती सभ्यता’ मानव समाज की बाह्य और भौतिक उपलब्धियों का मापक है, तो ‘सिकुड़ते वन’ सामूहिक आयाम में खिंचाव के परिचायक हैं। एक ओर विनम्रता, सुशीलता और कुलीनता की ओर समाज का झुकाव ‘बढ़ती सभ्यता’ कहलाती है, तो दूसरी ओर प्रकाश किरणों का अवरोध ‘सिकुड़ते वन’ की संज्ञा है।
भारतीय सभ्यता आज प्रगति की दिशा में अग्रसर है। ग्राम और नगरों का रूपपरिवर्तन हो रहा है। उनके सौंदर्य को निखारा जा रहा है। विद्युत् का प्रकाश सर्वत्र चकाचौंध उत्पन्न कर रहा है। परिवहन साधनों का विकास हो रहा है। तीव्रगामी परिवहन साधन समय की बचत कर रहे हैं। यातायात के अनेकविध साधन उपलब्ध हैं। निवास के लिए सुदृढ़ मकान, परिधान के लिए ऋतु अनुकूल बढ़िया से बढ़िया वस्त्र तथा उदर-पूर्ति के लिए सभी प्रकार के सुस्वादु खाद्य-पदार्थों की वृद्धि हो रही हैं।
देश में बढ़ते उद्योग सभ्यता की प्रगति के सोपान हैं। भौतिक उपलब्धियाँ राष्ट्र की सुख-समृद्धि की कुंजी सिद्ध हो रही हैं। सरल-समृद्ध संचार व्यवस्था को प्रगति पथ पर अग्रसर कर रही है, बढ़ती शिक्षा ने मानव में सुसंस्कृत भाव को जागृत किया। नारी पर्दे से बाहर निकलकर प्रगतिशील बन पुरुष से कंधे से कंधा मिलाने लगी है।
नागर सभ्यता बढ़ी, किंतु वन सिकुड़ते गए। बढ़ती जनसंख्या की आवश्यकताओं ने उपवन और वन की भूमि को हरियाली से वंचित होने को विवश किया। भवनों के निर्माण के लिए अतिरिक्त भूमि चाहिए। अतिरिक्त भूमि शांत वन-प्रदेश से ही प्राप्त हो सकती थी। दूसरे, ऊर्जा की आवश्यकता दिन-प्रतिदिन बढ़ती गई। परिणामतः पेड़ कटने लगे। कटते पेड़ इमारती लकड़ी और ईंधन का अकाल उत्पन्न कर रहे हैं। सिकुड़ते वनों से देश की हरियाली घटी, मरुस्थल का फैलाव बढ़ा। वन मिट्टी के कटाव को रोकते हैं। वह अब कम मात्रा में रुकता है। मैदानी वनों के कारण हवा का वेग रुकता था और पहाड़ी वनों के कारण वर्षा होती थी और वर्षा जल का प्रभाव भी कम होता था, वह सिकुड़ते वनों के कारण अप्रभावित रहने लगे।
सिकुड़ते वनों का ही प्रभाव है कि कागज निर्माण के लिए बाँस की लकड़ी और घास की कमी पड़ने लगी और देश में कागज की कमी हो गई। फलत: विदेशों से कागज आयात करने के लिए सरकार को बाध्य होना पड़ा। लाख और तारपीन भी वनों से मिलता है, जो खिलौने बनाने और रंग में मिलाने के काम आता है। सिकुड़ते वन लाख और तारपीन उद्योग को चौपट कर रहे हैं।
वनों से जड़ी-बूटियाँ मिलती हैं, जिनसे दवाइयाँ बनती हैं। खैर पेड़ की लकड़ी से कत्था और तेन्दू वृक्ष के पत्तों से बीड़ी बनती हैं। नीलगिरि के वनों से रबड़ मिलता है। सिकुड़ते वनों के कारण वनस्पतियों की अनेक प्रजातियों के विनाश से शुद्ध दवाइयों के अभाव में जीवन और जगत्, दोनों के चौपट हो जाने का भय है।
वन वर्षा के निमंत्रणदाता तथा नियंत्रक हैं। सिकुड़ते वनों ने वर्षा का निमंत्रण वापिस ले लिया तथा नियंत्रण खो दिया। परिणामतः वर्षा के अभाव में देश कहीं सूखे से पीड़ित है, तो कहीं अनियंत्रित, असामयिक वर्षा हरी-भरी खेती को चौपट कर रही है। उस प्रकार देश अकाल का ग्रास बन रहा है।
‘सिकुड़ते वन’ का अर्थ है सामूहिक आयामों में खिंचाव। विकासशील सभ्यता का यह दुर्गुण सामूहिक मान्यताओं को चहुँ ओर से विशृंखलित करने के लिए कटिबद्ध है।
समाज जाति-उपजाति तथा ऊँच-नीच वर्गों में विभक्त होता जा रहा है। धार्मिक दृष्टि में मत-मतांतरों ने अनेक संप्रदायों का निर्माण कर दिया है। पृथक्ता की असहिष्णुता ने समाज को डस लिया। सिक्ख विद्रोह, हिंदू-मुस्लिम दंगे सामूहिक मान्यताओं में खिंचाव के परिणाम ही तो हैं। राजनीतिक दल पार्टी-दर पार्टी में टूट रहे हैं, परिवार सामूहिक मान्यताओं की लक्ष्मण-रेखा में बँधना नहीं चाहते, इसलिए टूट रहे हैं। शिक्षा जगत राजनीति की चौखट पर सिर मार-मार कर बिखर रहा है।
देश में सदा ही मर्यादा, परंपरा, सभ्यता और संस्कृति के प्रहरी, संरक्षक-प्रवर्तक और नियामक रहे हैं और आज भी हैं। अंतर इतना ही है कि ‘जनप्रतिनिधियों की कार्य-पद्धति और रवैये ने आम जनता को एक के बाद एक निरंतर अनेक झटके दिए, जिससे उसकी आस्थाओं को, उसके विश्वास और आशाओं को गहरे आघात लगे। ‘एक ओर देश आर्थिक प्रगति और विकास की ओर बढ़ता रहा, दूसरी ओर गरीबी की रेखा के नीचे गिरते जाने वाली जनसंख्या का प्रतिशत बढ़ता रहा। एक और दुष्परिणाम सामने आया-स्वदेश का धनिक वर्ग शक्तिशाली होता गया। उसने न केवल अर्थतंत्र पर, अपितु शासन पर भी अपना कब्जा जमा रखा है। शासकीय बहानों और नौकरशाही की दलीलों ने इसका औचित्य सिद्ध करने के लिए कोई कसर न छोड़ी। इस प्रकार देश का शोषण जीवन-मूल्यों के प्रकाश की खोज में भटक रहा है।’
आज समाज में सभ्यता के पर्याय विनम्रता, सुशीलता और कुलीनता बढ़ रही हैं, तो दूसरी ओर व्यक्ति-बोध के अंकुर, अहम् का झूठा अभिमान, परंपराओं और मान्यताओं के प्रति विकर्षण बढ़कर जीवन के लहलहाते बाग-बगीचे, हरियाली-प्रदाता वनों तथा सामूहिक पारिवारिकता को सिकुड़ते-सिमटने के लिए विवश कर रहा है।