संकेत बिंदु – (1) नव वर्ष और कृषि पर्व के रूप में (2) ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण (3) मेष संक्रांति के रूप में (4) पंजाबियों का आत्मगौरव (5) उपसंहार।
भारत में काल-गणना चांद्र मासों और सौर मासों के आधार पर होती है। जिस प्रकार चांद्र गणना के आधार पर चैत्र शुक्ल प्रतिपदा वर्ष का प्रथम दिन है, उसी प्रकार बैसाखी, मेष- संक्रांति अथवा विषुवत् संक्रांति सौर नववर्ष का प्रथम दिवस हैं। पंजाब, सीमा प्रांत, हिमाचल, जम्मू प्रांतों में, उत्तर प्रदेश के गढ़वाल, कुमायूँ तथा नेपाल में, यह दिन नव वर्ष के रूप में ही मनाया जाता है।
हाँ, बैसाखी पंजाब और पंजाबियों का महान् पर्व है। खेत में खड़ी फसल पर हर्षोल्लास प्रकट करने का दिन है। धार्मिक चेतना और राष्ट्रीय जागरण का स्मृति दिवस है। खालसा पंथ का स्थापना दिन भी है।
बैसाखी मुख्यतः कृषि पर्व है। पंजाब की शस्यश्यामला भूमि में जब चैती (रबी की) फसल पक कर तैयार हो जाती है और वहाँ का ‘बाँका छैल जवान’ उस अन्न-धन रूपी लक्ष्मी को संगृहीत करने के लिए लालायित हो उठता है, तो वह प्रसन्नता से मस्ती में नाच उठता है।
ऐतिहासिक दृष्टि से भी बैसाखी का दिन बहुत महत्त्वपूर्ण है। औरंगजेब के अत्याचारों से भारत भू को मुक्त कराने एवं हिंदू धर्म की रक्षा के लिए सिक्खों के दसवें, किंतु अंतिम गुरु, गोविंदसिंह ने सन् 1699 में ‘खालसा पंथ’ की स्थापना इसी शुभ दिन (बैसाखी पर) की थी।
13 अप्रैल, 1919 को बैसाखी के पावन पर्व पर भारत में ‘रोलेट ऐक्ट’ तथा अमृतसर में ‘मार्शल लॉ’ लागू करने के विरोध में अमृतसर के स्वर्ण मंदिर के समीप जलियाँवाला बाग में एक महती सभा हुई थी। इस बाग के एकमात्र द्वार पर जनरल डायर ने अधिकार करके बिना कोई चेतावनी दिए सभा पर गोली बरसाना आरंभ कर दिया। इस नृशंस हत्याकांड में 1500 व्यक्ति या तो मारे गए या मरणासन्न हो गए। अनेक लोग अपनी जान बचाने के लिए कुए में कूद पड़े। चार पाँच सौ व्यक्ति ही जीवित बच जाए। शहीदों की स्मृति में ‘जलियाँवाला बाग समिति’ ने लाल पत्थरों का सुंदर स्मारक बनवाया है।
भारत में महीनों के नाम नक्षत्रों के आधार पर रखे गए हैं। बैसाखी के समय आकाश में विशाखा नक्षत्र होता है। विशाखा नक्षत्र युता पूर्णिमा मास में होने के कारण इस मास को बैसाख कहते हैं। इसी कारण बैसाख मास के प्रथम दिन को ‘बैसाखी’ नाम दिया गया और पर्व के रूप में स्वीकार किया गया।
बैसाखी के दिन सूर्य मेष राशि में संक्रमण करता है, अत: इसे ‘मेष संक्रांति’ भी कहते हैं। रात-दिन एक समान होने के कारण इस दिन को ‘संवत्हार’ भी कहा जाता है। पद्म- पुराण में बैसाख मास को भगवत्प्रिय होने के कारण ‘माधवमास’ कहा गया है। अतः इस मास में तीर्थों पर कुम्भों का आयोजन करने की परंपरा है।
बैसाखी के दिन समस्त उत्तर भारत में पवित्र नदियों एवं सरोवरों में स्नान करने का माहात्म्य है। अतः सभी नर-नारी, चाहे खालसा पंथ के अनुयायी हों अथवा वैष्णव धर्म के, प्रातः काल पवित्र सरोवर अथवा नदी में स्नान करना पुण्य समझते हैं। इस दिन गुरुद्वारों और मंदिरों में विशिष्ट उत्सव मनाया जाता है।
सौर नववर्ष या मेष संक्रांति के कारण पर्वतीय अंचल में इस त्योहार का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। गढ़वाल, कुमाऊँ, हिमाचल प्रदेश आदि सभी पर्वतीय प्रदेशों में और नेपाल में इस दिन अनेक स्थानों पर मेले लगते हैं। ये मेले अधिकांशतः उन स्थानों पर लगते हैं, जहाँ दुर्गा देवी के मंदिर हैं या गंगा आदि पवित्र नदियाँ हैं। लोग इस दिन श्रद्धापूर्वक देवी की पूजा करते हैं और नए-नए वस्त्र धारण कर उल्लास के साथ मेला देखने जाते हैं। न केवल उत्तर में, अपितु उत्तर पूर्वी सीमा के असम प्रदेश में भी मेष संक्रांति आने पर ‘बिहू’ पर्व मनाया जाता है।
बैसाख मास में वसंत ऋतु अपने पूर्ण यौवन पर होती है। अतः बैसाखी का त्योहार प्राकृतिक शोभा और वातावरण की मधुरता के कारण भी महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। इस वातावरण में जन-जीवन में उल्लास एवं उत्साह का संचार होना स्वाभाविक ही है।
आमोद-प्रमोद की दृष्टि से पंजाब में ढोल की आवाज और भाँगड़ा की धुन पर अनगिनत पाँव थिरक उठते हैं। नृत्य में ऊँचा उछलना, कूदना – फाँदना एवं एक-दूसरे को कन्धे पर उठाकर नृत्य करना भाँगड़ा की विशिष्ट पद्धतियाँ हैं। तुर्रेदार रंग-बिरंगी पगड़ी, रंगीन कसीदा की हुई बास्कट नृत्य के विशिष्ट और प्रिय परिधान हैं।
बैसाखी पर पंजाबियों का आत्मगौरव दर्शनीय होता है। ‘देश मेरा पंजाब नी, होर बस्से कुल जहान’ में उसका पंजाब के प्रति गर्व टपकता है। ‘गबरु मेरे देश दा, बाँका छैल जवान’ में उसके पुरुषों का पौरुष झलकता है। ‘मेहनत ऐसे जवान दी, सोना दये पसार’ में पंजाब का परिश्रम और पुरुषार्थ प्रकट होता है। ‘नड्डी देश पंजाब दीं, हीरा बिचों हीर’ में पंजाब की नारी का अनिन्द्य सौंदर्य दमकता है।
बैसाखी हर साल अंग्रेजी कलेण्डर के अनुसार प्राय: 13 अप्रैल को आती है। (कभी बारह-तेरह वर्ष में 14 तारीख भी हो जाती है) और पंजाब की आत्मा को झझकोरती है, पर दुर्भाग्य से आज वह आत्मा विभक्त है। मंथरा रूपी राजनीति ने पंजाब के राम और भरत को विभक्त कर दिया है। आज वहाँ की शस्यश्यामला भूमि अन्नं के साथ फूट के काँटे भी पैदा करती है। आज बैसाखी पर नाचने वाले’ भंगड़े’ में शिव के तांडव का विध्वंस प्रकट होता है। इसलिए आज बैसाखी आकर पंजाब के तरुणवर्ग को याद दिलाती है-उस खालसा पंथ की, जो हिंदू संरक्षण की प्राचीर थी। वह याद दिलाती है उस भाई-चारे की जहाँ माता दश गुरुओं के ऋण को उतारने के लिए अपने ज्येष्ठ पुत्र को गुरु के चरणों में समर्पित कर ‘सिक्ख’ बनाती थी। पंजाब की धरती माँ बैसाखी के पावन पर्व पर दोनों बंधुओं से अभ्यर्थना करती है, ‘हो मेरे पुतरो! तुसी एक होकर रह्यो। त्वाडी एकता विच ही देश ही आन-बान-शान है।’