Lets see Essays

बेसिक शिक्षा

basic shiksha in uttar pradesh par nibansh

(1) प्रस्तावना – वर्त्तमान शिक्षा पद्धति से संतोष

(2) महात्मा गाँधी की शिक्षा योजना

(3) बेसिक शिक्षा की प्रधान विशेषताएँ

(4) बेसिक शिक्षा के पाठ्यक्रम की उल्लेखनीय बातें

(5) उपसंहार – बेकारी ग्रामों की शिक्षा का निराकरण

कुछ काल से हमारे देश में जिन अनेक बातों से असंतोष फैला हुआ था उनमें शिक्षा प्रणाली भी एक थी। शिक्षा पद्धति के विरुद्ध देश के कोने-कोने में आवाज उठाई जा रही थी। प्रत्येक व्यक्ति जानता था कि इससे समाज को कितनी हानि हुई थी, इससे देश कितना नीचे गिरा था शिक्षित बेकारों की भीषण समस्या का उत्तर- दायित्व भी इसी पर था। हमारी शिक्षा प्रणाली का जन्म जिस ध्येय (कार्यालयों के लिए लेखक तैयार करना) को लेकर हुआ था उसकी पूर्ति आवश्यकता से अधिक हो गई। परिवर्तित देशकालानुसार शिक्षा का ध्येय और प्रणाली दोनों में उलट-फेर को आवश्यकता थी, इस बात का प्रत्येक भारतीय अनुभव करता था।

विश्ववन्द्य महात्मा गाँधी की दृष्टि इस दूषित शिक्षा पद्धति पर बहुत दिनों से पड़ रही थी, पर वे उपयुक्त समय की प्रतीक्षा कर रहे थे। कांग्रेस मंत्रि-मंडल की स्थापना हो जाने पर महात्माजी ने अपने शिक्षा-सुधार संबंधीविचारों को जनता के सम्मुख उपस्थित किया। उनका ध्यान विशेषकर प्रारम्भिक शिक्षा की ओर गया और उन्होंने अपने कर-कमलों से एक शिक्षा योजना का सूत्रपात किया जिसे ‘वर्धा शिक्षा योजना’ कहते हैं। हमारी सरकार में इस शिक्षा योजना में प्रांतीय आवश्यकताओं के अनुसार थोड़ा-बहुत परिवर्तन करके उसे संयुक्त प्रांत के लिए स्वीकार किया है और उसे ‘बेसिक शिक्षा’ के नाम से विभूषित किया है। बेसिक शिक्षा की प्रधान विशेषताएँ चार हैं जो इस प्रकार हैं-

(1) 6 वर्ष की अवस्था से 14 वर्ष की अवस्था तक के प्रत्येक बालक-बालिका के लिए निःशुल्क अनिवार्य शिक्षा का विधान किया गया है।

(2) शिक्षा का माध्यम हिंदी रखा गया है।

(3) शिक्षा में हस्तकलाओं को स्थान दिया गया है।

(4) हस्तकलाओं अथवा बालक-बालिका के घरेलू या सामा- जिक वातावरण द्वारा शिक्षा प्रदान की व्यवस्था की गई है। अर्थात् विभिन्न विषयों के ज्ञान का आधार बच्चे के दैनिक जीवन अथवा हस्तकला रखी गई है। इसे समन्वय (correlation) का सिद्धांत कहते हैं।

इन्हीं चार आधार स्तम्भों पर बेसिक शिक्षा का भवन खड़ा किया गया है। इसके पाठ्यक्रम की कुछ बातें उल्लेखनीय हैं। एक बात तो अँग्रेजी भाषा का बहिष्कार है; और दूसरी नागरिक शास्त्र के अध्ययन का स्थान है। हस्तकला की शिक्षा को दो वर्गों में विभाजित कर दिया गया है—अनिवार्य हस्तकला और वैकल्पिक हस्तकला। अनिवार्य हस्तकला के लिए कताई और कृषि और बाग- वानी का साधारण ज्ञान रखा गया है। वैकल्पिक हस्तकला के लिए (1) कताई बुनाई, (2) कृषि, (3) दफ्ती, लकड़ी और धातु का उद्योग, (4) चमड़े का धन्धा, (5) मिट्टी का काम, आदि में से किसी एक का अध्ययन रखा गया है। बालक बालिकाओं का पाठ्यक्रम समान रखा गया है। हाँ, बालिकाओं को गृह-शिल्प का ज्ञान प्राप्त करना पड़ेगा। गाँवों में 10 वर्ष की आयु तक और नगरों में 6 वर्ष की अवस्था तक बालिकाओं को बालकों के साथ ही पढ़ने की व्यवस्था की गई है। तत्पश्चात् उनके लिए पृथक स्कूलों की व्यवस्था है।

बेसिक शिक्षा में सर्वप्रथम स्थान हस्तकला की शिक्षा को मिला है। सच पूछिए तो नवीन शिक्षा रूपी काया का मेरुदण्ड ही इसको माना गया है। आजकल के शिक्षा शास्त्री प्रारम्भिक शिक्षा में हस्तकला को सर्वोच्च स्थान देते हैं। उनकी धारणा है कि बालकों के शारीरिक, मानसिक एवं आत्म विकास के लिए इसका बड़ा महत्त्व है। यह तो हुत्रा हस्तकला का शिक्षा संबंधीमहत्त्व। अब जीविका संबंधीमहत्त्व लीजिए। विभिन्न हस्तकलाओं की शिक्षा प्राप्त करके बालक बड़े होकर उन्हें जीविकोपार्जन का साधन बना सकते हैं।

हस्तकला के ज्ञान के अतिरिक्त अन्य विषयों का उससे समन्वय बेसिक शिक्षा की सबसे बड़ी विशेषता है। समन्वय क्या है, यह एक उदाहरण से स्पष्ट हो जाएगा। मान लीजिए हमें गणित पढ़ाना है। इस विषय का समन्वय हम कताई से कर सकते हैं। जोड़, बाकी, गुणा, भाग आदि की प्रतिक्रियाएँ लट्टी या गुण्डो बनाना, कताई की मजदूरी निकालना, सूत का नम्बर निकालना आदि द्वारा भली- भाति पढ़ाई जा सकती हैं। समन्वय का यह आशय नहीं है कि किसी विषय का अध्ययन कराते समय किसी हस्तकला को ढूँढकर उसके साथ विषय का संबंध भिड़ाया जाय, वरन् यह है कि बालक को किसी हस्तकला का कार्य करते समय भूगोल, गणित आदि जिन विषयों की जानकारी की आवश्यकता पड़े उनका ज्ञान उसी हस्तकला द्वारा कराया जाय। बालक के घरेलू अथवा सामा- जिक वातावरण से भी विषय का समन्वय किया जा सकता है। प्रश्न उठता है कि समन्वय की क्या आवश्यकता है? बच्चे की यह प्रकृति होती है कि वह व्यावहारिक कार्य करना पसन्द करता है और अव्यावहारिक कार्य से घृणा करता है। अतः यदि उसे व्यावहारिक कार्य द्वारा अव्यावहारिक बातों का ज्ञान प्रदान किया जाय तो वह उसे अच्छी तरह ग्रहण कर सकेगा। हस्तकला द्वारा गणित आदि विषय पढ़ना ऐसा ही करना है। इस (समन्वय) को हम कुनाइन को गोली पर शक्कर लपेट कर खिलाना कह सकते हैं।

इस प्रकार विषयों का ज्ञान करने से तीन प्रधान लाभ होंगे। एक तो बालक का मन विषय का ज्ञान प्राप्त करने में लगेगा। दूसरे जो कुछ पढ़ाया जाएगा वह उसकी समझ में भली-भाँति जाएगा। आजकल की भाँति बिना समझे-बूझे रटने की आवश्यकता कभी न पड़ेगी। इसके अतिरिक्त शिक्षा का संबंध उसके दैनिक जीवन से हो जाएगा। आजकल की शिक्षा किसी प्रकार भी बालक के दैनिक जीवन से संबंधित नहीं है। यहाँ एक बालक की कहानी याद आ जाती है, जिसे अध्यापक ने बतलाया कि ‘कन्द’ का अर्थ ‘मोटी जड़’ है। पर उसे यह नहीं बतलाया गया कि ‘सकरकंद’ भी एक कन्द है। फलतः वह यह कभी नहीं समझ सका कि ‘सकरकन्द’ जिसको वह नित्य खाता है एक कन्द ही है।

हस्तकला के पश्चात् दूसरा स्थान मातृ-भाषा की पढ़ाई-लिखाई को मिला है। अब तक मातृ-भाषा की पढ़ाई-लिखाई की सुव्यवस्था न थी। विशेषकर अङ्गरेजी स्कूलों में तो उसकी दुर्दशा ही रही। हिंदी – स्कूलों में भी उसकी दशा संतोषजनक नहीं रही। हर्ष का विषय है कि हमारे नेताओं का ध्यान मातृ-भाषा की ओर गया है। श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर के शब्दों में मातृ-भाषा का ज्ञान बच्चे की वृद्धि के लिए उतना ही आवश्यक है जितना कि माता का दूध। जाकिर हुसेन – कमेटी ने भी मातृ भाषा के महत्व को इन शब्दों में स्वीकार किया है- The proper teaching of the mother- tongue is the foundation of all education, अर्थात् मातृ- भाषा की समुचित शिक्षा ही सब प्रकार की शिक्षा का आधार है।

नागरिकता की शिक्षा को बेसिक शिक्षा में महत्त्वपूर्ण स्थान मिला है। वास्तव में इसकी हमारे देश में सबसे अधिक आवश्य- कता है। प्रचलित शिक्षा में यह बड़ी कमी है कि बालक-बालिकाओं को नागरिक के अधिकार, कर्त्तव्य आदि से परिचित नहीं कराया जाता, उनके हृदय में समाज हित, समाज सेवा आदि भावों की उत्पत्ति नहीं कराई जाती।

सारांश यह है कि बेसिक शिक्षा सचमुच बड़ी ही अच्छी शिक्षा है। इससे बेकारी की भीषण समस्या तो हल होगी ही, साथ में ग्रामों की अशिक्षा का भी निवारण होगा। प्रत्येक वालक कोई न कोई उद्योग अथवा धंवा सीख जाएगा, जिससे वह अपनी जीविका उपार्जन कर सकेगा। आजकल गाँवों की अशिक्षा का एक प्रधान कारण यह है कि शिक्षा अरुचिकर है और ग्रामीण आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं करती। ग्रामीण जनता का प्रधान व्यवसाय खेती है। बेसिक शिक्षा में कृषि को सर्व प्रथम स्थान मिला है। अतः माता- पिता अपने बालकों को सहर्ष इस शिक्षा की प्राप्ति के लिए स्कूल भेजेंगे, क्योंकि उनके बालक पढकर उनके उद्योग को वैज्ञानिक ढँग से कर सकेंगे इसके अतिरिक्त बालकों को हस्तकला से प्रेम होने के कारण स्कूल घर के समान प्यारा लगेगा, आजकल की भाँति कारागृह की भाँति नहीं, जहाँ उन्हें डंडों की मार खानी पड़ती है। ऐसी श्रेष्ठ शिक्षा से हमें पूर्ण लाभ उठाना चाहिए और इसके प्रचार में तन, मन, धन से प्रयत्नशील होना चाहिए। निस्संदेह महात्मा गाँधी के प्रौढ़ मस्तिष्क से प्रसून यह शिक्षा योजना हमारे बालकों तथा हमारे देश का कल्याण करेगी। हमको शीघ्र इस शिक्षा का प्रचार करके इसे देश के कोने-कोने में फैलाना चाहिए, नहीं तो—

“समय चूकि पुनि का पछिताने।

का वर्षा जब कृषी सुखाने॥”

About the author

हिंदीभाषा

Leave a Comment

You cannot copy content of this page