संकेत बिंदु – (1) भाग्य और पुरुषार्थ का अर्थ (2) जीवन की सफलता-असफलता भाग्य पर निर्भर (3) भौतिकतावादी सुख पुरुषार्थ की देन (4) पुरुषार्थ और भाग्य एक-दूसरे के पूरक (5) उपसंहार।
अदृश्य की ‘लिपि’ भाग्य है और लक्ष्य पूरा करने के लिए अपनी समस्त शक्तियों द्वारा परिश्रम करना ‘पुरुषार्थ’ है। भाग्य शरीर है, पुरुषार्थ शरीर में अंतनिर्हित शक्ति-तत्त्व है, जो भाग्य को प्रत्यक्ष करता है। योग वाशिष्ठ में कहा गया है, ‘पूर्वकृत पुरुषार्थ के अतिरिक्त भाग्य और कुछ नहीं है।’
‘अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम’, इस सिद्धांत को मानने वाले भाग्य को बलवान मानकर पुरुषार्थ को निरर्थक मानते हैं। वे कार्य में असफलता मिलने पर भाग्य की ही दोष देते हैं। उनका सिद्धांत वाक्य है, ‘भाग्यहीन खेती करे, बैल मरें या सूखा पड़े!’
भर्तृहरि कहते हैं, ‘करील वृक्ष में यदि पत्ते नहीं हैं, तो वसंत का क्या दोष? उल्लू यदि दिन में नहीं देख पाता, तो सूर्य का क्या दोष? स्वाति नक्षत्र में वर्षा का जल यदि पपीहे के मुख में नहीं पड़ता, तो मेघ का क्या दोष? विधाता ने जो भाग्य में लिख दिया है, उसे कौन मिटा सकता है?’
भगवान शंकर की पत्नी पार्वती अन्नपूर्णा हैं, जो तीनों लोकों को अन्नदान कर सबका पालन करती हैं, फिर भी शंकर हाथ में कपाल लिए भिक्षा माँगते फिरते हैं, यह भाग्य की ही तो विडंबना है।
महाकवि तुलसीदास ने ‘हँसि बोले रघुवंश कुमारा। विधि का लिखा को मेटनहारा’, कहकर भाग्य को बलवान माना है। हरिवंश पुराण तो यहाँ तक मानता है ‘दैवं पुरुषकारेण न शक्यमति वर्तितुम्’ अर्थात् पुरुषार्थ से भाग्य के विधान का उल्लंघन नहीं किया जा सकता।
भाग्यवादी ’भाग्यं फलति सर्वत्र, न हि विद्या न च पौरुषम्‘ का उद्घोष करते हुए प्रमाण रूप में समुद्रमंथन का दृष्टांत देते हैं, जिसमें विष्णु को लक्ष्मी और शंकर को पान करने के लिए विष प्राप्त हुआ था। उनका यह भी तर्क है कि एक ही क्षेत्र में समान परिश्रम करने पर भी दो व्यक्तियों को भिन्न-भिन्न फल क्यों प्राप्त होता है? एक भाग्य की अनुकूलता से लखपति बन जाता है, जबकि दूसरा दुख सागर में डूबा रहता है। अतः जीवन की सफलता-असफलता भाग्य पर ही निर्भर करती है।
इसके विपरीत पुरुषार्थ के समर्थकों का दृष्टिकोण कुछ और ही है। उनका कहना है कि ‘अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम’, इस उक्ति को उद्धृत करते समय भाग्यवादी यह भूल जाते हैं कि उद्यम करने से ही कार्य सिद्ध होते हैं, केवल मन में इच्छा करने से नहीं। क्योंकि ‘नहिं सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः’। सिंह यदि शिकार को पकड़ने का उद्यम न करे और पक्षी गगन में घूमकर अपना आहार तलाश न करें, तो भूखे मर जाएँ।
पुरुषार्थ का आशय है निरंतर साहस और लगन से बिना थके कार्य करने में कटिबद्ध रहना। पुरुषार्थ से ही मनुष्य ने पृथ्वी को पृथु की भाँति दुह डाला है, जिससे मानव ने पृथु की भाँति न केवल सस्य ही प्राप्त किया अपितु तेल, कोयला, लोहा, टीन, एल्युमिनियम आदि धातुओं को भी प्राप्त किया है, जो शक्ति के महान स्रोत हैं। सागर की छाती पर चढ़कर चक्कर लगाने वाले जलयान तथा आकाश में उड़ने वाले विमान पुरुषार्थ-बल के प्रतीक हैं। चंद्रलोक, शुक्रलोक और मंगललोक की खोज पुरुषार्थ का जीता-जागता पुरस्कार है। विज्ञान द्वारा प्रदत्त सुख, संपन्नता, ऐश्वर्य मानवीय पुरुषार्थ का ही तो पुरस्कार हैं।
स्वामी शंकराचार्य पुरुषार्थहीन मानव को जीते जी मरा हुआ मानते हैं। संस्कृत के प्रसिद्ध नाटककार भारवि का कथन है, ‘पुरुषार्थहीन पुरुष को विपत्तियाँ आक्रांत कर लेती हैं। विपत्तियों से आक्रांत होने पर उसकी भावी उन्नति रुक जाती है, उसका गौरव नष्ट हो जाता है।’ महाभारत की धारणा है कि ‘जो पुरुषार्थ नहीं करते, वे धन, मित्र-वर्ग, ऐश्वर्य, उत्तम कुल तथा दुर्लभ लक्ष्मी का उपयोग नहीं कर सकते। गीता का सार भी यही है, ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।’ यहाँ कर्म का तात्पर्य पुरुषार्थ ही हैं।
पुरुषार्थ के बल पर जीव जीवन धारण करता है, जिससे संसार चक्र चलता है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, इन चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति ही जीवन का लक्ष्य है। परिश्रम या उद्योग से प्राप्त होने के कारण ही इन्हें पुरुषार्थ नाम दिया गया है। महाभारत के अनुसार ‘किया हुआ पुरुषार्थ ही भाग्य का अनुकरण करता है, किंतु पुरुषार्थ न करने पर भाग्य किसी को कुछ नहीं दे पाता।’
भारतीय मनीषी मानते हैं कि कर्म भी भाग्य का एक रूप है। मानव जो कर्म करता रहता है, वह कर्म का वह रूप है, जिसको क्रियमाण कहा जाता है। यह संचित होता रहता है। ईश्वरीय व्यवस्था के अनुसार मनुष्य के कर्मों का कुछ अंश भाग्य बन जाता है। अतः वेदव्यास जी ने महाभारत में कहा, ‘कर्म समायुक्तं दैवं साधु विवर्धते’ अर्थात् पुरुषार्थ का सहारा पाकर ही भाग्य भलीभाँति बढ़ता है। उनका यह भी कहना है कि ‘जैसे बीज खेत में बोए बिना निष्फल रहता है, उसी प्रकार पुरुषार्थ के बिना भाग्य भी सिद्ध नहीं होता। शुक्रनीति इसका समर्थन करते हुए कहती है, ‘अनुकूले, यदा दैवे क्रियाऽल्पा सुफला भवेत्।‘ अर्थात् जब भाग्य अनुकूल रहता है, तब थोड़ा भी पुरुषार्थ सफल हो जाता है। इसलिए पुरुषार्थ किए बिना भाग्य का उत्कर्ष नहीं हो सकता।
महाकवि तुलसीदास ने इस बात की पुष्टि करते हुए लिखा है- ‘कर्मप्रधान विश्व रचि राखा, जो जस करहि सो तस फल चाखा।’
संस्कृत में एक सूक्ति है, ‘उद्योगिनं पुरुसिंहमुपैति लक्ष्मीः’ वस्तुतः संपत्ति और सफलता पुरुषार्थी के आँचल की वधू हैं। पसीने की कमाई का मूल्य पारितोषिक रूप में अवश्य मिलता है। खेत पुरुषार्थ है, भाग्य बीज है। जिस प्रकार खेत और बीज के संयोग से ही अनाज पैदा होता है, उसी प्रकार पुरुषार्थ और प्रारब्ध (भाग्य) के संयोग से ही जीवन सफल हो सकता है। योगवाशिष्ठ में चेतावनी देते हुए कहा गया है, ‘बुद्धिमान नियति का संबल लेकर पुरुषार्थ का त्याग न करें, क्योंकि नियति भी पुरुषार्थ रूप से ही नियामक होती है।’