संकेत बिंदु-(1) 21वीं सदी का भारत (2) भाषाओं का तिरस्कार और दुर्बल लोकतंत्र (3) कानून व्यवस्था और भ्रष्टाचार (4) प्रांतवाद और लोकतंत्र के स्तंभ (5) उपसंहार।
21वीं सदी का भारत राजनीतिक दृष्टि से पतित, सामाजिक दृष्टि से विभक्त, आर्थिक दृष्टि से विकलांग और धार्मिक दृष्टि से कट्टर, प्रशासनिक दृष्टि से सुस्त और सामर्थ्यहीन, अनुशासन की दृष्टि से अव्यवस्थित और जनसंख्या की दृष्टि से विशालतर राष्ट्र है।
ईसा की द्वि-सहस्राब्दि के प्रारंभ में ऐसा तो हुआ नहीं कि केवल धनी और प्रभुता-संपन्न राष्ट्रों ने ही 2000 वर्ष में प्रवेश किया है तथा गरीब और पिछड़े राष्ट्र 20वीं सदी में रह गए हैं। समय का प्रवाह बाढ़ के पानी की तरह अपने कूड़े-कचरे सहित आगे बढ़ रहा है। विश्व राष्ट्रों में ईस्वी सन् 2000 में भारत का स्थान इस प्रकार है-‘सर्वाधिक जनसंख्या वाला देश : भारत (जनसंख्या एक अरब), सर्वाधिक गरीब देश : भारत (प्रति व्यक्ति औसत आय 3000 रुपए), सर्वाधिक अनपढ़ों वाला देश भारत (अनपढ़ों की संख्या 30 करोड़) सर्वाधिक बेरोजगारी वाला देश भारत (बेरोजगारों की संख्या : 40 करोड़) सर्वाधिक बेघरों का देश भारत (बेघरों की संख्या : 6 करोड़)।’
ईसा की 21वीं सदी का भारत भाषा की दृष्टि से अपनी भाषाओं का तिरस्कार कर अंग्रेजी द्वारा ज्ञान के द्वार खोलता है। वह भारत की सनातन संतान को जन्मतः सांप्रदायिक मानता है। भारतीय वाङ्मय को ‘बैकवर्ड’ मानता है। ‘वंदे मातरम्’ धर्म-पालन में बाधक नजर आता है। संस्कारों में उसे जीवन की दुर्गंध आती है। माता-पिता पहले ही ‘डैड’ (मृत) और ‘ममी’ (पिरामडों में सुरक्षित शव) हो गए हैं। परिवार समष्टिमूलक परंपरा से कटकर तेजी से व्यक्तिवादी मूल्यों को अपनाने को विवश हो चुका है। अनेक संघर्षों और बलिदानों के बाद जिस विदेशी साम्राज्य से पिंड छुड़वाया था, 21वीं सदी के प्रवेश पर हम विदेशी मूल के व्यक्ति को भारत की सत्ता का सूत्रधार बनाने को उतावले हो रहे हैं।
हमारा लोकतंत्र बाह्य दृष्टि से अजेय है और आंतरिक रूप में अत्यंत दुर्बल। प्रादेशिक राजनीति केंद्र पर हावी है। परिणामतः केंद्रीयय राजनीतिक दल दुर्बल हो रहे हैं और प्रांतीय राजनीतिक दल सशक्त। परिणामतः भारत में एक दलीय सरकार का समय बीत चुका है। इसलिए केंद्रीयय सत्ता 21 दलों के असंतुलन से सदा भयभीत रहती है। यही राजनीतिक दशा प्रदेशों की भी हो रही है। परिणामतः राज्य और केंद्रीयय सरकारों की निर्णय क्षमता को लकवा मार गया है। विपक्ष ‘विरोध के लिए विरोध’ करता है, राष्ट्र हित में नहीं।
लोकतंत्र का आधार है चुनाव। आजकल भारत में चुनाव के तीन आधार बन चुके हैं-धन बल, बाहुबल और बोगस मतदान। इस त्रिगुणी माया के बंधन में सच्चा, पवित्र और ईमानदार प्रत्याशी तो जीत ही नहीं सकता। फलतः भारत की राजनीति का अपराधीकरण हो गया है या यूँ कह सकते हैं कि अपराधियों का राजनीतिकरण हो गया है। भारत माता विलाप कर अपने भाग्यविधातों से पूछ रही है, ‘इस देश का पुत्रो, क्या होगा?”
21वीं सदी का भारत प्रवेश भ्रष्टाचार का सशक्त आधार है। ‘पब्लिक डीलिंग्स’ में बिना भ्रष्टाचारी पासपोर्ट के प्रवेश निषेध है। आज भी कचहरी के चपरासी, बिक्री कर विभाग के अर्दली की आय और संपत्ति अपनी पोजीशन से कई गुणा अधिक है। राजनीतिज्ञ और मंत्रियों की बात छोड़ दीजिए, वे रिश्वत नहीं लेते, सेकेंडल करते हैं। करोड़ों-अरबों के घोटाले करते हैं। मानवीय ‘संवेदना’ इतनी जागरूक है कि अकाल पीड़ितों की सहायतार्थ सामग्री से भी अपना भाग नहीं छोड़ते और पशु चारे को भी खा जाते हैं, किंतु जुगाली नहीं करते। मजे की बात यह है कि भ्रष्टाचारी का भ्रष्ट आचरण न्यायालय की तुला पर उज्ज्वल होकर निकलता है।
संप्रदायवाद भारत की संजीवनी बूटी बन गई है। सत्ता प्राप्ति का परमिट बन गई है। जातीयता का बुखार तेजी से बढ़ रहा है। पिछड़े वर्गों को आर्थिक आधार पर नहीं, जातीय आधार पर रेवड़ी बाँटी जा रही हैं। 50% का आरक्षण तटबंध तोड़ने का आह्वान कर रहा है। उनके कल्याण के लिए देश का राजनीतिज्ञ सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों को भी संविधान परिवर्तन से नीचा दिखाने को तत्पर है। अल्पसंख्यकों को खुश करने के लिए राजनीतिज्ञों में होड़ लगी है। उनकी हर माँग को असांप्रदायिक माना जाता है। दूसरे धर्मों पर किए गए प्रहार को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का जामा पहनाया जाता है और नर-संहार के पीछे बहुसंख्यकों का षड्यंत्र माना जाता है। एक बावरी ढाँचे के गिरने पर छाती फाड़-फाड़ कर विलाप होता है, किंतु सैंकड़ों मंदिरों के तोड़े जाने पर कोई ‘आह’ भी नहीं भरता। एक विदेशी पादरी की हत्या पर धर्म-निरपेक्ष भारत में भूचाल आ जाता है, किंतु केरल में सैंकड़ों हिंदू-कार्यकताओं की निर्मम हत्या पर लोक सभा में प्रस्ताव तक नहीं आता।
लोकतंत्र के आधार स्तंभ हैं-न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका और समाचार-पत्र। भारत की न्यायपालिका की दुर्दशा यह है कि लाखों मुकदमें अनेक वर्षों से न्यायालय की अल्मारियों में कैद पड़े हैं।
कार्यपालिका अर्थात् नौकरशाही कोई काम करके खुश ही नहीं। निर्णय की अपंगता-अक्षमता तथा नियमानुसार कार्य करना उसकी विशेषता है। रिश्वत लेकर फाइल सरकाना उसकी पद्धति है। हड़ताल उसका जन्मसिद्ध अधिकार है। परिणामतः नौकरशाही ने कार्यपालिका को कार्यमृतिका बना दिया है।
विधायिका अर्थात् संसद और विधानसभाएँ। संसदीय प्रणाली के अलंकरण हैं, तर्क और वाक् चातुरी। तर्क और वाक् चातुरी के लिए चाहिए समझ, अध्ययन और विवेक। पार्टी अंधभक्त सांसदों में वह चातुरी कहाँ? वाक् चातुरी के नाम पर संसद तथा विधानसभाओं में होती है गोली-गलौज, हाथापाई तथा चरित्र हनन की अश्लील बातें। देश हित के निर्णय कम और वोट बैंक की दृष्टि से निर्णय अधिक होते हैं।
लोकतंत्र का चतुर्थ स्तंभ है समाचार-पत्र। समाचार पत्र समाचार-दर्शन से अधिक अपनी विचारधारा के रंग में रंगे समाचारों के दर्शन करवाने का दायित्व निभाते हैं। अल्पसंख्यकों के विरुद्ध लिखने में उनकी स्याही ही नहीं, जान भी सूखती है और हिंदू धर्म की छिछालेदार करने में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पोषण होता है। ये देश को क्रियात्मक सुझाव देने की अपेक्षा नकारात्मक पक्ष को अधिक उजागर करते हैं।
आर्थिक दृष्टि से 21वीं सदी के भारत की स्थिति डाँवाडोल है। खरबों रुपयों के विदेशी ऋणों का ऋणी भारत इसका ब्याज भी विदेशी ऋण से चुकाता है। प्रत्येक प्राकृतिक आपदा आने पर भीख का कटोरा लिए विश्व में ‘भिक्षां देहि’ की आवाज लगाता है। उसकी आर्थिक नीति ने नव धनाढ्यवर्ग तो खड़ा किया, किंतु 40 प्रतिशत जनता को जीवन जीने. के स्तर से गिरकर जीवनयापन करने को विवश कर दिया है। उद्योग-धंधे तो खड़े कर समृद्धि की ओर अग्रसर तो हुआ, किंतु विदेशी पूँजी, विदेशी ट्रैकनीक तथा बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रवेश ने भारतीय उद्योग जगत पर अमावस्या की काली छाया प्रसारित कर दी।
21वीं सदी का भारत राजनीतिक दृष्टि से असहाय, आर्थिक दृष्टि से विपन्न, सामाजिक दृष्टि से विभक्त, धार्मिक दृष्टि से उन्मादी, प्रशासनिक दृष्टि से शिथिल, न्यायायिक दृष्टि से लचर तथा आत्म-प्रशंसा में तेज है, भले ही विश्व-प्रांगण में उसका आत्मसम्मान धूल ही चाट रहा है।