संकेत बिंदु-(1) परिश्रम, त्याग और तपस्वी जीवन का नाम ‘किसान’ (2) किसान की दिनचर्या (3) किसान की सेवा निष्काम और स्वार्थ में परमार्थ (4) भारतीय कृषक कर्मयोगी और धर्मभीरू (5) उपसंहार।
‘किसान’ कठोर परिश्रम, त्याग और तपस्वी जीवन का दूसरा नाम है। किसान का जीवन कर्मयोगी की भाँति मिट्टी से सोना उत्पन्न करने की साधना में लीन रहता है। वीतराग संन्यासी की भाँति उसका जीवन परम संतोषी है। तपती धूपं कड़कती सर्दी और घनघोर वर्षा में तपस्वी की भाँति वह अपनी साधना में अडिग रहता है। सभी ऋतुएँ उसके सामने हँसती-खेलती निकल जाती हैं और वह उनका आनंद लूटता है। यह उसके जीवन की विशेषता है।
सृष्टि का पालन त्रिष्णु भगवान का कार्य है। मानव समाज का पालन किसान का धर्म है। अतः किसान में हम भगवान विष्णु के दर्शन कर सकते हैं। प्राणिमात्र के जीवन को पालने वाले किसान का तपस्या-पूर्ण त्याग, अभिमान रहित उदारता, क्लांति रहित परिश्रम उसके जीवन के अंग हैं। उसमें सुख की लालसा नहीं होती। कारण, दुख उसका जीवन साथी है। संसार के प्रति अनभिज्ञता और अज्ञानता से उसमें आत्म-ग्लानि नहीं होती, न दरिद्रता में दीनता का भाव-बोध होता है। ये उसके जीवन के गुण हैं।
किसान अहर्निश कर्म-रत रहता है। वह ब्राह्म मुहूर्त में उठता है, पुत्र सम बैलों को भोजन परोसता है, स्वयं हाथ-मुँह धो, कलेवा कर कर्मभूमि’ खेत’ में पहुँच जाता है। जहाँ उषा की किरणें उसका स्वागत करती हैं। वहाँ वह दिनभर कठोर परिश्रम करेगा। स्नान-ध्यान, भजन-भोजन, विश्राम, सब कुछ कर्मभूमि पर ही करेगा। गोधूलि के समय अपने बैलों के साथ हल सहित घर लौटेगा। धन्य है किसान का ऐसा कर्मयोगी जीवन !
चिलचिलाती धूप, पसीने से तर शरीर, पैरों में छाले डाल देने वाली तपन, उस समय सामान्य जन छाया में विश्राम करता है, किंतु उस महामानव किसान को यह विचार ही नहीं आता कि धूप के अतिरिक्त कहीं छाया भी है।
मूसलाधार वर्षा हो रही है, बिजली कड़क रही है, भयभीत जन-गण आश्रय ढूँढ रहा है, किंतु यह देवता-पुरुष कर्मभूमि में अपनी फसल की रक्षा में संलग्न है। वरुण देवता की ललकार का सामना कर रहा है। वाह रे साहसिक जीवन !
प्रकृति के पवित्र वातावरण और शुद्ध वायुमंडल में रहते हुए भी वह दुर्बल है, किंतु उसकी हड्डियाँ वज्र के समान कठोर हैं। शरीर स्वस्थ है, व्याधि से कोसों दूर है !
रात-दिन के कठोर जीवन में मनोरंजन के लिए स्थान कहाँ? रेडियो पर सरस गाने-सुनकर, यदा-कदा गाँव में आई भजन मंडली के गीत सुनकर या कचहरी की तारीख भुगतने अथवा आवश्यक वस्तुओं की खरीद के लिए शहर आने पर चलचित्र देखने में ही उसका मनोरंजन संभाव्य है। जहाँ किसान अपेक्षाकृत समृद्ध है, वहाँ दूरदर्शन भी मनोरंजन का साधन है।
भारतीय कृषक जीवन के भाष्यकार मुंशी प्रेमचंद का विचार है, ‘किसान पक्का स्वार्थी होता है, इसमें संदेह नहीं। उसकी गाँठ से रिश्वत के पैसे बड़ी मुश्किल से निकलते हैं, भाव-ताव में भी वह चौकस होता है। वह किसी के फुसलाने में नहीं आता। दूसरी ओर उसका संपूर्ण जीवन प्रकृति का प्रतिरूप है। वृक्षों से फल लगते हैं, उन्हें जनता खाती है। खेती में अनाज होता है-यह संसार के काम आता है। गाय के थन में दूध होता है-वह दूध नहीं पीता; दूसरे ही उसे पीते हैं। इसी प्रकार किसान के परिश्रम की कमाई में दूसरों का साझा है, अधिकार है। उनके स्वार्थ में परमार्थ है और उसकी सेवा निष्काम है।’
एक ओर भारतीय कृषक कर्मयोगी है, दूसरे और धर्मभीरु भी है। गाँव का पंडित उसके लिए भगवान का प्रतिनिधि है। उसकी नाराजगी उसके लिए अभिशाप है। इस शाप-भय ने इहलोक में उसे नरक भोगने को विवश कर रखा है। तीसरी ओर, वह कायदे-कानून से अनभिज्ञ भी है, तो साहूकार अथवा बैंक का कर्जदार भी है। निम्न वर्ग का किसान कर्ज में जन्म लेता है, साहूकारी प्रथा में जीवन-भर पिसता है और कर्ज में डूबा ही मर जाता है। उसकी मेहनत की कमाई पर ये नर-गिद्ध ऐसे टूटते हैं कि उसका सारा माँस नोंच-नोंच कर उसे ठठरी बना देते हैं। ब्याज का एक-एक पैसा छुड़ाने के लिए वह घण्टों उनकी चिचोरी करता है।
इस तपस्वी के जीवन की कुछ कमजोरियाँ भी हैं। अशिक्षा के कारण बातों-बातों में लड़ पड़ना, लट्ठ चलाना, सिर फोड़ना या फुड़वा लेना; वंशानुवंश शत्रुता पालना, किसी के खेत जलवा देना, फसल कटवा देना, जनता के प्रहरी पुलिस से मिलकर षड्यन्त्र रचना, मुकदमेबाजी को कुल का गौरव मानकर उस पर बेतहाशा खर्च करना, ब्याह-शादी में चादर से बाहर पैर पसारकर झूठी शान दिखाना, इसके जीवन के अंधेरे पल को प्रकट करने वाले तत्त्व हैं।
आज भारतीय किसान का जीवन संक्रमण काल से गुजर रहा है। एक ओर वह शिक्षित हो गया है; खेती के लिए नए उपकरणों और सघन खेती करने के साधनों का प्रयोग करता है। जिससे आर्थिक संपन्नता की ओर अग्रसर है। रहन-सहन में नागरिकता की स्पष्ट छाप उसके जीवन पर प्रकट हो रही है, तो दूसरी ओर उसमें उच्छृंखलता व उद्दण्डता और बेईमानी, चालाकी और आधुनिक जीवन की विषमताएँ, कुसंस्कार और कुरीतियाँ घर कर रही हैं। अब उसके बेटे-पोते किसानी से नाता तोड़कर बाबू बनने लगे हैं। खेतों की सुगंध-युक्त हवा में उन्हें धूल अधिक दिखाई देने लगी है, जिससे वस्त्र खराब होने का भय है। इस कठोर परिश्रमी, धर्मभीरु और स्वाभिमानी भारतीय कृषक का जीवन भविष्य में किन विचित्र धाराओं में प्रवाहित होगा, यह कहना कठिन है।
भोले भाले कृषक देश के अद्भुत बल हैं।
राजमुकुट के रत्न कृषक के श्रम के फल हैं।
कृषक देश के प्राण, कृषक खेत की कल हैं।
राजदंड से अधिक मान के भाजन हल हैं॥
-लोचनप्रसाद पांडेय