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हमारे पड़ोसी

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राजनीतिज्ञ आचार्य महामति चाणक्य ने कहा है कि सामान्यतया पड़ोसी देश अपना शत्रु होता है और उसके साथ का देश अपना मित्र होता है।

चाणक्य की इस उक्ति में काफी सच्चाई है। संसार का इतिहास और विशेषकर योरोप का इतिहास इसकी पुष्टि करता है। कुशल राजनीतिज्ञ शासकों की विशेषता इस बात में है कि वे यथासंभव अपने पड़ोसी राज्यों को भी अपना सच्चा मित्र बनाएँ। यदि यह संभव न हो सके तो उनकी गतिविधि पर सूक्ष्म निरीक्षण रखें और यह जानकारी रखें कि उन देशों की राजनैतिक, आर्थिक, सामरिक और सामाजिक प्रवृत्तियाँ क्या हैं। इस दृष्टि से हम इन पंक्तियों में अपने पड़ोसी राज्यों की प्रवृत्तियों तथा भारत के साथ संबंधों पर कुछ प्रकाश डालना चाहेंगे।

बर्मा

भारत के पूर्व में बर्मा हमारा निकटतम पड़ोसी देश है। किसी समय यह भारतवर्ष में सम्मिलित था। 1935 के विधान के अनुसार अंग्रेज सरकार ने इसे पृथक् देश का रूप दे दिया। यदि ऐसा न किया जाता तो थाइलैंड (स्याम) हमारा पूर्व का पड़ोसी होता। गत महायुद्ध के दिनों में बर्मा ने अनेक क्रांतिकारी परिवर्तन देखे गए। जापान ने उस पर अधिकार कर लिया था और वह अंग्रेजी शासन से मुक्त हो गया था। फिर भी जब अंग्रेज सेनाओं द्वारा उसे जापानी शासन से मुक्त किया गया तो वह अंग्रेजी शासन में अधिक समय तक नहीं रह सका। सन् 1947 के प्रारंभ में ही उसे स्वतंत्र कर देने को अंग्रेज लोग विवश हुए। वस्तुतः इस संक्रांति काल में बर्मा में ब्रिटिश शासन की जड़ें बुरी तरह हिल चुकी थीं। स्वाधीन होने के बाद बर्मा को अनेक आंतरिक संघर्षों और संकटों का सामना करना पड़ा। यह प्रसन्नता की बात है कि भारतवर्ष की राष्ट्रीय सरकार ने इन संकटों का मुकाबला करने में बर्मा की सरकार को पर्याप्त सहयोग दिया। आर्थिक विपत्तियों में भी बर्मा को भारत से सहायता मिली। इस आर्थिक सहयोग का परिणाम यह हुआ कि अंग्रेजों ने 1937 से पहले बर्मा में जो भारत विरोधी भावना पैदा कर दी थी, वह काफी शांत हो गई। आज भारत और बर्मा परस्पर मित्र हैं। यद्यपि बर्मा अपने आर्थिक स्वार्थों के लिए कभी-कभी आग्रह भी कर बैठता है, फिर भी भारत और बर्मा दोनों देश पंचशील के सिद्धांतों पर विश्वास करते हुए परस्पर मित्र है। वर्मा भी कम्यूनिस्टों की गतिविधि से असंतुष्ट है जैसे कि भारत। दोनों देश महात्मा बुद्ध के प्रशंसक हैं। थोड़े-बहुत आर्थिक स्वार्थो को भूलकर भी बर्मा यह अनुभव करने लगा है कि भारत जैसे शक्तिसंपन्न देश का सहयोगी और मित्र बनकर ही निश्चिंतता से अपनी उन्नति कर सकता है तथा भारत का सहयोग पाकर ही वह चीनी कम्युनिस्टों के आक्रमण के संभावित खतरे से बच सकेगा। भारत आज पंचशील के जिन सिद्धांतों का प्रचार करते हुए एशियायी राष्ट्र-समूह को विश्व शांति की दिशा में पथ प्रदर्शन कर रहा है, बर्मा की उसमें पूर्ण सहमति है।

अन्य पूर्वी देश

बर्मा के पूर्ववर्ती थाई देश आदि भी भारत के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध रखते हैं। हिंद महासागर के मार्ग से सम्बद्ध पूर्वीय एशियायी देश भी भारत के मित्र हैं। इंडोनेशिया के साथ भारत के बहुत मधुर संबंध हैं। इसकी पृष्ठभूमि में वस्तुतः दोनों देशों की एक समान परिस्थितियाँ रही हैं। दोनों देशों के प्राचीन काल से सांस्कृतिक संबंध चले आ रहे हैं। दोनों यूरोपियन साम्राज्य के शिकार थे और अब दोनों स्वतंत्र हैं। दोनों की हार्दिक अभिलाषा यह है कि एशिया में साम्राज्यवाद किसी तरह जड़ न जमाने पावे। इंडोनेशिया पर 1948 के अंत में जब डच सरकार ने आक्रमण की योजना बनाई तो भारत का पूरा बल उसे मिला। आज हिंद-चीन भी भारत से स्नेह रखता है। उसके आंतरिक युद्ध को रोकने में भारत की सर्वाधिक महायता रही है।

लंका

भारत के दक्षिण में लंका द्वीप है, जिसे भारतवासी प्राचीन काल से जानते हैं। हिंद महासागर में इसकी स्थिति सामरिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। यह एक आश्चर्य की बात है कि भारत के पैर के अँगूठे के पास रहकर भी यह छोटा-सा राज्य, जिसकी पराजय को हम हजारों वर्षों से विजयादशमी के रूप में बड़े समारोह से मनाते आ रहे हैं, आज भारत का वशवर्ती नहीं है। विदेशी राजनीति में यह भारत के साथ है। कोलम्बो योजना तथा एशियायी राष्ट्रों के सम्मेलन के कारण यह सर्वथा भारत से जुड़ा हुआ है। यहाँ की संस्कृति व धर्म पर बुद्ध धर्म का असीम प्रभाव है। भारत में व्यापार पर उसका जीवन निर्भर है, तथापि वहाँ रहने वाले लाखो भारतीय नागरिकों के साथ इसका व्यवहार अच्छा नहीं है। जब तब यह भारत सरकार की उपेक्षा कर उन्हें परेशान करता है, उन्हें नागरिकता के अधिकार नहीं दिए जाते या उनमें बड़ी अड़चनें डाली जाती हैं। समझौते के अनेक प्रयत्न किए गए, पर अब तक बहुत कम सफलता मिली है। लंका भी आज स्वतंत्र है, परंतु आत्म- गौरव व स्वाधीनता की उग्र भावना के कारण वह यह सहन करने को उद्यत नहीं है कि लंका निवासी तो रोजगार की फिक्र करें, और भारतवासी वहाँ आकर मजे से रोटी कमावें, भले ही लंका के आर्थिक विकास में भारतीय उद्योग- पतियों, व्यापारियों व मजदूरों का असाधारण भाग रहा है और आज भी है। पिछले दिनों उसने केवल सिंहली भाषा को राजभाषा घोषित करके तमिल से संयुक्त राजभाषा का पद छीन लिया है। उसने लोकतंत्र की घोषणा की है और ब्रिटेन के सैनिक अड्डों को हटाने की माँग ब्रिटेन से अत्यंत दर्प से की है। भारत ने उसकी इस माँग का पूर्ण समर्थन करके उसका सद्भाव प्राप्त करने का सफल प्रयत्न किया है। निकट भविष्य को देखते हुए यह भविष्यवाणी की जा सकती है कि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में भारत व लंका के संबंध अच्छे रहेंगे। लंका से ब्रिटिश सैनिक अड्डों की समाप्ति भारत के लिए भी हितकर है, क्योंकि ये अड्डे किसी भी समय पाकिस्तान या ‘मीटों’ संधि के राष्ट्रों के उपयोग में आ सकते थे।

नेपाल

नेपाल समस्त विश्व में एकमात्र राज्य है, जहाँ का राजा हिंदू है। और विशेषकर भारत में रियासतों के संघ में विलय के बाद यह राज्य वस्तुतः राजपूत सैनिक वंश का एकमात्र राज्य रहा है। ब्रिटिश काल में इसे भारत सरकार ने आर्थिक सहायता देकर अपने प्रभाव क्षेत्र में रखा हुआ था। नेपाल भारत सरकार की विदेशी नीति से सदा प्रभावित रहा। भारत से विदेशी शासन समाप्त होते ही वहाँ भी भारत का प्रभाव शिथिल हो गया। वहाँ अनेक विद्रोही तत्त्व सिर उठाने लगे। राजनैतिक दलों में संघर्ष भी शुरू हो गया। राजा अपने को पराधीन और विवश समझने लगा। उसने भागकर भारत सरकार की शरण ली। भारत ने उसे न केवल शांति स्थापना में सहयोग दिया, परंतु नेपाल के आर्थिक निर्माण के लिए भी पर्याप्त सहायता दी है। इसका परिणाम यह हुआ

कि नेपाल शासन व भारत सरकार के संबंध सौहार्दपूर्ण हो गए, परंतु आज भी वहाँ संघर्ष व एक दूसरे दल के विरुद्ध षड्यंत्र जारी हैं। भारत सरकार की दूरदर्शिता यह है कि वह नेपाल में न उपद्रव होने दे, न व्यापक असंतोष फैलने दे और न कम्यूनिस्ट या गैरकम्युनिस्टों को सिर उठाने दे। सामरिक दृष्टि से नेपाल का महत्त्व बहुत बढ़ गया है, जबकि चीन एक महान् शक्ति के रूप में उठ खड़ा हुआ है।

तिब्बत

तिब्बत किसी समय स्वतंत्र राष्ट्र माना जाता था। पंचम लामा उसका शासक था। ब्रिटिश सरकार उसकी सत्ता को मानती थी और आंतरिक नीति में कोई हस्तक्षेप न करती थी। उसकी गतिविधि का निरीक्षण तथा विदेशी शक्तियों के हस्तक्षेप पर नियंत्रण ब्रिटिश सरकार की नीति थी। वस्तुतः तिब्बत की एक ‘बफर स्टेट’ (उदासीन राज्य) की सी स्थिति रही। परंतु भारत से ब्रिटिश सरकार के जाते ही तथा चीन में साम्यवादी सरकार के स्थापित हो जाने पर तिब्बतसंबंधी भारत सरकार की नीति बदल गई। कुछ उपेक्षा व उदासीनता की नीति तथा चीन को अप्रसन्न न करने की भावना से तिब्बत को चीन का अंग बनने दिया गया। हमारी नम्र सम्मति में भारत सरकार की यह भूल थी और इसका परिणाम किसी समय भी अवांछनीय हो सकता है। कौन कह सकता है कि चीन और भारत सदा मित्र ही बने रहेंगे।

साम्यवादी चीन

तिब्बत के चीन में मिलाए जाने का एक स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि चीन और भारत की सीमा बहुत अधिक दूर तक परस्पर मिल गई। चीन आज महान् शक्तिशाली राष्ट्र है। चागकाई शेक के शिथिल व भ्रष्टाचारपूर्ण शासन की समाप्ति के बाद साम्यवादी शासकों ने उसकी स्थिति को सैनिक व शासन की दृष्टि से मजबूत कर दिया है। साम्यवाद के संबंध में हमारे कोई भी विचार क्यो न हों, यह एक सिद्ध सत्य है कि साम्यवादी चीन अपनी 150 करोड़ जनसंख्या के साथ दुनिया की एक बड़ी शक्ति है। रूस तथा अन्य साम्यवादी देशों के पूर्ण सहयोग के कारण उसका बल बढ़ गया है। चीन और भारत दोनों विश्व के अत्यंत प्राचीन व संस्कृति संपन्न देश रहे हैं। दोनों का पारस्परिक आदान-प्रदान भी प्राचीन काल से रहा है। भारत ने उसे आध्यात्मिक व नैतिक संस्कृति का उपदेश दिया है। बौद्ध धर्म की उस पर अमिट छाप आज भी है। स्वभावतः दोनों देशों की परस्पर सहानुभूति रही है। चीन के अभ्युदय को भारत ने सदा आनंद व उल्लास के साथ देखा है। स्वतंत्र भारत की नीति उसके साथ सदा सहयोग और सहानुभूति की रही है। जब साम्यवादी चीन एक प्रबल शक्ति के रूप में उद्भूत हुआ, तो भारत ने उसे हर्षपूर्वक स्वीकार कर लिया और अमेरिका के प्रबल विरोध के बावजूद उसे राष्ट्रसंघ में सम्मिलित करने का वह निरंतर समर्थन करता रहा है। भारत के लिए अपने अत्यंत निकटवर्ती महान् शक्तिशाली राष्ट्र को अपना विरोधी बना लेना अदूरदर्शिता ही होती। आज दोनों देशों के पारस्परिक संबंध बहुत मधुर हैं और दोनों में सांस्कृतिक एवं आर्थिक आदान-प्रदान भी बहुत हो रहा है। चीन व भारत एशिया की दो महान् शक्तियाँ हैं। इन दोनों के परस्पर सौहार्द से इनका बल और भी बढ़ गया है। आज दोनों देशों में पंचशील के सिद्धांतों के आधार पर परस्पर मित्रतापूर्ण संधि है। इससे दोनों देशों को ही लाभ है। चीन का विशाल बाजार भारत के लिए हितकर है। फिर भी भारत को यह तो सतर्कता रखनी होगी कि इस मित्रता की भावना का चीन अनुचित उपयोग न करे और एशिया में इतना बल न बढ़ा ले कि वह दुर्जेय हो जावे। शक्ति संतुलन विदेशी राजनीति का महत्त्वपूर्ण सिद्धांत होता है।

रूस

यद्यपि रूस की सीमा भारत को नहीं छूती है, तथापि काश्मीर से वह भारत के बहुत निकट है। रूसी नेता श्री खश्चेव ने कश्मीर में कहा था कि “यदि मैं रूस की सीमा में खड़े होकर चिल्लाऊँ, तो मेरी आवाज कश्मीर में सुनाई देगी।” केवल कुछ मीलों का अंतर दोनों की सीमाओं में है। आज रूस अपने विशालतम प्रदेश, दुर्दमनीय वायु सैन्य, अणुशक्ति तथा चीन व पूर्वी यूरोप के साम्यवादी देशों पर अमित प्रभाव के कारण संसार की अत्यंत प्रबल शक्ति बन गया है। अमेरिका भी उससे घबराता है और उसका प्रतिरोध करने के लिए सभी प्रकार के संभव साधनों का प्रयोग कर रहा है। रूस और भारत में ब्रिटिश काल में संबंध अच्छे नहीं रहे थे, क्योंकि ब्रिटेन पूँजीवाद व लोकतंत्र- वाद का समर्थक रहा है और रूस साम्यवाद व आतंकवादी शासन का। दोनों के आर्थिक व राजनैतिक हितों में भी परस्पर विरोध था। भारत ने स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अपनी नीति बदली। रूस व अमेरिका की कठोर प्रतिस्पर्द्धा में उसने किसी पक्ष का साथ न देकर तटस्थ रहकर सबके साथ मित्रता का संबंध स्थापित किया। रूस को भी आज के युग में अपना बल बढ़ाने के लिए भारत जैसे शक्तिशाली देश का सहयोग प्राप्त करना आवश्यक था।  रूस की आर्थिक स्थितियों ने भी इसके लिए उसे विवश किया। इधर पंडित नेहरू की प्रवृत्ति साम्यवाद की ओर थी।

ब्रिटेन व अमेरिका के काश्मीर के मामले में पाकिस्तान समर्थन ने भारत को रूस की ओर झुकने के लिए प्रेरित किया। पंडित नेहरू के रूस में हार्दिक स्वागत और भारत में रूसी नेताओं के उससे भी बढ़कर हार्दिक प्रति स्वागत ने दोनों देशों के मंत्री संबंध को बहुत अधिक कर दिया है। सांस्कृतिक प्रतिनिधिमंडलों के आदान-प्रदान से भी यह अधिक पुष्ट हुआ है। आज रूस भारत के औद्योगिक विकास में भी सहायक हो रहा है। पंचशील के सिद्धांतों के आधार पर दोनों देशों में परस्पर मित्रता संधि हो गई है। परंतु हमें यह सतर्कता रखनी होगी कि राजनीतिक रूस इस सौहार्द भाव का अनुचित लाभ न उठावे। भारत के कम्यूनिस्ट नेता भारत की अपेक्षा रूम पर अधिक आस्था रखते हैं, यह किसी समय भी हमारे लिए खतरनाक हो सकता है। राजनीति में आज का मित्र कल भी मित्र रहेगा, इसका निश्चय नहीं है।

पाकिस्तान

भारतवर्ष का निकटतम पड़ोसी पाकिस्तान है। यह कल तक भारत का ही अभिन्न अंग था, ब्रिटिश सरकार की कूटनीति तथा मुस्लिम सांप्रदायिकता के कारण दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थितियों में उससे अलग कर दिया गया। उसके दो अंग है — पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान। हजारों मील की सीमा दोनों देशों को मिलाती है। दोनों देशो में कोई भिन्नता न थी। पेशावर के खान अब्दुल गफ्फार खाँ तथा ढाका व चटगाँव के क्रांतिकारी कैदी वन्देमातरम् का नारा लगाकर देश को आजाद कर रहे थे। सांप्रदायिकता के उन्माद ने जिस जघन्य रक्तपात की प्रेरणा की, वह पाकिस्तान के निर्णय की नींव में है। इसलिए आज समस्त विश्व में भारत का सबसे बड़ा विरोधी पाकिस्तान है। भारत का शासन धर्मनिरपेक्ष या सेकुलर है, पाकिस्तान का राजधर्म इस्लाम है। भारत में हिंदू-मुसलमान दोनों सुख से रहते हैं, पाकिस्तान में हिंदू आज भी सताए जा रहे हैं। वहाँ जब-जब आंतरिक संघर्ष होता है, जनता में असंतोष तीव्र रूप धारण करता है, तब-तब शासक भारत के प्रति कटु विरोध और घृणा का आन्दोलन शुरू कर देते हैं। काश्मीर पर पाकिस्तान ने आक्रमण करके और उसके एक भाग पर अधिकार करके भारत से ऐसा विरोध बढ़ा लिया है कि वह शांत नहीं होने पाता। काश्मीर का प्रश्न दोनों में परस्पर विद्वेष को निरंतर पुष्ट करता जा रहा है। आज भी दोनों देशों की सेनाएँ एक-दूसरे के सामने समृद्ध खड़ी हैं।

रात्रि से नहरों का सवाल, बिजली का प्रश्न, भारत के नाम निकलती रकम की अदायगी आदि कितने ही मामले, आज तक नहीं सुलझे है। शरणार्थियों की अरबों रुपयों की संपत्ति का प्रश्न भी आज तक हल नहीं हुआ है। भारत जब अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में तटस्थ है, पाकिस्तान अमेरिकी गुट में सम्मिलित होकर अमेरिका के हाथ का खिलौना बन गया है। इससे भी भारत युद्ध को अपनी सीमा तक आया देखता है। अमेरिका से सैनिक सामग्री की सहायता के दर्प में पाकिस्तान कभी भी काश्मीर पर आक्रमण कर सकता है। इस तरह. भारत का सबसे अधिक निकटवर्ती पड़ोसी देश पाकिस्तान हमारे लिए निरंतर सिरदर्द का विषय है। पाकिस्तान नहीं बनता या भारत से उसका विरोध न होता, तो निस्संदेह भारत आज से भी चौगुनी उन्नति कर लेता।

अफगानिस्तान

पाकिस्तान का सीमावर्ती अफगानिस्तान है, जिसकी सीमा अखंड भारत से मिलती है। उसका पाकिस्तान से विरोध है, अतः भारत व अफगानिस्तान के परस्पर संबंध बहुत अच्छे हैं। दोनों में आदान-प्रदान होता है, वहाँ हिंदुओं के साथ दुर्व्यवहार नहीं होता, गोवध पर भी काफी प्रतिबंध है, विश्व- विद्यालयों में भाषाविज्ञान के विद्यार्थियों को पढ़ाया जाता है। ईरान मिश्र आदि देशों की संस्कृत तथा वैदिक साहित्य सीमाएँ यद्यपि भारत से नहीं मिलतीं, तथापि मध्य पश्चिमी इन देशों से भारत के राजनैतिक संबंध अच्छे हैं। वे पाकिस्तान के इस्लाम के नारे से प्रभावित नहीं होते।

इस तरह यदि भारत के पड़ोसी देशों पर एक दृष्टि डाली जाए, तो यह प्रतीत होगा कि पाकिस्तान के सिवाय शेष सब पड़ोसी देशों से भारत के संबंध बहुत अच्छे हैं।

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