संकेत बिंदु-(1) सांस्कृतिक एकता का अर्थ (2) संस्कृति का निर्माण (3) भारतीय भाषाएँ और साहित्य (4) पर्व और त्योहार सांस्कृतिक एकता की आधारशिला (5) उपसंहार।
सांस्कृतिक एकता का अर्थ भारत की दो, तीन या चार धार्मिक वृत्तियों से जुड़ी संस्कृति का मिलन नहीं, न ही इसका अर्थ एक मिश्रित संस्कृति का उदय है। इसका सीधा मा अर्थ है कि हिंदू धर्म में विभिन्न मत-मतांतरों के होते हुए भी, खान-पान, रहन-सहन, पूजा-उपासना में विभेद रहते हुए भी विश्व का हिंदू सांस्कृतिक दृष्टि से एक सूत्र में बँधा है. वह एक है।
तथाकथित धर्म निरपेक्ष जनों के मतानुसार भारत में सांस्कृतिक एकता का अर्थ हिंदू-मुस्लिम तथा पाश्चात्य संस्कृति के एकीकरण में हैं। परिणामस्वरूप हिंदू संस्कृति, मुस्लिम और पाश्चात्य संस्कृतियों के सम्मुख ममर्पण करती जाती हैं। इस समर्पण का प्रभाव हिंदुओं की हीनता और राष्ट्र-विभाजन के रूप में प्रकट हो रहा है। भारत विभाजन इस विकृत तथाकथित सांस्कृतिक ऐक्य का प्रथम कटु प्रसाद था, जो मारे राष्ट्र ने चखा। स्वतंत्र भारत में यह नासूर बनकर सांप्रदायिक दंगों में रक्त रंजित ज्वालामुखी के रूप में फूट पड़ता है। भारत और भारतीयों को तबाह कर देता है। कैसी है यह सांस्कृतिक एकता?
संस्कृति का निर्माण ‘खुल सम सम’ की भाँति होता नहीं, सौ पचास वर्षों में उसकी पताका फहराती नहीं। अनेक पीढ़ियों के संस्कार सहस्रों वर्षों की तपस्या, चिंतन से संस्कृति का भवन खड़ा होता है। परंपराएँ, मान्यताएँ, आस्थाएँ, जीवनमूल्य उसके इस्पाती स्तंभ होते हैं। धार्मिक सिद्धांत, सामाजिक पारिवारिक परंपराएँ, जीवन जीने का दृष्टिकोण तथा शैली मानव माँ के स्तनपान से सीखता है और संस्कृति का उपासक बनता है।
अनेकरूपता किसी राष्ट्र की जीवंतता, संपन्नता तथा समृद्धि की द्योतक हैं। भारत विभेदों का समुद्र है, शायद इसलिए इसे उपमहाद्वीप माना जाता है। यहाँ ढाई कांस पर बोली बदलती है। संविधान स्वीकृत सतरह भाषाएँ हैं। सनातन धर्म आर्य समाज, ब्राह्मसमाज, नाथपंथी, कबीरपंथी, शैव, लिंगायत. शाक्त, वैष्णव आदि उपासना पद्धति के विविध भेद हैं। जैन, बौद्ध, सिख मत हिंदू धर्म के ही परिवर्तित रूप तथा अभिन्न अंग हैं। परिधान की विविधता में यहाँ इंद्रधनुषी सप्त रंगों के दर्शन होते हैं। रुचि की विविधता तथा जलवायु की आवश्यकता के अनुसार खान-पान में विभिन्नता है, पर ये विभिन्नताएँ भारतीय संस्कृति के एकता का पोषक ही हैं, बाधक नहीं।
भारत की बोलियाँ और भाषाएँ संस्कृत से संबद्ध तथा निस्सृत हैं। सभी भाषाओं की वर्णमाला एक नहीं, तो एक-सी अवश्य है, केवल लिपि का भेद है। संस्कृत की परिनिष्ठित लिपि होने के कारण देवनागरी प्रायः सभी भारतीयों द्वारा पहचानी जाती है। सबकी पृष्ठभूमि तथा व्याकरण प्रायः एक-से हैं। भाषाओं के भेद के बावजूद विचारों की एकरूपता यहाँ कभी खंडित नहीं हुई। आजादी की लड़ाई के लिए उत्तर और दक्षिण, पूर्व और पश्चिम, सभी ने बलिदान दिए। शोषण के विरुद्ध सभी ने आवाज बुलन्द की, विदेशी आक्रमण के समय सभी ने एक स्वर से प्रतिकार किया।
समस्त भारतीय साहित्य में एकात्मता के दर्शन होते हैं। वेद, उपनिपद्, षड्दर्शन तो हैं ही संपूर्ण भारत की पैतृक थाती। श्रीमद्भागवत्, पुराण, रामायण, महाभारत साहित्य के उपजीव्य रहे। राम और कृष्ण पर सभी भारतीय भाषाओं में ग्रंथ रचे गए। तुलसी के ‘मानस’ और सूर के ‘पद’ अनेक भाषाओं में अनूदित हुए। बंगाल के ‘वन्देमातरम्’ और ‘जन-गण-मन’ कोटि-कोटि भारतीयों के राष्ट्रगीत बने। विद्यापति हिंदी, मैथिली और बंगला में सम्मानित हुए, तो मीरा हिंदी और गुजराती में समान रूप से कवयित्री मानी जाती हैं। संतों की वाणी ने एकात्मता के दर्शन करवाए। संत तुकाराम आदि महाराष्ट्रीय संतों ने अपनी कविता में हिंदी को अपनाया। प्रेमचंद, अश्क, सुदर्शन, कृष्णचंदर ने हिंदी में लिखा और उर्दू में भी।
विभिन्न धार्मिक-उपासना पद्धतियों एवं मान्यताओं के बावजूद सबमें एक भावना है, एक दर्शन है। अयोध्या, मथुरा, माया (हरिद्वार), काशी, कांची, अवन्तिका (उज्जयिनी) तथा द्वारिका के दर्शन किए बिना हिंदू आज भी अपने को मोक्ष का अधिकारी नहीं समझता। ओंकार, गायत्री, गीता, गंगा, गोमाता के प्रति हिंदू मात्र की दृष्टि पूज्य है, श्रद्धायुक्त भावना है। शिव भक्त-ठेठ उत्तर की गंगोत्री से गंगाजल लेकर दक्षिण सीमा के रामेश्वरम् महादेव का अभिषेक कर आत्म संतुष्टि अनुभव करता है।
पर्व और त्योहार हमारी सांस्कृतिक एकता की आधारशिला हैं तथा एकात्मदर्शन के साक्षी हैं। होली का ‘हुड़दंग’, रक्षाबंधन की ‘राखी’ विजयदशमी का उल्लास तथा दीपावली का ‘पूजन’ हर हिंदू स्वप्रेरणा से करता है। नवरात्र पूजन, राम नवमी और कृष्ण जन्माष्टमी मनाने के लिए हिंदू की आत्मा उद्वेलित रहती है। कुंभ और महाकुंभ पर लाखों हिंदुओं का अपनी गाँठ से पैसा खर्च करके, कष्ट सहकर भी हरिद्वार, प्रयाग, नासिक आदि तीर्थों में एकत्र होना अटूट सांस्कृतिक एकता का प्रमाण है।
जन्म से मृत्यु-पर्यंत सोलह संस्कारों में अटूट विश्वास हमारी सांस्कृतिक एकता का संस्कारित दस्तावेज है। अग्नि की चार परिक्रमाएँ तथा सप्तपदी के मंत्रोच्चारण करते हुए वर-वधू का सात पग साथ के बिना हिंदू विवाह की कल्पना नहीं की जा सकती। इसी प्रकार शव को अग्नि में भस्म किए बिना शरीर की अन्त्येष्टि अपूर्ण रह जाती है।
दक्षिण के आचार्य शंकर ने भारत की चारों दिशाओं में चार मठ (उत्तर में ज्योर्तिमठ, दक्षिण में शृंगेरी मठ, पूर्व में गोवर्धन मठ तथा पश्चिम में शारदा मठ) स्थापित कर भारतीय सांस्कृतिक एकता को सुदृढ़ किया। ‘कलियुगे कलि प्रथम चरणे बौद्धावतारे’ कहकर प्रत्येक धार्मिक संकल्प में बुद्ध का पुण्य स्मरण किया जाता है। गुरु नानक ने हिंदी (ब्रज भाषा) में रचना की। गुरु गोविंदसिंह ने अपने काव्य में चंडी (दुर्गा) का स्तवन किया। ‘गुरु ग्रंथसाहब’ में कबीर आदि महात्माओं की भी वाणी संकलित हैं। जैनियों के भगवान ऋषभदेव का श्रीमद्भागवत में परम आदर के साथ उल्लेख हुआ है।
इस सांस्कृतिक एकता के कारण सृष्टि के आदि से चली आई भारतीय संस्कृति आज भी गौरव और गर्व से विश्व के प्रांगण में उन्नत मस्तक किए है। मिस्र, रोम, असीरिया, बेवीलोनिया, यूनान की संस्कृतियाँ काल के कराल थपेड़ों से नष्ट हो गईं, किंतु हमारी संस्कृति काल के अनेक थपेड़े खाकर भी आज अपने आदि स्वरूप में जीवित है। इसी कारण महाकवि इकबाल को कहना पड़ा, ‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।’