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भारत की विदेश नीति

Bharat ki videh niti hindi me

जब तक भारत पराधीन था, उसकी अपनी कोई अंतर्राष्ट्रीय राजनीति नहीं थी। ब्रिटिश सरकार की नीति भारत सरकार की नीति थी। इंगलैंड के शत्रु भारत के शत्रु माने जाते थे, और उसके मित्र हमारे मित्र। 1914 में इंग्लैंड और जर्मनी में युद्ध छिड़ा, तो भारत को भी जर्मनी, आस्ट्रिया और टर्की से युद्ध करना पड़ा। रूस, इटली, फ्रांस और जापान भारत के मित्र कहलाए। युद्ध के कुछ समय बाद जब जापान से आर्थिक और राजनैतिक प्रतिस्पर्द्धा शुरू हुई, तो भारत को भी जापान के विरुद्ध रुख अखत्यार करना पड़ा। इटली-अबीसीनिया युद्ध में ब्रिटेन का रुख ही भारत का रुख था। द्वितीय विश्व युद्ध के प्रारंभ में भारत सरकार ने जर्मनी से भी युद्ध की घोषणा कर दी, यद्यपि जर्मनी भारत का कुछ बिगाड़ा नहीं था। ब्रिटेन के नीति परिवर्तन के साथ-साथ भारत को भी रूस से अपने संबंध अनुकूल या प्रतिकूल करने पड़े। 1914 में इटली को हम मित्र मानते थे, पर 1936 में वह भारत का शत्रु गिना जाने लगा। 1920 में भारत राष्ट्रसंघ का सदस्य अवश्य बन गया था, पर उसकी कोई स्वतंत्र नीति वहाँ भी न थी। भारत सरकार केवल ब्रिटेन का पुछल्ला बनी हुई थी।

जनता की स्वतंत्र विदेश नीति

किंतु इसका अर्थ यह नहीं कि भारत की जनता की भी कोई स्वतंत्र विदेश नीति न थी। भारतीय जनता शक्ति के लिए संग्राम कर रही थी। साम्राज्यवाद, पराधीनता और राजनैतिक या आर्थिक शोषण से वह स्वयं परेशान थी। उसकी सहानुभूति उस प्रत्येक देश के साथ थी, जो स्वाधीनता के लिए संग्राम करता था। खिलाफत का कांग्रेस आंदोलन इसी भावना का ज्वलंत उदाहरण है। चीन ने जापान से रक्षात्मक युद्ध किया, तो भारत की राष्ट्रीय कांग्रेस ने वहाँ अपना मैडिकल मिशन भेजा। अबीसीनिया ने स्वातन्त्र्य संग्राम किया, तो भारत की सहानुभूति उसके साथ थी। मिस्र ने थोड़ी-बहुत स्वाधीनता प्राप्त की, तो भारत ने उसका हर्ष के साथ स्वागत किया। सारांश यह कि जो देश स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करता, भारत की सहानुभूति उसे प्राप्त होती। यह स्वाभाविक भी था और भारत के सत्य सिद्धांतों के अनुकूल भी था। परंतु जनता की यह विदेश नीति केवल सहानुभूति प्रदर्शन या प्रस्ताव पास करने तक सीमित थी। सक्रिय रूप से कुछ करने का उसे अधिकार भी न था।

जब भारत स्वतंत्र हुआ, तब उसे वस्तुत: यह अधिकार मिला कि वह अपनी अंतर्राष्ट्रीय नीति का निर्माण करता। भारत ने स्वातन्त्र्य लाभ करने से पूर्व अंतरिम शासन के काल में ही अखिल एशियाई देशों की एक शानदार कान्फ्रेंस अप्रैल 1947 में बुलाई। यह कान्फ्रेंस पहली कान्फ्रेंस थी, जो भारत के अभ्युदय के साथ-साथ एशियाई राष्ट्रों की मुक्ति का संदेश लाई थी। अब तक कभी एशियाई देशों ने अपनी स्वतंत्र सत्ता का अनुभव नहीं किया था। यहाँ दक्षिण-पूर्वी एशिया और मध्य-पूर्वी एशिया के देशों के प्रतिनिधि प्राए। उन्होंने अपनी-अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की घोषणा की। एशिया ने अँगड़ाई ली, वह उठ खड़ा हुआ, इसकी सूचना सारे संसार को मिल गई और साम्राज्यवाद की जड़ें हिलने लगीं। जापान के आक्रमण ने यूरोपियन साम्राज्यवाद की जड़ों को पहले ही कमजोर कर दिया था। इस कान्फ्रेंस में स्वतंत्रता, समानता तथा आर्थिक प्रभावों से मुक्ति का संदेश सुनाया गया।

भारत स्वतंत्र हुआ। उसके हृदय में विश्व निर्माण की, जिसमें शोषण न हो, पराधीनता न हो, बड़ी जबर्दस्त भावनाएँ थीं। उन प्रबल भावनाओं व उमंगों के साथ उसने अंतर्राष्ट्रीय रंगमंच पर प्रवेश किया। इसी समय विश्व के राजनैतिक क्षितिज में काले बादल मँडराने लगे थे। भारत ने अपनी नीति संसार के सामने रखी।

स्वतंत्र भारत की नीति

भारत की अंतर्राष्ट्रीय नीति के मुख्य चार तत्त्व थे –

(1) युद्ध को अनुत्साहित कर विश्व शांति की स्थापना के लिए प्रयत्न

(2) अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की गुटबंदी से दूर रहकर प्रत्येक प्रश्न पर न्याय अन्याय की दृष्टि से विचार;

(3) साम्राज्यवाद का, चाहे वह किसी भी प्रकार का हो, विरोध और स्वातन्त्र्य संग्राम का समर्थन; और

(4) अनिवार्य आवश्यकता या पड़ने पर आत्म-रक्षा के लिए अथवा पीड़ित आक्रान्त देश की रक्षा के लिए सैनिक कार्रवाई।

इस विदेश नीति के आधारभूत सिद्धांत इतने तर्क संगत और युक्ति-युक्त थे कि किसी को भी इनका विरोध करने का साहस नहीं हो सकता था। प्रारंभ में छल व स्वार्थ से पूर्ण राजनीतिज्ञों को भारत की नीयत पर विश्वास नहीं हुआ। वे स्वयं न्याय और सत्य की दुहाई देकर अपना स्वार्थ साधन ही एकमात्र विदेश नीति मानते थे। कूटनीति का अर्थ ही जिस किसी तरह स्वार्थ साधन था। पंडित नेहरू, जो राजनीति में गांधी जी के शिष्य रह चुके हैं, छल छिद्र से विहीन राजनीति लेकर अंतर्राष्ट्रीय राजनैतिक मंच पर आए। इसलिए यह स्वाभाविक था कि प्रारंभ में उन्हें कठिनाइयाँ होतीं। उन्होंने किसी गुट में शामिल होने से इनकार कर दिया। संयुक्तराष्ट्र अमरीका में किया गया उनका विराट् अभूतपूर्व राजसी स्वागत भी, जिसने अमरीकन राष्ट्रपति विल्सन को ब्रिटेन व फ्रांस का वशवर्त्ती बना दिया था, पंडित नेहरू को विचलित नहीं कर सका। वे अमरीका के मित्र तो रहे, पर दलगत राजनीति के साथ नहीं मिले। कश्मीर के प्रश्न पर इसका बुरा प्रभाव भी पड़ा। अमरीकन सहानुभुति पाकिस्तान के साथ रही। रूस भी संदिग्ध दृष्टि से भारत को देखता था, परंतु कुछ समय तक भारत की नीति में निष्पक्षता तथा पाकिस्तान के प्रति अपनी आदर्श नीति के पालन ने उसके संदेह दूर कर दिए।

प्रबल और सप्राण नीति

विदेशी राजनीति के मैदान में भारत नया खिलाड़ी अवश्य था, परंतु उसकी नीति इतनी सुदृढ़, सुस्पष्ट और निश्छल थी कि जल्दी ही उसकी आवाज जोर पकड़ती गई। जब इंडोनेशिया पर डच लोगों ने आक्रमण किया, तो भारत ने असंदिग्ध शब्दों में उसका समर्थन किया। जब अफ्रीका महाद्वीप में अनेक देशों ने स्वाधीनता का संग्राम किया, तो भारत ने उनका समर्थन किया। इसका परिणाम यह हुआ कि पराधीन एवं दलित देश भारत को मुक्तिदाता के रूप में देखने लगे। कोरिया का गृह युद्ध जब विश्व युद्ध का रूप लेने लगा, तो भारत की तटस्थ नीति ने ही उसका क्षेत्र व्यापक होने से रोक दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि भारतीय मत का आदर होने लगा। चीन में साम्यवादी शासन स्थापित हो चुका था। अमरीका उसे मानने को तैयार न था, पर भारत ने दूसरे देश के मामले में हस्तक्षेप न करने की नीति पर बल दिया और उसे संयुक्त राष्ट्रसंघ में लेने का आग्रह किया। इस नीति ने उसे भारत का मित्र बना दिया। परंतु चीन को यह मित्रता निबाहने के लिए स्वयं ही आक्रमण- नीति छोड़ने या सीमित कर देने पर विवश होना पड़ा। इस नीति के परिणाम- स्वरूप ही कोरिया में विराम-संधि स्थापित हुई और युद्धबन्दियों के संरक्षण का उत्तरदायित्व भारत ने लिया। उसकी निष्पक्षता पर दोनों दल विश्वास कर सकते थे। फिर तो उसकी धाक बढ़ती गई। बर्लिन का मामला पेचीदा हो रहा था, भारत ने उसे आगे बढ़ने से रोका। इंडोचायना में युद्ध व्यापक रूप धारण कर रहा था, भारत ने विराम -संधि का प्रयत्न किया और उसका भार भी भारत को उठाना पड़ा।

पंचशील

भारत की यही निष्पक्ष शांति नीति कुछ समय बाद पंचशील के सिद्धांत के रूप में प्रकट हुई। पंडित नेहरू ने यह अनुभव किया कि केवल निष्पक्षता व निराक्रमण की नीति से काम नहीं बनेगा। आवश्यकता यह है कि इस नीति को मानने वाला क्षेत्र अधिक से अधिक व्यापक किया जाए। फिर तो भारत ने अनेक देशों से एक ओर पंचशील के सिद्धांतों पर संधि की और दूसरी ओर विश्व शांति की नीति का प्रचार किया। कोलम्बो कान्फ्रेंस में पाँच एशियाई देश सम्मिलित हुए और दोनों गुटों से अलग रहने की नीति का समर्थन किया। कुछ समय बाद बाँडुंग में एक महत्त्वपूर्ण सम्मेलन किया गया। भारत का इसमें महत्त्वपूर्ण भाग था। इसकी एक विशेषता यह थी कि इसमें एशिया व अफ्रीका के 29 देशों को निमंत्रित किया गया था। इसमें भी उसी अनाक्रमण व तटस्थ नीति का जोरदार समर्थन हुआ। इसी तरह भारत की शांति नीति का क्षेत्र अधिकाधिक व्यापक होता गया।

चीन व रूस से

पंडित नेहरू ने यह अनुभव कर लिया था कि केवल चीन से काम न बनेगा। चीन रूस से अपने को अलग नहीं कर सकता था। इसलिए पंडित नेहरू ने रूस की महत्त्वपूर्णयात्रा द्वारा उसे भी अपनी नीति की प्रेरणा दी। रूस जैसे साम्यवादी और हिंसा की नीति पर आस्था रखने वाले देश को पंडित नेहरू ने विश्व शांति का वह संदेश दिया, जो उन्होंने महात्मा  बुद्ध और महात्मा  गांधी की शिक्षाओं से पाया था।

सिद्धांत नहीं, व्यवहार में भी

पंडित नेहरू के यह शांति संदेश केवल मौखिक नहीं हैं, वे उन पर आचरण भी करते हैं। पाकिस्तान के बार-बार उत्तेजित करने पर भी भारत शांति नीति को अपनाए हुए है। गोवा में भी जनता के आग्रह के बावजूद उन्होंने अपना एक भी सैनिक नहीं भेजा। फ्रांसीसी प्रांतों को उन्होंने शांतिपूर्ण चर्चा द्वारा ही भारत में विलीन कर लिया। विश्व शांति की भारतीय नीति को आत्मसमर्पण का नाम देना भ्रामक होगा। साम्राज्यवाद, शोषण और प्रभाव के प्रति भारत आज भी अत्यंत उग्र है। पाकिस्तानी सेनाओं को कश्मीर में आगे नहीं बढ़ने दिया जा रहा है। उसकी उदार नीति का पाकिस्तान निरंतर दुरुपयोग कर रहा है। भारत की विदेश राजनीति की वास्तविक सफलता में अभी तक यह बड़ी बाधा बनी हुई है। देखना है, पंडित नेहरू इसका समाधान किस तरह करते हैं।

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