भारत की विदेश नीति

foreign policy of India an hindi essay

संकेत बिंदु-(1) विदेश नीति का उद्देश्य (2) नैतिकता का सिद्धांत अव्यहारिक (3) तटस्थता की नीति अव्यवहारिक (4) विदेश नीति के हथियार और सफलता (5) उपसंहार।

भारत की विदेश नीति का उद्देश्य यह रहा है कि अगणित बलिदानों से अर्जित हमारी स्वाधीनता चिरंजीवी रहे, हमारी अखंडता तथा एकता अक्षुण्ण रहे और अपने देश में अपनी प्रकृति, प्रतिभा तथा परंपरा के आधार पर अपना वर्तमान और भविष्य गढ़ने का हमारा अधिकार सुरक्षित रहे।

राष्ट्रीय हितों का संरक्षण और संवर्द्धन आंतरिक राजनीति के घात-प्रतिघातों, उतार-चढ़ावों तथा संसदीय विवादों के आक्रमणों से परे विदेश नीति को एक ऐसी निरंतरता प्रदान करते हैं, जो जड़ नहीं, गतिमान् होती है; परिस्थिति-निरपेक्ष नहीं, समाज सापेक्ष होती है। इसलिए राजनीति में कोई स्थायी मित्र या स्थायी शत्रु नहीं होता; स्थायी होता है तो केवल ‘राष्ट्रीय हित’।

भारत विकासशील राष्ट्र है। उसे विकास के सोपानों पर चढ़कर अपनी समृद्धि करनी है, इसलिए उसे चाहिए विश्व शांति। विश्व शांति के लिए चाहिए राष्ट्रों के बीच मेल-मिलाप, विश्वास और सहयोग की भावना का संवर्द्धन। इससे राष्ट्रों के बीच तनाव दूर होंगे, संघर्ष का खतरा टलेगा।

विदेश नीति में नैतिकता का सिद्धांत अव्यवहार्य है। भारत ने जब भी नैतिकता का पल्ला पकड़ा, उसे हानि हुई। भारतीय सेना के बढ़ते चरण जब कश्मीर को आजाद करवा रहे थे तो पंडित नेहरू ने युद्ध-विराम करके कश्मीर का 40 प्रतिशत भाग पाकिस्तान के पास रहने दिया। 1971 के भारत-पाक युद्ध में विजयी भारत नैतिकता के कारण शिमला समझौता में हार गया। अरबों, फिलिस्तीनियों तथा मुस्लिम राष्ट्रों का प्रबल पक्षधर बनकर भारत ने पश्चिमी राष्ट्रों की सहानुभूति खो दी। लीबिया के आक्रमण में ज्यादा चूँ-चपड़ करने का परिणाम हमारी आंतरिक स्थिति पर पड़ा। विदेशमंत्री बलिराम भगत को सरकार से हटना पड़ा। श्रीलंका में हस्तक्षेप करके हमें आर्थिक, सैनिक तथा सम्मान की दृष्टि से हानि ही नहीं उठानी पड़ी, श्री राजीव गाँधी की बलि भी चढ़ानी पड़ी।

हमारी तटस्थता की नीति सिद्धांततः सुंदर है, पर व्यावहारिक रूप में कुरूप है। अमरीका और भारत के बुनियादी हित टकराते हैं, इसलिए अमरीका की आँख की किर-किरी भी हमारे लिए जिहाद खड़ा करने का कारण बन जाती है। जबकि रूस खंडित हो

चुका है और अमरीका विश्व की एकमात्र प्रबल शक्ति बन गया है। वह भारत को पग-पग पर नीचा दिखाता रहा है।

पड़ोसियों के प्रति हमारी विदेश नीति संबंध सुधारने की रही है। संबंध सुधारने के लिए तनाव पैदा करके चलना तथा थोड़ा-सा डराना-धमकाना हमारी नीति रही है, ताकि पड़ोसी राष्ट्र परस्पर मिलकर हमारे लिए संकट पैदा न कर सकें। यह नीति भी असफल रही। पाकिस्तान, श्रीलंका, बंगलादेश, नेपाल-सभी पड़ोसी देशों से हमारे संबंध बिगड़ते चले गए। पाकिस्तान पहले पंजाब में अब खुलेआम कश्मीर में आतंकवाद के सहारे भयंकर नर-संहार और विद्रोह करवा रहा है।

हमारी विदेश नीति का एक हथियार रंग-भेद नीति का विरोध भी है। हम अफ्रीकी राष्ट्रों की अल्पमत वाली प्रिटोरिया सरकार के विरुद्ध खूब आग उगलते हैं, अफ्रीकी जनता को अपना नैतिक समर्थन देते हैं, किंतु परोक्ष रूप में लगता है कि कहीं हम कुछ खो तो नहीं रहे। राष्ट्रीय खेलों के आयोजन के लिए सियोल सम्मेलन में अफ्रीकी तथा कैरिबाई राष्ट्रों ने भारत को वोट नहीं दिए और भारत हार गया।

विदेश नीति की दूसरी असफलता है विदेश व्यापार में असंतुलन। आयात और निर्यात में सैकड़ों करोड़ के अंतर ने देश की अर्थव्यवस्था को चौपट कर दिया है। ऊपर से ओढ़ी हुई बहु-राष्ट्रीय कंपनियों की चादर भारत के व्यापार को रसातल में पहुँचा देगी। भारत पर विदेशी ऋण उसके सम्मान को चोट पहुँचा रहा है, स्वाभिमान को गिरवी रख रहा है। ब्रिटेन से बेस्टलैंड हैलीकाप्टर और हरमीज विमानवाहक युद्धपोत की खरीद का सौदा हमारी दोषपूर्ण विदेश व्यापार नीति का प्रत्यक्ष प्रमाण है।

वाजपेयी सरकार आने के बाद विदेश नीति में काफी परिवर्तन आया। आज विश्व में भारत की विदेश नीति का महत्त्व शनैः-शनैः बढ़ा। पिछले 52 वर्षों में पहली बार अमेरिका ने भारत के साथ गंभीरता से बातें कीं। अमेरिका के साम्राज्यवाद का भूत पूरे जोर-शोर से उतारा गया और विदेश मंत्री जसवंत सिंह ओझा थे। सितंबर 2000 में प्रधानमंत्री अटल जी की अमेरिका-यात्रा इसका प्रमाण है। कारगिल में संयम बरतकर अमेरिका और यूरोपियनों के साथ पींगें बढ़ाई गईं। पुरानी दुहाई देकर रूस से संबंध विकसित हुए। जापान जैसा समृद्ध राष्ट्र भारत से संबंध बढ़ाने को तत्पर हुआ। केवल एक ही वर्ष सन् 2000 में अमेरिका के राष्ट्रपति क्लिंटन, रूसी राष्ट्रपति पुतिन तथा विश्व के अनेक राष्ट्राध्यक्षों. तथा प्रधानमंत्रियों का भारत में आगमन भारत की विदेश नीति की महत्त्वपूर्ण सफलता है।

अमिताभ भट्ट के शब्दों में-“ अब भारत की विदेश नीति नैतिकता परक राजनीति से व्यावहारिक राजनीति की ओर बढ़ रही है।” “विदेश मंत्री जसवंतसिंह के शब्दों में “राष्ट्र की राष्ट्रीय स्मृति दोबारा प्राप्त कराना ही विदेश नीति का काम है।” परिणामतः कई देशों में भारत की छवि निखरी है और कई दोस्त बने हैं, बन रहे हैं।

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