भारत में भ्रष्टाचार

bharat me bhrashtachar par ek hindi nibandh

संकेत बिंदु-(1) भ्रष्टाचार का अर्थ (2) रिश्वत और बेईमानी का पर्याय (3) राजनीतिक भ्रष्टाचार (4) धन का प्रभाव (5) उपसंहार।

दूषित और निंदनीय, पतित और अवैध आचरण भ्रष्टाचार है। अधिकारियों तथा कर्मचारियों द्वारा विहित कर्त्तव्यों का निष्ठापूर्वक यथोचित रूप से पालन न करके, मनमाने ढंग से, विलंब से तथा कार्यार्थी से रिश्वत लेकर अनुचित रूप में कार्य करना भी भ्रष्टाचार है।

भ्रष्ट आचरण का अभिप्राय ऐसा आचरण और क्रियाकलाप है जो आदर्शों, मूल्यों, परंपराओं, संवैधानिक मान्यताओं और नियम व कानूनों के अनुरूप न हो। भारतीय संविधान, भारतीय मूल्यों और आदर्शों के साथ किया जाने वाला विश्वासघात भी भ्रष्ट आचरण है। व्यापारी खाद्य वस्तु और पेट्रोलियम पदार्थों में मिलावट करते हैं, तीन रुपये की वस्तु के तेरह रुपये वसूलते हैं, यह भी भ्रष्टाचार ही है।

भ्रष्टाचार सामाजिक स्वास्थ्य के लिए विकार उत्पन्न करने का कारण है।

भ्रष्टाचार रिश्वत और बेईमानी का पर्याय है। इसके मूल में है अत्यधिक धनोपार्जन की लिप्सा। जब धन-संपत्ति के संग्रह की व्यापक छूट हो तो आगा-पीछा सोचने की जरूरत ही क्या है? इस छूट से सच्चाई पर स्वतः पर्दा पड़ जाएगा, न्याय पर सोने का पानी चढ़ जाएगा। यदि धन-संग्रह की खुली छूट न होती, तो न्यायालय के चपरासी, बाबू और रीडर न्यायाधीश से भी अधिक अमीर कैसे होते? हाजी मस्तान, बखिया और पटेल जैसे तस्कर-सम्राट् भारत में कैसे फलते-फूलते? शेयर किंग हर्षद मेहता भारत के अर्थ-तंत्र की जड़ें कैसे हिला पाता?

प्रशासनिक शिथिलता भ्रष्टाचार की जड़ है। रिश्वत के बिना ‘फाइल’ हिलेगी नहीं और कार्य की संपन्नता पर प्रश्नवाचक चिह्न बना ही रहेगा। लिपिक से लेकर मंत्री तक, लालफीताशाही की गिरफ्त में हैं। उस बंधन को काटने के लिए चाहिए बख्शिश, रिश्वत, मेहनताना, दस्तूरी।

भारत आज भ्रष्टाचार के रोग से ग्रस्त है। यहाँ का राजनीतिज्ञ सूखा पीड़ित जनों में वितरणार्थ आए अनाज की तो बात ही क्या पशुओं का ‘चारा’ तक खा जाता है। दोषी और भ्रष्ट नेताओं के विरुद्ध मुकदमे वापिस हो जाते हैं। समाजद्रोही तत्त्वों को न केवल सरकार का प्रश्रय मिलता है, अपितु उन्हें स्वच्छंद पापाचार का लाइसेन्स भी मिलता है, तो भ्रष्टाचार रुकेगा कैसे?

सरकारी कानूनों के नाम पर लोगों के उचित और सही काम भी जब फाइलों में लटकते रहेंगे, परियोजनाओं की पूर्ति के लिए खुलकर कमीशन मिलते और माँगे जाते रहेंगे, सरकारी खरीद में हिस्सा मिलता रहेगा तो लोगों में नैतिकता का बोध कैसे कायम रह पाएगा?

यदि राजनीति में व्यक्ति, सिद्धांत, विचारधारा एवं संगठन की बजाय धन ही प्रभावी होता जाएगा और बिना पैसे वाले निष्ठावान् कार्यकर्ता की अवहेलना की जाती रहेगी, तो सार्वजनिक जीवन में पवित्र मूल्यों की स्थापना कैसे हो पाएगी?

श्री अटलबिहारी वाजपेयी का मानना है, ‘भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक उदासीनता की स्थिति भी है क्योंकि भ्रष्टाचार ने संस्थागत रूप ले लिया है। लोग मानने लगे हैं कि भ्रष्टाचार न सिर्फ प्रशासन में बल्कि जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में इस हद तक फैल चुका है कि उसे मिटाया नहीं जा सकता।

इंगर सोल के शब्दों में-“ इस युग की सबसे बड़ी देन मुखौटा है जिसे पहने बिना आज की सभ्यता से त्राण नहीं, आज की दुनिया में गुजर नहीं। दूसरी ओर, ये मुखौटे हमारी असलियत को चाट गए हैं। हम समाप्त हो गए हैं। बस, मुखौटे मात्र बच गए हैं। ये मुखौटे दिन के उजियाले में भ्रष्टाचार को कोसेंगे और रात के अंधियारे में उसकी आरती उतारेंगे। क्या कोई माई का लाल आएगा, जो इन मुखौटों को उतार फेंकेगा और मनुष्य को उसका असली रूप दिखाएगा?”

भ्रष्टाचार पर अंकुश कुछ प्रभावी कदम उठाकर लगाया जा सकता है। सबसे पहले इस बात की जरूरत है कि मान्यता प्राप्त दलों के उम्मीदवारों का चुनावी खर्चा सरकार वहन करे। दूसरे, गोपन कानून को संशोधित किया जाए, क्योंकि जितने पर्दे कम होंगे, पाप भी उतने ही कम होंगे। तीसरे, शक्तियों का विकेंद्रीयकरण हो। शक्तियों के विकेंद्रीयकरण से चीजें पंचायती हो जाएँगी और भ्रष्टाचार करना आसान नहीं होगा। चौथे, रचनात्मक जवाबदेही से युक्त राजनीतिक लोकाचार स्थापित हो। इसके तहत कोई अफसर या राजनेता यह कह कर नहीं बच सकता कि उसने चोरी नहीं की, बल्कि उसके रहते चोरी हुई। यही उसे गैर जिम्मेदार साबित करने के लिए पर्याप्त है और पाँचवें, राजनीतिक कार्रवाइयों के लिए एक गैर-राजनीतिक ‘पीपुल्स प्लेटफॉर्म’ (जन-परिषद्) बने, जो स्थायी विपक्ष की भूमिका अदा करता रहे।’

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