संकेत बिंदु-(1) विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र (2) मतदाताओं की उदासीनता (3) भारत में कार्यपालिका और न्यायपालिका (4) कार्यपालिका और समाचार पत्र (5) उपसंहार।
भारत लोकतंत्रात्मक देश है। यहाँ अब्राहम लिंकन की परिभाषा के अनुसार, ‘जनता के लिए, जनता द्वारा, जनता की सरकार’ शासन रत है। लोकतंत्र के चारों स्तंभ-न्यायपालिका, कार्यपालिका, समाचार-पत्र तथा विधायिका, यहाँ स्वतंत्र हैं। लोकतंत्र की आधारशिला चुनाव हैं। यहाँ चुनाव भी पाँच वर्ष में नियमित रूप में होते हैं। लोकतंत्र में व्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार भी व्यक्ति को प्राप्त है। इस प्रकार भारत में पूर्ण लोकतंत्र है।
भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्रात्मक राष्ट्र है। यहाँ अब हर अठारह वर्षीय पुरुष और महिला को निर्वाचन में वोट देने का अधिकार है। (पहले मतदान की आयु इक्कीस वर्ष थी।) यह कितनी बड़ी उपलब्धि है, भारत के लोकतंत्र की। पर भारत के चालीस प्रतिशत् मतदाता अनपढ़ हैं, अशिक्षित है। लगभग दस प्रतिशत ऐसे मतदाता हैं, जिनकी आयु 18 से 20 वर्ष तक है। इसको भारतीय सरकार विवाह के दायित्व वहन करने के अयोग्य समझती है, पर मतदान के लिए नहीं। अमेरिका के राष्ट्रपति कैनेडी ने कहा था ‘जनतंत्र’ में एक मतदाता का अज्ञान सबकी सुरक्षा को संकट में डाल देता है।’ भारत में नो 40 प्रतिशत से अधिक मतदाता ‘वोट’ के महत्त्व से अपरिचित हैं। ऐसी स्थिति में लोकतंत्र की सार्थकता पर प्रश्न चिह्न लग जाता है।
भारत का अधिकांश मतदाता जब ‘वोट’ के महत्त्व को नहीं समझते तव वह पैसे से खरीदे जाते हैं। मतदाता जाति-बिरादरी के दवाब में मत देता है या शराब से मदमस्त किया जाता है। भय और आतंक की छाया में उससे वोट डलवाया जाता है। जाली वोट डलवाए जाते हैं। ‘बूथ केप्चरिंग’ की जाती है। मतों की गणना में गड़बड़ करवाई जाती है। प्लेटो के मतानुसार – “जहाँ मतदाता मूर्ख है, वहाँ उसके प्रतिनिधि धूर्त होंगे।” ऐसे धूर्त प्रतिनिधियों के कारण ही बर्नार्ड शॉ को कहना पड़ा, “सच्चा देशभक्त और त्यागी नेता चुनाव के रेगिस्तान में निरर्थकता की फसल बोते बोते दम तोड़ देता है और धूर्त एवं छली व्यक्ति मैदान मार लेता है।”
अज्ञेय जी का कहना है, “जनतंत्र व्यवहारतः विश्वास या आस्था के ही सहारे चलता हैं।” और भारत में शीर्ष नेताओं के जनतंत्र के प्रति विश्वास और आस्था का हाल यह है कि उनके ‘राजनीति शास्त्र कोश’ में ये दोनों शब्द हैं ही नहीं। चौधरी चरणसिंह तथा श्री चंद्रशेखर का प्रधानमंत्री बनना आस्था या विश्वास की गला घोट प्रवृत्ति का ही प्रतीक है। इनको प्रधानमंत्री बनाने वाली तथा इनकी सरकारों की शैशवकाल में ‘जघन्य हत्या’ करने वाली राजनीतिक दलों की आत्मकेंद्रित राजनीति है। श्री देवगौड़ा और इंद्रकुमार गुजराल का प्रधानमंत्री बनना और शीघ्र ही पदच्युत होना इसी परंपरा की एक कड़ी है। जहाँ ‘व्यक्ति’ तथा ‘पार्टी स्वार्थ’ से राष्ट्र का लोकतंत्र चलता हो वहाँ लोकतंत्र की सार्थकता कैसी?
भारत का प्रधानमंत्री लोकतंत्रात्मक पद्धति से इस पद को प्राप्त करता है, परंतु प्रधानमंत्री बनने के बाद उसमें तानाशाह की आत्मा जाग्रत हो जाती है। (इंदिरा गाँधी और राजीव गाँधी में यही प्रवृत्ति रही है।) किसी भी निर्वाचित मुख्यमंत्री को बार-बार बदलना, प्रान्तीय सरकारों के कार्य में हस्तक्षेप करना, मंत्रि-परिषद् में मनमाना फेर-बदल करना, बिना परामर्श राज्यपालों की नियुक्ति करना, संबंधित राज्य की सहमति के बिना राष्ट्रीय स्तर पर समझौते करना, संसद को अपनी मर्जी का चाबी भरा खिलौना समझना, लोकतंत्र की आड़ में जनतंत्र की हत्या ही तो है।
लोकतंत्र में न्यायपालिका की स्वतंत्रता अनिवार्य है, किंतु भारतीय केंद्रीयय सत्ता ‘कमिटेड जूडीशरी’ (प्रतिबद्ध न्यायपालिका) की हिमायती रही है। न्यायाधीशों की नियुक्ति में राजनीतिक रुचि निर्णय लेती है। सरकारी निर्णय या नीति के विरुद्ध निर्णय देने वाले न्यायाधीशों की पदोन्नति रोककर या स्थानांतरित करके उन्हें सबक सिखाया जाता है। आम सभाओं और संसद में उनकी आलोचना होती है। उनके चरित्र पर लांछन लगाए जाते हैं, तब न्यायपालिका की स्वतंत्रता का प्रश्न ही नहीं उठता।
भारत की कार्यपालिका लोकतंत्र की जड़ खोदने में लगी है। प्रशासन की सुस्ती, भ्रष्टाचार, लालफीताशाही, प्रशासनिक अधिकारियों का प्रमाद और निर्णय लेने में बुद्धि की कुंठा, सबने मिलकर लोकतंत्र को ठेस पहुँचाई है। देश में बढ़ती अराजकता, आतंकवाद तथा स्वच्छंद प्रवृत्ति प्रशासन की असफलता का द्योतक है। जब प्रशासन लूला-लंगड़ा हो तो लोकतंत्र की सार्थकता पर प्रश्न चिह्न लगना स्वाभाविक है।
लोकतंत्र का चतुर्थ स्तंभ है समाचार-पत्र। विचारों की अभिव्यक्ति लोकतंत्र की रीढ़ है। भारत में सत्ता के विरुद्ध समाचार-पत्रों को विचार अभिव्यक्ति का दंड भुगतना पड़ता है। ‘इन्कम टैक्स’ के छापों से तंग किया जाता है। सरकारी विज्ञापन न देकर आर्थिक कमर तोड़ी जाती है। प्रतियाँ जब्त करके विचारों की अभिव्यक्ति रोकी जाती है। मुकदमे ठोक कर परेशानी पैदा की जाती है। कार्यालयों पर प्रदर्शन करके, तोड़-फोड़ करके, संवाददाताओं को पिटवाकर जेल भेजकर तथा मरवा कर उनका मनोबल तोड़ा जाता है। जब लोकतंत्र का चतुर्भ स्तंभ ही कमजोर हो जाएगा तो लोकतंत्र की स्थिति विडंबना बनकर रह जाएगी।
लोकतंत्र भारत का सुहाग चिह्न है, ठीक उसी प्रकार से जैसे मंगलसूत्र, बिछवे या सिंदूर धारण किए हुए स्त्री को देखकर पता चलता है कि उसका पति ज़िंदा है। पति गूँगा, बहरा, अपाहिज हो, क्षय रोग से ग्रस्त हो, उससे हर तरह का संवाद खत्म हो चुका हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। औरत है तो सधवा ही। ठीक उसी प्रकार संविधान को स्थगित करके, व्यक्तिगत स्वतंत्रता को हर कर, आपत्काल लगाकर तथा लोकतंत्र के चारों स्तम्भों को कमजोर करके, उनका मनोबल तोड़कर भी भारत में लोकतंत्र है तो जीवित। यदि इस आत्मघाती, विक्षिप्त और प्रज्ञा-विहीन लोकतंत्र में भारत का हित है तो भारत में लोकतंत्र की सार्थकता को स्वीकारना होगा।