भारत में जातिवाद

bharat men jatiwaad par ek hindi nibandh

संकेत बिंदु-(1) जाति व्यवस्था की स्थापना (2) वर्तमान वर्ण व्यवस्था जन्मतः (3) ऋग्वेद में वर्ण व्यवस्था (4) बाह्मण ग्रंथों में वर्ण व्यवस्था (5) उपसंहार।

अंतरिक्ष, पृथ्वी और पाताल में ब्रह्माण्ड का विभाजन उसके शृंगार का परिचायक है। सृष्टि की उत्पत्ति, पालन और संहार में देवगण का कार्य विभाजन सुचार-मुव्यवस्थित सृष्टि संचालन का कारण हैं। इसी प्रकार किसी भी राष्ट्र में केंद्र, प्रांत, जनपद, नगर, ग्राम आदि में विभक्त शासन योजना स्वस्थ शासन की अनिवार्य व्यवस्था है। पृथ्वी पर विभिन्न धर्मों की अवधारणा परमात्म-तत्त्व की प्राप्ति के विविध सत्य पथ हैं। उसी प्रकार समाज का विभिन्न वर्णों (वर्गों) और जातियों में विभाजन सामाजिक व्यवस्था की श्रेष्ठता का अलंकरण ही है।

हिंदू धर्म भारत का शाश्वत सनातन धर्म है। सृष्टि का आदि धर्म है। इस श्रेष्ठ धर्म के अनुयायियों को गुण और कर्म के अनुसार विभिन्न वर्णों में विभक्त कर हमारे समाज के निर्माता ऋषि-मुनियों ने अद्भुत सृझ-बूझ का परिचय दिया है। भगवान कृष्ण ने श्रीमद् भगवद्गीता में कहा है, ‘चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्म विभागशः ‘ अर्थात् मैंने गुण और कर्म के अनुसार ही चातुर्वर्ण्य अर्थात् जाति-व्यवस्था की स्थापना की है।

गुण और कर्म पर आधारित वर्ण निर्णय में जब समस्याएँ उत्पन्न हुई होंगी और उनका समाधान समस्या से अधिक जटिल तथा विषम हो गया होगा तो भारतीय मनीषियों ने इसे जन्मतः स्वीकार कर लिया होगा। इस वर्ण-व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मण की संतान ब्राह्मण, क्षत्रिय की संतान क्षत्रिय, वैश्य की संतान वैश्य तथा शूद्र की संतान शूद्र ही कहलाई। जन्मतः वर्ण-व्यवस्था में सभी वर्णों के कर्त्तव्य निश्चित हो गए। कर्त्तव्य द्वारा सबके लिए जीविका का प्रबंध हो गया। ब्राह्मण का धर्म-क्षेत्र, क्षत्रिय का राष्ट्र क्षेत्र, वैश्य का व्यापार रक्षण-वर्धन और शूद्र का सेवा क्षेत्र निश्चित हुए। बुद्धि, बल. सामर्थ्य, पुरुषार्थ पर एक व्यक्ति या जाति का अधिकार नहीं होता। अतः कालांतर में इन निश्चित कार्य क्षेत्रों में एक दूसरे का हस्तक्षेप होने लगा होगा, तो यह कार्य विभाजन व्यवस्था भी भंग हो गई। फलतः अब चारों वर्णों के लोग अपनी सुविधा और जीविका, प्रारब्ध और पुरुषार्थ की दृष्टि से सभी कार्य स्वीकार करते हैं।

वर्तमान वर्ण-व्यवस्था जन्मतः है। सभी वर्णों के सदस्य जीवन के हर क्षेत्र में कार्य करने को स्वतंत्र हैं। वैश्य कुल में उत्पन्न जयशंकर प्रसाद और मैथिलीशरण गुप्त आजन्म ब्राह्मण कर्म में लीन रहे। शूद्र-कुलोत्पन्न डॉ. भीमराव अम्बेडकर भारतीय संविधान निर्माता हुए। ब्राह्मण कुल में उत्पन्न जवाहरलाल और अटलबिहारी वाजपेयी ने राष्ट्र-रक्षा अर्थात् क्षत्रिय कर्म अपनाया। क्षत्रिय कुल में जन्मे मुंशी प्रेमचंद और महादेवी वर्मा ज्ञान का दीप जलातें रहे अर्थात् ब्राह्मण कर्म में रत रहे।

ऋग्वेद के दशम मंडल के पुरुष सूक्त में वर्ण व्यवस्था का स्पष्ट उल्लेख अवश्य है। “ यज्ञ के लिए जिस परम पुरुष की परिकल्पना की गई थी, उसको किस-किस प्रकार गढ़ा गया? उसका मुख क्या था? उसकी बाहें क्या थीं? उसकी जाँघें क्या थीं? उसके पैर क्या थे?” मंत्र 11 में इस प्रश्न का उत्तर दिया गया है-“ ब्राह्मण उसका मुख था। क्षत्रिय उसकी बाहें, वैश्य उसकी दो जँघाएँ तथा दो पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए।” पर यह पाश्चात्य दृष्टि से सोचने वालों को अपेक्षाकृत अर्वाचीन लगता है। उनके अनुसार संपूर्ण ऋग्वेद में वर्ण शब्द परवर्ती वर्ण-व्यवस्था के अर्थ में कहीं प्रयुक्त नहीं हुआ। ऋग्वेद में वर्ण शब्द रंग या प्रकाश अर्थ में अनेकशः प्रयुक्त हुआ है।

ऋग्वेद के उपरांत अन्य तीनों वेदों-यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद एवं इन वेदों के विभिन्न ब्राह्मण ग्रंथों का समय उत्तर वैदिक काल के नाम से अभिहित होता है। इस काल में आकर ‘वर्ण’ शब्द का अर्थ रंग की अपेक्षा जाति अर्थ में सुनिश्चित रूप से प्राप्त होता है। इस युग में धार्मिक तथा सामाजिक क्षेत्रों में स्थिति, अधिकार, कर्त्तव्यों और कार्यों की दृष्टि से चारों वर्णों में परस्पर भिन्नता दिखाई देने लगती है।

ब्राह्मण ग्रंथों के प्रणयन के समय तक वर्णव्यवस्था इतनी सुदृढ़ हो गई थी कि देवों का भी विभिन्न वर्णों में विभाजन कर दिया। अग्नि एवं बृहस्पति देवता ब्राह्मण थे; इंद्र, वरुण तथा यम देवता क्षत्रिय थे; वसु, रुद्र, विश्वेदेव तथा मरुत् विश् (वैश्य) थे एवं पूपन् शूद्र था।

बृहदारण्यक उपनिषद् में चारों वर्णों की उत्पत्ति प्रगति के आधार पर वर्णित है (1/ 4/11/5) तो छान्दोग्योपनिषद् कहता कि पूर्व जन्म के कर्म ही व्यक्ति के वर्ण का आधार बन जाते हैं। (5/10/7)

जाति का सवाल सामाजिक परिवर्तन और आर्थिक विकास की श्रेष्ठ बृहत्तर योजना थी। तथाकथित दलित और पिछड़ी जाति के बालकों को शिक्षित कर, उनकी अंत:करण की चेतना जागृत कर, दिल और दिमाग के स्वाभाविक द्वार खोलने के स्थान पर आर्थिक सहयोग पर बल दिया गया। प्रत्यक्ष आर्थिक सहायता देकर तथा परोक्ष रूप में उनके लिए नौकरी तथा चुनावों में स्थान आरक्षित कर उनकी आर्थिक दशा को सुधारने का प्रयत्न किया गया। फलस्वरूप दस प्रतिशत दलित और पिछड़े जन ही इन 54 वर्षों में अपना जीवन सुधार पाए। दूसरी ओर, यह उन्नत और नव-घनाढ्य दलित और पिछड़ा वर्ग अपनी जाति के सामूहिक उद्धार से विमुख हो गया। वह अपनी सत्ता, अपना परिवार, अपने संबंधी वर्ग के हित में संपूर्ण जाति के दर्शन करने लगा। जाति उत्थान का यह दृष्टिकोण ही उस जाति के लिए घातक है, जिसका राजनीतिज्ञ उत्थान करना चाहते हैं।

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