संकेत बिंदु-(1) प्राण जीवन की पहचान (2) देश प्राणों से प्यारा (3) देश पर प्राण न्योछावर करने वालों का सम्मान (4) सारे जग से न्यारा भारत हमारा (5) उपसंहार।
प्राण जीवन की पहचान है, इसलिए प्राण-रक्षार्थ प्राणी अपनी सामर्थ्यानुसार सब उपाय और प्रबंध करता है। संपूर्ण जीवन ‘प्रिय प्राणों’ की सेवा में अर्पित कर देता है। अथर्ववेद (11/4/1) भी प्राण को प्रणाम करते हुए कहता है, ‘प्राणाय नमो यस्य सर्वमिदं वशे’ अर्थात् जिसके अधीन यह सब कुछ है, उस प्राण को प्रणाम है।
पुत्र रूप जन और माता रूप भूमि के मिलन से ही देश की सृष्टि होती है। इसमें जब अपनत्व का अमृत घुलता है तो देश अपना और हमारा बन जाता है। हमारा देश अर्थात् हमारी मातृभूमि, पितृभूमि तथा पुण्यभूमि। जिस भूमि में माता का मातृत्व, पिता का पितृत्व और पुण्य की पुनीतता का प्रसाद हो, वह वंदनीय है।
जो श्रेष्ठ, सुंदर अथवा आकर्षक होने के कारण प्रेमपूर्ण भाव का अधिकारी हो, वह प्यारा है। जिसके प्रति बहुत अधिक प्रेम, मोह या स्नेह हो, वह प्यारा है। प्यारा प्राणों की प्रतिमूर्ति है, पुण्यलता की प्रत्यात्मा है और नेत्रों के लिए देवता।
जब देश पर आक्रमण होता है, तब देश-भक्त वीरों के लिए प्राणों का मूल्य समाप्त हो जाता है। विजेता जब देश में लूट-मार करता है, तब प्राणों की जीवन-शक्ति जवाब दे देती है और रही सुख-समृद्धि की बात-‘पराधीन सपनेहि सुख नाहिं।’ पराधीनता में उन प्रिय प्राणों का विसर्जन भी स्वेच्छा से असंभव है। रामायण के सुंदरकांड में वाल्मीकि लिखते हैं, ‘न शक्यं यत् परित्यक्तु मात्मच्छेन्देन जीवितम्।’ तब इन प्राणों का मोह कैसा? देश से अधिक प्यारे कैसे?
देश पर प्राण न्योछावर करने वालों का सम्मान ‘शहीद’ या ‘हुतात्मा’ कहकर किया जाता है। देश उसकी मृत्यु पर गर्व करता है। उसकी चिता पर हर वर्ष मेले लगाता है। पुण्य-तिथि मनाकर उसको स्मरण किया जाता है। प्रतिमा लगाकर, सड़कों, कॉलोनियों, नगरों, शहरों तथा विभिन्न संस्थाओं के साथ उनका नाम जोड़कर उनकी कीर्ति सुरक्षित रखी जाती है। इतिहास उन्हें अमरता प्रदान करता है। इसलिए सोहनलाल द्विवेदी कहते हैं। ‘हों जहाँ बलि शीश अगणित, एक सिर मेरा मिला लो।’ और माखनलाल चतुर्वेदी पुष्प के माध्यम से अपनी अभिलाषा प्रकट करते हुए कहते हैं-
मुझे तोड़ लेना बनमाली! उस पथ में देना तुम फेंक।
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने, जिस पथ जावें वीर अनेक॥
हमारा देश हमें प्राणों से प्रिय क्यों न हो? हमने इसकी गोद में जन्म लिया है। इसकी धूल में लोट-पोट कर बड़े हुए और ‘धूल भरे हीरे’ कहलाए। इसने जीवन के सभी इहलौकिक सुख प्रदान किए तथा अंत में इसने अपने ही तत्त्वों में विलीन कर आत्म-रूप बना लिया। इस प्रकार जगत में जन्म लेने, क्रीड़ा-कर्म, पालन और उपसंहार तक का संपूर्ण श्रेय देश को है।
सच्चाई भी यह है कि संस्कृति की महत्ता, सभ्यता की श्रेष्ठता, कला की उत्कृष्टता, जीवन मूल्यों की उत्तमता तथा प्रकृति का वरदान हमारे देश को ही प्राप्त है। इसीलिए प्रसाद जी गाते हैं-‘अरुण यह मधुमय देश हमारा।’ इकबाल गर्व कहते हैं, ‘सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा। ‘ पंत का कंठ फूट, ‘ज्योति भूमि, जय भारत देश।’ तो निराला का स्वर गूँजा-
‘भारती! जय विजय करे।
स्वर्ण-सस्य कमल धरे॥”
देश के सम्मुख प्राणों को हेय समझने वाले देश भक्तों की शृंखला अनंत है। इसका आदि है, अंत नहीं। महाराणा प्रताप ने दर-दर की ठोकरें खाईं तो बन्दा वैरागी ने गर्म लोहे की शलाखों से सीना छलनी करवा लिया। मतिराम ने अपना मस्तक आरे से चिरवा लिया। गुरु गोविंदसिंह ने अपने चारों बच्चे बलि चढ़ा दिए। झाँसी की रानी, तात्याटोपे, नाना साहब ने रक्त की होली खेली। सुभाषचंद्र बोस, मदनलाल ढींगरा विदेशों में शहीद हुए। भगतसिंह, सुखदेव, बिस्मिल आदि नौजवान फाँसी के तख्ते पर झूल गए। स्वातंत्र्य वीर विनायक दामोदर सावरकर ने दो जन्म का कारावास एक ही जन्म में काटा। लाला लाजपतराय साइमन कमीशन की बलि चढ़े। लाखों की तरुणाई जेल की अंधेरी कोठरियों में प्रज्ज्वलित हुई। लाखों भारतीय अंग्रेजों की संगीनों के सामने छाती पर गोली खाकर अमर हुए। इतना ही नहीं, इंदिरा के आपत्काल के अंधेरे को सैकड़ों ने अपने प्राणों की ज्योति से ज्योतित किया। उनके मन में एक ही तड़पन थी-
तेरा वैभव अमर रहे माँ। हम दिन चार रहें न रहें।
हमारा देश हमारी जन्म-स्थली और क्रीड़ा-स्थली है। हमारे प्राणों का पालनहार है। प्राणों की पहचान है। प्राणों का संस्कारक है। हमारे प्राणों का आत्म-रूप पुंज है। इसलिए देश के सम्मुख प्राण गौण हैं। देश हमारा प्राण से प्यारा है। हमारे प्राणों की सार्थकता देश-प्रेम में है।
प्राण क्या है देश के हित के लिए।
देश खोकर जो जिए तो क्या जिए॥
-कामताप्रसाद गुप्त