संकेत बिंदु – (1) भारतीय होने का गर्व (2) संस्कृति और मानव सभ्यता का स्रोत (3) भारतीय संस्कृति पर विदेशी मोहित (4) राष्ट्रीय संस्कृति का साक्षात स्वरूप (5) भारतीय भाषाएँ साहित्य, कला तथा दर्शन में सर्वश्रेष्ठ।
‘मर्द बनो और ललकार कर कहो कि मैं भारतीय हूँ। मैं भारत का रहने वाला हूँ। भारत मेरा जीवन, मेरा प्राण है। भारत के देवता मेरा भरण-पोषण करते हैं। भारत मेरे बचपन की हिंडोला, मेरे यौवन का आनंदलोक और मेरे बुढ़ापे का बैकुंठ है।’
स्वामी विवेकानंद भारत मेरी मातृभूमि, पितृभूमि तथा पुण्यभूमि है। इसलिए मैं भारतीय हूँ। मुझे भारतीय होने का गर्व है।
भारतीय अमृत-पुत्र कहलाते हैं। अतः देवगण भी भारत में जन्म लेने को लालायित रहते हैं। यहाँ जन्म मिलना दुर्लभ होता है। मेरा भारत – भू पर जन्म हुआ है, अतः मुझे भारतीय होने का गर्व है।
‘प्रकृति ने भारत को सर्वसंपन्न, शक्तिशाली और सुंदर देश बनाया है’ – (मैक्समूलर)। भारत संसार की सभ्यता का आदि भंडार है – (काउंट जोन्स जेनी।) ‘भारतीय विज्ञान इतना विस्तृत था कि योरोपीय विज्ञान के सब अंग वहाँ मिलते हैं’ – (डफ)। ‘पश्चिमी सरकार को जिन बातों पर अभिमान है, वे असल में भारत से ही वहाँ गयी हैं, – (डेलमार)। आदि शब्दों में विदेशियों ने मुक्त कंठ से भारत की प्रशंसा की है। मैं उसी भारत का नागरिक हूँ, भारतीय हूँ। इस पर मुझे गर्व अनुभव होता है।
प्राचीन काल में भारत विश्व गुरु के पद पर आसीन था। यह संस्कृति और मानव सभ्यता का आदि स्रोत रहा है। अन्य देशों की संस्कृति नष्ट हो गई। मिश्र की नील नदी की घाटी में गगनचुंबी पिरामिडों का निर्माण करने वाली तथा अपने पितरों की ‘ममी’ के रूप में पूजा करने वाली संस्कृति अब कहाँ है? असीरिया और बेबीलोनिया की संस्कृति क्या अब भूमि पर है? देवी-देवताओं और प्राकृतिक शक्तियों को पूजने वाली संस्कृतियाँ क्या वर्तमान रोम के लोगों के लिए कोई महत्त्व रखती हैं? उनका पहले सिर बदला, फिर धड़। भारत की संस्कृति आज भी वैदिक संस्कृति है। भारत में जीवन है, इसने दूसरों को जीना सिखाया है। भारत ने विश्व को ज्ञान का विमल आलोक प्रदान किया है।
हिमालय हमारा भाव – प्रतीक है। गंगा हमारी माँ है। इन जैसा संसार में अन्य और कौन कहाँ? बोल्गा को पिता माना जाता है, किंतु हम गंगा को माता मानते हैं। मेरा देश सरितामय है। यहाँ प्रकृति का सौंदर्य अलसाकर बिखर गया है। कालिदास ने हिमालय को देवतात्मा और पृथ्वी का मानदंड माना था। महाकवि रवींद्रनाथ भी उसे देवात्मा मानते हैं। निकोलस रोरिख का कथन है कि – हे हिमगिरि, हे भारत के भूषण, हे ऋषियों की पावन तपोभूमि, हे वसुधा के यशः स्नात सौंदर्य, हे रहस्यमय, तुम्हें नमस्कार है। तुम्हारा यह अनंत वैभव तुम्हारा यह दिव्यलोक युग-युग से आकर्षण का केंद्र रहा है। तुम्हारे दर्शन – मात्र से चित्त प्रफुल्ल और भव्य – भावनाओं से परिपूर्ण हो जाता है। तुम धन्य हो, तुम अनन्य हो।’
जर्मन दार्शनिक भारत में जन्म लेने की कामना करता था। जर्मन कवि गेटे कालिदास की शकुंतला पर मुग्ध था। मैक्समूलर तो ब्राह्मण बन गया था। अपने को वह मोक्षमूलम् भट्ट कहता था। अमेरिका का संत थोरो भारत पर लट्टू था। शॉपेनहार की तो बात ही मत पूछिए।
सम्राट् चंद्रगुप्त, सम्राट् प्रियदर्शी अशोक सम्राट् समुद्रगुप्त आदि विश्वविजय की क्षमता रखते थे, परंतु उन्होंने अपनी शक्ति और पौरुष का सदुपयोग प्रजावत्सलता और भारत के ‘स्वर्ण-युग’ के निर्माण में किया। ‘प्रसाद’ के सैल्यूकस की आत्मजा कार्नेलिया और द्विजेंद्रलाल राय की ‘हेलेन’ मेरे देश का स्तवन करती आघाती नहीं। वह गाती ही रहती हैं, ‘अरुण यह मधुमय देश हमारा।’ तक्षशिला, नालंदा और विक्रमशिला के विश्वविद्यालय सचमुच ‘विश्व के विद्यालय’ थे। यहाँ प्रतिदिन बत्तीस हजार शब्द बोलने और लिखने वाले विद्वान् थे। इसलिए मुझे अपने भारतीय होने पर गर्व है।
वाल्मीकि के राम और वेदव्यास के श्रीकृष्ण राष्ट्रीय संस्कृति के साक्षात् रूप हैं। आदि कवि वाल्मीकि भगवान राम की उपमा एक साथ हिमालय और सागर से देते हैं और इस प्रकार सारे राष्ट्र के भौगोलिक स्वरूप को प्रस्तुत कर देते हैं। पाणिनि जैसा वैयाकरण तो संसार में पैदा ही नहीं हुआ। पन्ना धाय का आख्यान और कहाँ मिलता है? राजस्थान का कण-कण बलिदान और शौर्य की गाथा गा रहा है।
यहाँ का मूलमंत्र रहा है – त्याग। जिसने त्याग किया, वह महान् बना, चाहे महावीर, बुद्ध, दधीचि हों या रामकृष्ण परमहंस अथवा महात्मा गाँधी। इसलिए मेरे देश में आचार्यों, संतों, साधु-महात्माओं का मूल्य राजा-महाराजा से अधिक रहा। राम वशिष्ठ के चरण- स्पर्श करते थे। यहाँ का कवि गाता था- “संतन का कहीं सीकरी सों काम?”
मेरे देश की धरती की भाषाओं, साहित्य में (वेद, उपनिषद्, पुराण- साहित्य, जैन- साहित्य, बौद्ध साहित्य, तंत्र- साहित्य, शास्त्र और धर्म साहित्य) समन्वय पर बल दिया गया है। हमारी संस्कृति सामाजिक रही है। यहाँ धर्म-पंथों का सम्मान होता है। सहिष्णुता और सामंजस्य मेरे देश की निधि है। भारतीय साहित्य ने देश की एकता में सर्वाधिक योगदान दिया है। मेरे देश की संस्कृति की पाचन शक्ति अतीव सशक्त और तीव्र है। उसने सबको पचाकर एकरस, समरस कर दिया। यहाँ मनुष्य को वानर की संतान नहीं, अपितु अमृत पुत्र माना गया। यहाँ महावीर स्वामी ने अनेकांत वाद दिया और बुद्ध ने दी करुणा। मेरे देश ने अनेक मानव-धर्म-रक्षक महापुरुष पैदा किए। मेरा देश कभी कूप मंडूक नहीं रहा। बृहत्तर भारत का सांस्कृतिक इतिहास इसका साक्षी है। मेरा देश लोकतंत्र की पुरानी प्रयोगशाला है। यहाँ विज्ञान चरमोत्कर्ष पर रहा है। यहाँ की कला, आयुर्वेद, ज्योतिष और शास्त्र विश्व के प्रकाश-प्रदाता रहे हैं। यहाँ माना गया है कि जहाँ नारी की पूजा होती है
वहाँ देवताओं का निवास है। मेरे देश को ऋषियों-मुनियों, धर्म-प्रवर्तकों और कवियों ने बनाया है। तपस्या और उत्सर्ग ने मेरे देश में साकार रूप ग्रहण किया। गणित, खगोल, दर्शन और चिंतन के क्षेत्र में मेरे देश ने विश्व का मार्ग-दर्शन किया। गणित में ‘शून्य’ का प्रयोग भारत की ही देन है। मैं ऐसे महान् भारत में जन्मा हूँ, इसलिए भारतीय होने पर मुझे गर्व है।
आज विश्व भौतिकवादी दौड़ में भटक कर निराश हो चुका है और मानसिक शांति की तलाश में पुन: भारत के ऋषि-मुनियों की शरण में दौड़ रहा है। महर्षि महेश और आचार्य रजनीश के आश्रम इसके प्रमाण हैं।
मुझे अपनी भारत-भू पर गर्व है। भारत का नागरिक होने का गर्व है। भारत की संस्कृति, सभ्यता और परंपरा पर गर्व है।