संकेत बिंदु-(1) संस्कृति राष्ट्र और जाति की आत्मा (2) संस्कृति का विस्तृत अर्थ (3) सभ्यता और संस्कृति सिक्के के दो पहलू (4) सभ्यता, भौतिक-समृद्धि का परिचायक (5) सभ्यता और संस्कृति में अंतर।
संस्कृति राष्ट्र और जाति की आत्मा है। आत्मिक उत्थान का चिह्न है। आत्मिक उत्कर्ष की सीढ़ी और आत्म-दर्शन का मार्ग है। आत्म शुद्धि द्वारा मानव के सर्वगुण परिवृंहणार्थ एक सर्वोत्कृष्टभूता प्रशस्त मार्ग प्रदर्शिका है।
संस्कृति शब्द ‘ सम्’ उपसर्ग के साथ संस्कृत की ‘कृ’ धातु के पश्चात्, ‘क्तिन्’ प्रत्यय के प्रयोग से बनता है, जिसका मूल अर्थ स्वच्छ या परिष्कृत करना है। इस प्रकार संस्कृति ‘का शब्दगत अर्थ हुआ ‘संस्कार करने अर्थात् किसी वस्तु को संस्कृत रूप देने की क्रिया या भाव संस्कृति है। ‘-मानक हिंदी कोश
मानव-शास्त्र का इतिहास यह प्रमाणित करता है कि मानव जाति अपने आरंभिक काल में उसी प्रकार का जीवन जीया करती रही होगी, जिस प्रकार पशु जीया करते हैं। समय पाकर मानव का प्रकृति से-उषा, सूर्य, चंद्र, संध्या, नदी, निर्झर, पर्वतों एवं समतल भूमि पर हरियाली छिटकाते वनों से-और इसी प्रकार विभिन्न प्राणियों से संपर्क स्थापित हुआ, जिससे मानव की ज्ञान-चेतना जागृत हुई। ज्ञान-चेतना की इसी जागृति ने मानव हृदय में यह उमंग भर दी कि वह विश्व के साथ घुल-मिल जाए, प्रेम का विस्तार करे, उसकी जीवन-भूमि उल्लास, पवित्रता और सुंदरता से परिपूर्ण हो उठे। मानव की यही उमंग जो धर्म, दर्शन, काव्य और कला बनकर व्यक्त तथा विकसित हुई, उसे ही संस्कृति कहा जाता है। दूसरे शब्दों में ‘चित्त की परिष्कृत और उदात्त वृत्तियों की धर्म, दर्शन, काव्य और कला आदि रूपों में अभिव्यक्ति संस्कृति है।’ इसी आधार पर मैथ्यू आर्नोल्ड ने ‘मानव चेतना के इतिहास से स्वयं को परिचित कराने’ को संस्कृति माना है।
डॉ. देवराज संस्कृति को मानव मात्र के चरम मूल्य के रूप में स्वीकार करते हैं। श्री ‘अज्ञेय’ इस बात का समर्थन करते हुए लिखते हैं, ‘संस्कृतियाँ मूल्यों की सृष्टि करती हैं।
विश्वकवि रवींद्रनाथ ठाकुर संस्कृति को ‘मस्तिष्क का जीवन’ मानते हैं। संस्कृति की सरल और सुंदर व्याख्या करते हुए राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ‘हिंदू’ में लिखते हैं-
युग-युग के संचित संस्कार, ऋषि मुनियों के उच्च विचार।
धीरों वीरों के व्यवहार, हैं निज संस्कृति के शृंगार॥
‘थोड़े शब्दों में और व्यापक अर्थ में किसी देश की संस्कृति से हम मानव-जीवन तथा व्यक्तित्व के उन रूपों को समझ सकते हैं, जिन्हें देश-विदेश में महत्त्वपूर्ण अर्थात् मूल्यों का अधिष्ठान समझा जाता है। उदाहरण के लिए, भारतीय संस्कृति में ‘मातृत्व’ और ‘स्थितप्रज्ञता’ की स्थितियों को महत्त्वपूर्ण समझा जाता है। ये स्थितियाँ जीवन अथवा व्यक्तित्व की स्थितियाँ हैं और इस प्रकार भारतीय संस्कृति का अंग हैं।’
-डॉ. देवराज (हिंदी साहित्य कोश भाग 1, पृष्ठ 869) सभ्यता और संस्कृति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। कहीं मन में भ्रम न हो, इसलिए सभ्यता को भी समझ लेना समीचीनं होगा।
चित्तवृत्तियों के उदात्त एवं परिष्कृत होते ही मानव पशुत्व से ऊँचा उठ गया-सुसंस्कृत बन गया। ये सुसंस्कृत महामानव ऋषि, मुनि, दार्शनिक, कवि एवं कलाकार कहलाए। इन सुसंस्कृत (Cultured) महामानवों ने जीवन-विकास के लिए नाना तत्त्वों का अन्वेषण किया। जीवन-आदर्शों को ढूंढ निकाला। सुख का स्वरूप पहचाना। ऐसी सामाजिक भावनाओं को विकसित किया जिससे मानव स्वार्थों की संकीर्णताओं से ऊपर उठकर ‘जीओ और जीने दो’ के सिद्धांत को समझने लगा और इस प्रकार उसने सामाजिक रहन-सहन, खान-पान को पवित्र एवं सुंदर बनाया। सर्वहितकारिणी आर्थिक व्यवस्था की निर्माण किया, समाज को सुशासित करने के लिए राजनैतिक नियमों का आविर्भाव किया और अपने विकास क्रम की लंबी परंपरा में भौतिक समृद्धि के रूप में गृह, कृषि, उद्योग, रेल, तार, रेडियो आदि का आविष्कार किया। इस प्रकार मानव की उदात्त चित्तवृत्ति की जो सामाजिक और आर्थिक संगठन के रूप में बहुमुखी अभिव्यक्ति हुई, उसे ही सभ्यता कहा जाता है। संक्षेप में भौतिक समृद्धि का परिचायक तत्त्व सभ्यता है।
सभ्यता और संस्कृति में अंतर
सभ्यता सामाजिक व्यवहार की व्यवस्था है। संस्कृति के भौतिकबोध का आंतरिक स्पंदन उसमें नहीं है। संस्कृति चित्त की उदात्त एवं परिष्कृत वृत्तियों की धर्म, दर्शन आदि रूप में अभिव्यक्ति है और उन महती चित्त वृत्तियों का सामाजिक और आर्थिक संगठन के रूप में विकास सभ्यता है। संस्कृति संस्कार से बनती और सभ्यता नागरिकता का रूप है।
सारांशतः ‘सभ्यता और संस्कृति, दोनों मनुष्य की सृजनात्मक क्रिया के कार्य का परिणाम हैं। जब यह क्रिया उपयोगी लक्ष्य की ओर गतिमान होती है, तब सभ्यता का जन्म होता है और जब वह मूल्य-चेतना को प्रबुद्ध करने की ओर अग्रसर होती है, तब संस्कृति का उदय होता है।’-डॉ. देवराज (संस्कृति का दार्शनिक विवेचन)
संस्कृति हमें राह बताती है तो सभ्यता उस राह पर चलती है। संस्कृति न हो तो मनुष्य और पशु के विचारों में कोई भेद न रहे। सभ्यता न हो तो मनुष्य और पशु का रहन-सहन एक-सा हो जाए।-कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर (‘जीए तो ऐसे जीएँ’)।
प्रखर बुद्धि से भले
सभ्यता हो नव-निर्मित
संस्कृति के निर्माण के लिए
हृदय चाहिए।
-सुमित्रानंदन पंत (आस्था, कविता 84)