संस्कृति, उसका निर्माण तथा सभ्यता
‘संस्कृति’ शब्द से हम चिरपरिचित हैं, किंतु उसके स्वरूप से हमें पूर्ण परिचय नहीं है। संस्कृति क्या है? और उसका निर्माण कैसे होता है? आदि प्रश्नों पर विचार करते हुए हम कह सकते हैं कि संस्कृति व्यक्तिनिष्ठ न होकर अनेक व्यक्तियों द्वारा किया गया एक बौद्धिक प्रयास है। इसीलिए किसी राष्ट्र की संस्कृति का निर्माण अचानक न होकर उस राष्ट्र के निवासियों के जीवन की शताब्दियों की उपलब्धियों का परिणाम होता है। किसी देश की संस्कृति उसकी संपूर्ण मानसिक निधि को सूचित करती है। यह किसी खास व्यक्ति के पुरुषार्थ का फल नहीं, अपितु असंख्य ज्ञात तथा अज्ञात व्यक्तियों के भगीरथ प्रयत्न का परिणाम होती है। सब व्यक्ति अपने सामर्थ्य और योग्यता के अनुसार संस्कृति के निर्माण में सहयोग देते हैं। संस्कृति की तुलना आस्ट्रेलिया के निकट समुद्र में पाई जाने वाली मूंगे की भीमकाय चट्टानों से की जा सकती है। मूंगे के असंख्य कीड़े अपने छोटे घर बनाकर समाप्त हो गए, फिर नए कीड़ों ने घर बनाए, उनका भी अन्त हो गया। इसके बाद अगली पीढ़ी ने भी यही किया और यह क्रम हजारों वर्षों तक निरंतर चलता रहा। आज उन सब मूंगों के नन्हें-नन्हें घरों ने परस्पर जुड़ते हुए विशाल चट्टानों का रूप धारण कर लिया है। संस्कृति का भी इसी प्रकार धीरे-धीरे निर्माण होता है और उसके निर्माण में हजारों वर्ष लगते हैं। मनुष्य विभिन्न स्थानों पर रहते हुए विशेष प्रकार के सामाजिक वातावरण, संस्थाओं, प्रथाओं, व्यवस्थाओं, धर्म, दर्शन, लिपि भाषा तथा कलाओं का विकास करके अपनी विशिष्ट संस्कृति का निर्माण करते हैं।
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वस्तुतः संस्कृति मानव-जीवन के उन समस्त तत्त्वों की समष्टि का नाम है जिनका धर्म और दर्शन से उदय होकर कला-कौशल, समाज तथा व्यवहार में उसकी परिणति होती है। संस्कृति के स्वरूप के संबंध में अनेक विद्वानों ने अपने विचार व्यक्त किये हैं। के० एम० मुन्शी के अनुसार- “हमारे रहन-सहन के पीछे जो हमारी मानसिक अवस्था, जो मानसिक प्रकृति है जिसका उद्देश्य हमारे अपने जीवन को परिष्कृत, शुद्ध और पवित्र बनाना है तथा अपने लक्ष्य की प्राप्ति करना है, वहीं संस्कृति है। संस्कृति जीवन के प्रति हमारा दृष्टिकोण है।” डॉ. भगवानदास के शब्दों में— मानसिक क्षेत्र में उन्नति की सूचक उसकी प्रत्येक सम्यक् कृति संस्कृति का अंग बनती है। इसमें प्रधान रूप से धर्म दर्शन सभी ज्ञान-विज्ञान और कलाओं, “सामा- जिक तथा राजनीतिक संस्थाओं और प्रथाओं का समावेश होता है।” मैथ्यू आर्नोल्ड के मत में किसी समाज और राष्ट्र की श्रेष्ठतम उपलब्धियाँ ही संस्कृति हैं जिनसे समाज, राष्ट्र परिचित होता है।” “Culture is the acquainting by ourselves with the best that has been known and said in the world.” एक अन्य विद्वान ने लिखा है – किसी समाज, जाति अथवा राष्ट्र के समस्त व्यक्तियों के उदात्त संस्कारों के पुंज का नाम-उस समाज, जाति और राष्ट्र की संस्कृति है। किसी भी राष्ट्र की “शारीरिक, मानसिक व आत्मिक शक्तियों का विकास संस्कृति का मुख्य उद्देश्य है।” इस उद्देश्य की पूर्ति में जो संस्कृति जितना योगदान करेगी, वह संस्कृति ‘उतनी ही उत्कृष्ट कहलायेगी। यह उत्कर्षं मनुष्य बुद्धि शिक्षा एवं संस्कारों के सहयोग से प्राप्त करता है। अतः संस्कृति का संबंध मानवीय बुद्धि, स्वभाव और उसकी मनोवृत्तियों से होता है। इन तत्त्वों के सहयोग से व्यक्ति अपना विकास कर लेता है, निश्चय ही उस व्यक्ति के आदर्श, उसके विचार और उसका जीवन मूल्य महान् होता है। ये विशेषताएँ या तो स्वतः महान् होती हैं अथवा महत्ता को जन्म देती हैं। अतः हम कह सकते हैं कि संस्कृति साध्य भी है और साधन भी।
जब संस्कृति व्यक्ति तक सीमित रहती है तब वह उसके व्यक्तित्व को मूल्य- वान् बनाती है और जब वह जातीय जीवन में समाविष्ट हो जाती है तो वह राष्ट्रीय चेतना को विकसित करती है। इन्हीं विकसित तत्त्वों में साहित्य, कला, धर्म और दर्शन होते हैं।
सभ्यता एवं संस्कृति –
संस्कृति का समानान्तर एक शब्द सभ्यता है। भ्रम- वश अनेक व्यक्ति संस्कृति एवं सभ्यता को एक ही मान लेते हैं। किंतु इन दोनों ही शब्दों में मौलिक अन्तर है। वस्तुतः सभ्यता मानव की भौतिक विचारधारा की सूचक है तथा संस्कृति आध्यात्मिक एवं मानसिक क्षेत्र के विकास की सूचक है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि “मनुष्य के भौतिक क्षेत्र में की गई उन्नति का नाम ही सभ्यता है” सभ्यता समाज में रहन-सहन, वेश-भूषा-व्यवहार की पर्याय है।
मॅथ्यू आर्नोल्ड ने सभ्यता के संबंध में लिखा है कि ‘मनुष्य का समाज में मानवीकरण ही सभ्यता है’—“Civilization is the humanization of a man in society.” इसी को डॉ. जोन्सन ने दूसरे शब्दों में लिखा है- “सभ्यता बर्बरता के विरुद्ध जीवित रहने की दशा है” – “Civilization is the condition of life oppose to barbarian.” इन दोनों ही परिभाषाओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि मनुष्य ने प्रकृति प्रदत्त पदार्थों, तत्त्वों और शक्तियों का उपयोग कर जो भौतिक क्षेत्र में प्रगति की है, वही सभ्यता है। इस प्रकार सभ्यता एवं संस्कृति को एक साथ देखने पर हम कह सकते हैं कि मनुष्य के जीवन में आध्यात्म का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उसके विकास के लिए उसे प्रयत्न करना पड़ता है। मनुष्य भौतिक विकास कर अपनी शारीरिक स्थूल क्षुधा को तृप्त करता है, किंतु, मनुष्य केवल भौतिक परिस्थितियों एवं उनके विकास से ही सदा सन्तुष्ट नहीं रह सकता। वह केवल भोजन से ही संतुष्ट नहीं रह सकता, शरीर के साथ मन और आत्मा भी हैं; भौतिक विकास से शारीरिक क्षुधा की तृप्ति तो सम्भव है, किंतु मन एवं आत्मा सर्वथा अतृप्त ही रहेंगे। मन और आत्मा के संतोष के लिए किया गया मानसिक, आत्मिक विकास ही संस्कृति है। डॉ. बैजनाथ पुरी ने सभ्यता तथा संस्कृति के अंतर को इस प्रकार स्पष्ट किया है-
“संस्कृति आभ्यन्तर है, सभ्यता बाह्य है, संस्कृति को अपनाने में देर लगती
है पर सभ्यता का अनुकरण सरलता से किया जा सकता है। संस्कृति का संबंध निश्चय ही धार्मिक विश्वास से है। सभ्यता सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों से बँधी हुई है।” एक अन्य विद्वान् ने भी इन दोनों के अन्तर को इस प्रकार स्पष्ट किया है – सभ्यता मनुष्य के मनोविकारों की द्योतक है, संस्कृति आत्मा के अभ्युत्थान की प्रदर्शिका है। सभ्यता मनुष्य को प्रगतिवाद की ओर ले जाने का संकेत करती है। संस्कृति उसकी आंतरिक और मानसिक कठिनाइयों पर काबू पाने में सहायक सिद्ध होती है।”
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर हम संस्कृति की परिभाषा इस प्रकार लिख सकते हैं – किसी समाज, देश या राष्ट्र के मानवों के धर्म, दर्शन ज्ञान-विज्ञान से संबद्ध क्रिया-कलाप तथा आदर्श सभ्यता, संस्कार इन सभी का जो सामंजस्य है, वही संस्कृति है अथवा स्थूल रूप से संस्कारों का नाम ही संस्कृति है, जो दुर्गुण, दुर्व्यसन, पाप तथा पाप भावनाओं को हृदय से निकालकर निष्पाप तथा शुभ गुणों युक्त करती है। संस्कृति शब्द की निष्पत्ति ‘सम्’ उपसर्गपूर्वक ‘कृ’ धातु से ‘क्तिन्’ प्रत्यय के योग से होती है। इस प्रकार संस्कार, संस्कृत और संस्कृति तीनों शब्दों का मूल एक ही है, तथा उसका अर्थ है सँवारना, शुद्ध करना। संस्कृति मनुष्य को परिष्कृत रूप प्रदान करती है, मनुष्य की अच्छाइयों का निर्देश करती है। मानवीय व्यक्तित्व को सभ्य दिशा प्रदान करती है जो कि उसके बुद्धिमान होने का सूचक है। इस प्रकार संस्कृति मनुष्य की साधना की सर्वोत्तम परिणति भी कही जा सकती है।