किसी देश की संस्कृति उसकी संपूर्ण मानसिक निधि, उसकी विचारधारा और दृष्टिकोण को प्रकट करती है। यह किसी एक व्यक्ति के पुरुषार्थं का फल नहीं होता, अपितु असंख्य ज्ञात और अज्ञात व्यक्तियों के निरंतर प्रयत्न का परिणाम होती है। संस्कृति को केवल भौतिक उन्नति मानना भूल है। भौतिक उन्नति से हम शारीरिक भूख को अवश्य शांत कर सकते हैं, किंतु मन और आत्मा को तृप्त करने के लिए मनुष्य को फिर भी प्रयत्न करना पड़ता है और यही प्रयत्न ही संस्कृति है। धर्म, दर्शन, संगीत, साहित्य, चित्रकला, सामाजिक और राजनैतिक संस्थाएँ सभी संस्कृति के अंतर्गत आती हैं।
दो संस्कृतियाँ
प्रत्येक देश की भौगोलिक, प्राकृतिक तथा सामाजिक परिस्थितियों का उस देश की संस्कृति पर प्रभाव पड़ता है। यूरोपियन जातियों को अपने जीवन-रक्षण के लिए प्राकृतिक बाधाओं तथा अपने पड़ोसियों से निरंतर संघर्ष करना पड़ा है। अन्न की प्राप्ति उनके लिए सदा दुःसाध्य रही है। इसके लिए उन्हें दूर-दूर तक संघर्ष करते हुए समुद्र के वक्षःस्थल को चीर कर जाना पड़ा है। अंग्रेजों को इन्हीं विवश होकर की हुई समुद्र यात्राओं ने दुःसाहसी बना दिया। भौतिक और प्राकृतिक बाधाओं पर विजय पाने की अदम्य भावना ने उन्हें वैज्ञानिक आविष्कारों के लिए प्रेरित किया। अन्न की बहुलता के साथ जीवन में जो निश्चिंतता आती है, वह यूरोप के लिए दुर्लभ बनी रही। इसके विपरीत सुजलां, सुफलां, शस्यश्यामलां पुण्यमयी भारत भूमि में प्रकृति की अपार उदारता के कारण जीवन संघर्ष की आवश्यकता बहुत कम अनुभव की गई। भारतीय उदर-पूर्ति की चिंता से मुक्त होकर अपना ध्यान आध्यात्मिक चिंतन में लगाने लगे। उनके यहाँ जो आया, तिरस्कार की अपेक्षा उन्होंने उसका स्वागत ही किया। उन्होंने विदेशियों और विजातियों को भी अपना बनाने की चेष्टा की। उन्हें इस बात की तनिक भी चिंता नहीं थी कि वे उनका भोजन बाँट लेंगे। प्राकृतिक परिस्थितियों की इस भिन्नता के कारण ही यूरोप और भारत की संस्कृति में बहुत अंतर हो गया है। पश्चिम ने वैज्ञानिक आविष्कारों के द्वारा भौतिक उन्नति पर अधिक ध्यान दिया। अदम्य साहस, कठिनाइयों पर विजय, तीव्र महत्वाकांक्षा, जीवन को सुखमय बनाने की उत्कट अभिलाषा तथा कठोर संघर्ष व युद्ध योरोप की संस्कृति के प्रधान गुण हैं। दूसरी ओर भारत ने रोटी-पानी के संघर्ष से निश्चिंत होकर जिस आध्यात्मिक संस्कृति को जन्म दिया, उसकी कुछ विशेषताएँ हम इस लेख में बताना चाहते हैं। ये वे विशेषताएँ हैं, जिसके कारण अत्यंत प्राचीन होते हुए भी भारत और भारतीय संस्कृति आज तक भी जीवित है। अमरीका के एक प्रसिद्ध लेखक ने भारतीय संस्कृति की इस नष्ट न होने वाली परंपराओं को भी इसकी एक विशेषता माना है। वे लिखते हैं-
“यहाँ ईसा से 2900 वर्ष पहले या इससे भी पहिले मोहेन्जोदड़ो से महात्मा गांधी, रमण और टैगोर तक उन्नति और सभ्यता का शानदार सिल- सिला जारी रहा है। ईसा के आठ शताब्दी पहिले उपनिषदों से लगाकर ईसा के आठ सौ वर्ष बाद शंकर तक ईश्वरवाद के हजारों सत्य प्रतिपादन करने वाले दर्शनशास्त्री यहाँ हुए हैं। यहाँ के वैज्ञानिकों ने तीन हजार वर्ष पहिले ज्योतिष का आविष्कार किया और इस जमाने में भी नोवेल पुरस्कार जीते हैं। कोई भी लेखक मिस्र, वेबीलोनिया और असीरिया के इतिहास की भाँति भारत के इतिहास को समाप्त नहीं कर सकता, क्योंकि भारत में इतिहास का अब भी निर्माण हो रहा है। उसकी सभ्यता अब भी क्रियाशील है।”
भारतीय संस्कृति की विशेषताएँ
अनुकूलता – कहते हैं कि हिंदू नारी अपने को सभी परिस्थितियों के अनुकूल बना लेने की बहुत क्षमता रखती है। यही बात भारतीय संस्कृति के संबंध में कही जा सकती है। अत्यंत दीर्घकाल से भारतीय संस्कृति विविध युगों व परिस्थितियों के अनुकूल बनती चली गई है। कभी कर्म प्रधान, कभी ज्ञान- प्रधान और कभी भक्ति प्रधान रूप इसने धारण किया। विविध विदेशी जातियों की संस्कृतियों की अनेक विशेषताओं को लेकर उन्हें आत्मसात् कर लिया गया। इस्लाम और ईसाइयत शासक का धर्म होने के बावजूद सदियों तक बहुत कम भाग को अपने साथ ले सके।
सहिष्णुता — भारतीय संस्कृति की दूसरी बड़ी विशेषता है सहिष्णुता। जब यूरोप में प्रोटैस्टैण्ट व रोमन कैथोलिक शासक अपने हजारों विरोधियों का गला काटने से नहीं चूकते थे, तब भारत इस्लाम का स्वागत कर रहा था। अनेक भारतीय राजाओं ने 11- वीं 12वीं सदी में मुसलमानों को मस्जिदें बनाने के लिए भूमि तथा रुपया दिया था। बहुत प्राचीन काल में भिन्न-भिन्न समुदाय यहाँ एक साथ रहते थे। आस्तिक नास्तिक, वैरागी, शेव और वैष्णव सभी एक दूसरे का सम्मान करते थे। महात्मा बुद्ध ईश्वर को नहीं मानते थे, फिर भी हिंदुओं ने उन्हें पूज्य माना। पारसियों को भारत ने ही शरण दी थी। यहूदियों व सीरियनों ने भी यहाँ शरण पाई है।
ग्रहणशीलता – विदेशी जातियों ने बड़े वेग के साथ भारत पर आक्रमण किया, परंतु कुछ समय बाद वे अपने को भूलकर बौद्ध व शैव बन गई। भारत ने यूनानी कला व ज्ञान का भी लाभ उठाया और मुस्लिम वास्तु कला को भी ग्रहण कर लिया। उसके यहाँ जो कुछ आया, सब यहाँ का होकर रह गया। आज भारत में सैकड़ों प्रकार के रहन-सहन, वेश-भूषा और खान-पान तथा रीति-रिवाज चल रहे हैं और वे सभी मान्य हैं। विवाह तक की पचासों रीतियाँ चल रही हैं और सभी वैध मानी जाती हैं।
सर्वांगीणता – भारतीय संस्कृति की एक और बड़ी विशेषता यह है कि वह सर्वांगीण है। ऐहिक और पारलौकिक उन्नति व शस्त्र और शास्त्र का समन्वय भारतीय संस्कृति में था। ज्योतिष, वास्तु कला, सुंदर से सुंदर वस्त्र, उत्कृष्ट कलापूर्ण नगर निर्माण आदि में जहाँ भारत ने चरम उन्नति की थी, वहाँ यज्ञ, धार्मिक अनुष्ठान, उपनिषदों का दार्शनिक ज्ञान, भागवत धर्म की भक्ति तथा पुण्यात्मा संतों की परंपरा आदि की दृष्टि से भी भारत बहुत आगे था। शास्त्रकारों के मत से मानव को चार पुरुषार्थ करने चाहिए, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। धर्म और मोक्ष ही नहीं, अर्थ और काम भी हमारे यहाँ आवश्यक हैं।
सप्राण और सक्षम संस्कृति
भारतीय संस्कृति इन सब विशेषताओं के कारण सबल, सक्षम और सप्राण रही है। भारतीय संस्कृति के अनुसार समाज की व्यवस्था इतनी ऊँची और आदर्श थी कि उसमें संघर्ष की संभावना बहुत कम रह गई थी। वर्ण और आश्रम व्यवस्था से समाज की सब आवश्यकताएँ पूर्ण होती थी। वर्ण-व्यवस्था के द्वारा प्राचीन भारत के विचारकों ने सम्मान, धन और शक्ति को विकेंद्रित कर दिया था। ब्राह्मण के पास सम्मान था, क्षत्रिय के पास शक्ति थी, वैश्य के पास धन था और शूद्रों के पास सेवा बल था। ब्राह्मण के लिए तपस्वी और त्यागी होना आवश्यक था। सम्राट चंद्रगुप्त का मंत्री चाणक्य फूस की झोंपड़ी में रहता था। सत्ता, धन और सम्मान के इस विकेंद्रीकरण के कारण ही प्राचीन भारत में, जब तक वर्ण-व्यवस्था विकृत नहीं हुई थी, यूरोपियन किस्म के शोषण के दर्शन नहीं हुए थे। आश्रम व्यवस्था भी मनुष्य को त्याग का संदेश देती थी। गृहस्थ आश्रम में सांसारिक सुख भोगकर वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम में मानव कल्याण करते हुए अपनी शेष आयु व्यतीत करनी होती थी। राज्य करना जीवन का उद्देश्य नहीं होता था, वह केवल कर्त्तव्य भाव से किया जाता था। इसलिए राजा को अपनी वृद्धावस्था में ही युवराज को राज्य देकर वन में जाना होता था। मानवता भारत की संस्कृति में रमी हुई थी। अतिथि- यज्ञ और बलिवैश्वदेव यज्ञ इसके प्रमाण हैं।
पश्चिमी संस्कृति का पाप
कुछ विचारक, जिनमें हमारे बहुत से भारतीय भी सम्मिलित हैं, पश्चिम की वैज्ञानिक और प्रौद्योगिक उन्नति को बहुत अभिमान से देखते हैं। एक प्रसिद्ध विचारक रस्किन इस भ्रम का निवारण करते हुए, पश्चिम की औद्योगिक सभ्यता को “पुराने दासों से भी हजार गुना अधिक कड़वी और पतनकारी” समझते हैं। श्री हैवल की सम्मति में भारत में भयंकर से भयंकर अकाल के समय में भी किसी भी प्रांत में इतना दुराचार, इतना निराशाजनक शारीरिक, नैतिक और आत्मिक पतन नहीं पाया जाता, जितना यूरोप के उद्योग-प्रधान नगरों में पाया जाता है।
आज वस्तुतः विज्ञान की दैत्य शक्ति पाकर, पश्चिम की भोगवादी प्रवृत्तियाँ विश्व को भयंकर विनाश और विध्वंस की ओर ले जा रही हैं। भारत की त्यागमय संस्कृति और महात्मा बुद्ध या महात्मा गांधी की अहिंसा और प्रेम की शिक्षा ही विश्व की विनाश से रक्षा कर सकती है।