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भूदान यज्ञ

Bhoodan yagya par nibandh

18 अप्रैल, 1951 का दिन था, जब द्वितीय महायुद्ध के प्रथम सत्याग्रही आचार्य विनोबा भावे ने अपने भूदान यज्ञ का आरंभ किया था। इसके उपरांत उन्होंने हैदराबाद राज्य, मध्य प्रदेश, मध्यभारत, विंध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार के ग्रामों की यात्रा की और इस भ्रमण में करोड़ों मूक भारतीयों की ओर से भूमिरहित खेतिहर मजदूर और किसानों के लिए भूमि प्राप्त की। पिछले कुछ वर्षों तक लगातार प्रयास से उन्होंने अहिंसक उपायों द्वारा भारत की भूमि संबंधी आर्थिक समस्या को हल करने का प्रयत्न किया। 50 लाख एकड़ भूमि के साथ-साथ करीब 4,000 ग्राम वे दान में प्राप्त कर चुके हैं। आर्थिक क्षेत्र में उनकी इस नूतन सफलता से देश के सभी वर्ग आकर्षित हुए। इतना ही नहीं, भारत के समुद्र पार के अर्थविदों ने भी आर्थिक समस्या के इस नए प्रकार के हल पर बड़ी गंभीरतापूर्वक अपने अनुकूल विचार प्रकट किए हैं।

तैलंगाना में प्रारंभ

आचार्य श्री विनोबा ने हैदराबाद राज्य के तेलगू भाषा-भाषी पूर्वी क्षेत्र तैलंगाना में सर्वप्रथम अपना कार्य प्रारंभ किया था। यही स्थान है, जो वर्षों से साम्यवादियों की हलचल का केंद्र बना हुआ था और जहाँ के किसानों पर उनका पूर्ण प्रभाव कायम था। इस कम्युनिस्ट- आतंक के प्रदेश में विनोबा ने साहसपूर्वक किसानों के मध्य में कार्य किया। उन्होंने हिंसा के पथ से किसानों को विलग करके उनकी भूमि समस्या हल की। उससे साम्यवादी भी प्रभावित हुए बिना न रहे। विनोबा के अहिंसक प्रयत्नों ने तैलंगाना के किसानों की विचारधाराएँ बदल दीं। इससे साम्यवादियों को हिंसा का मार्ग छोड़ देना पड़ा। विनोबा ने घोषित किया कि तैलंगाना के किसानों की समस्या भूमि की है और इसलिए यहाँ के भूमिविहीन किसानों को भूमि मिलनी चाहिए। उन्होंने इस प्रकार के नेतृत्व से किसानों को जीत लिया। भारत सरकार भी निश्चिंत हो गई। सरकार के शस्त्रबल से तैलंगाना में जो साम्यवादी आंदोलन नहीं दबाया जा सका, श्री विनोबा ने अपनी अहिंसा के द्वारा उसे मिटाने में सफलता प्राप्त की। इस दिशा में विनोबा को इतनी सफलता प्राप्त हुई कि भूमिगत साम्यवादियों ने अस्त्र-शस्त्र सहित आत्म समर्पण कर दिया।

पर यह स्मरण रहे कि विनोबा ने अपने इस कार्यक्रम में साम्यवाद का कोई विरोध नहीं किया। उन्होंने यह अवश्य कहा कि साम्यवाद और हिंसा को रोकने के लिए किसानों की भूमि संबंधी माँग पूरी होनी चाहिए। वे न तो साम्यवाद के शत्रु हैं और न उन्हें उसका भय रहा है।

अपने वारंगल के भाषण में उन्होंने घोषित किया “बिना पिस्तौल के धनियों को मिटाया जा सकता है, क्योंकि अब प्रत्येक भविष्य में सरकार बालिग व्यक्ति को मत देने का अधिकार प्राप्त हुआ है। प्रत्येक व्यक्ति की होगी।”

व्यावहारिक गांधीवाद की व्याख्या

जिस तरह मार्क्स के सिद्धांत को लेनिन ने व्यवहार में परिणत किया था उसी तरह गाँधीजी के विचार को विनोबा ने मूर्त रूप दिया।

महात्मा गाँधी का यह विचार था कि धनी वर्ग अपनी संपत्ति का ट्रस्टी है और वह उसके हृदय परिवर्तन द्वारा सहज में प्राप्त की जा सकती है। विनोबा ने गांधीजी के इस महान् सिद्धांत का सक्रिय प्रयोग कर दिखाया। यह यश उन्हें ही प्राप्त हुआ और आज जब विश्व में साम्यवाद की छाया तले सरकारी आदेश तथा जोर-जुल्म से संपत्ति की जब्ती के कार्य हो रहे हैं, विनोबा का मार्ग संपत्ति के वितरण और वर्ग भेदभाव मिटाने का एक महान भारतीय प्रयोग है।

परिवर्तन का प्रतीक

हमें भूमि दान यज्ञ को इस दृष्टि से देखना चाहिए कि उसने आर्थिक क्षेत्र में किस ढंग की क्रांति की है। किस अवस्था तक उसने कितने लोगों का हृदय परिवर्तन किया है। फिर भूमि सुधार के कार्यक्रम से ही समाज का ढाँचा नहीं बदलता है। वह इस परिवर्तन का केवल एक प्रतीक है। विनोबा ने स्वयं प्रकर किया—

“मैं भूमि संबंधी बड़ी समस्याओं के हल करने का प्रयत्न नहीं कर रहा हूँ। पर निःसंदेह मैं उसे शांतिपूर्वक हल करना चाहता हूँ। कोई व्यक्ति भी संसार की सभी समस्याओं को हल नहीं कर सकता है। यहाँ राम हुए हैं और यहाँ ही कृष्ण हुए हैं। संसार के लिए वे जो कुछ कर सकते थे, उसे उन्होंने किया। किंतु समस्याओं का फिर भी अंत नहीं है। हर एक व्यक्ति केवल अपना काम कर सकता है।”

विनोबा ने आर्थिक क्षेत्र में एक नई प्रेरणा उत्पन्न की है। इस यज्ञ – योजना के पूर्ण सक्रिय होने पर भूमि की समस्या हल हुए बिना न रहेगी। देश की सारी भूमि का पुनः वितरण होगा और उसके आधार पर ही राज्यों को नए भूमि कानून बनाने पड़े। उत्तर प्रदेश में भूमि दान यज्ञ में जितनी भूमि प्राप्त हुई है, उससे प्रादेशिक सरकार को तत्सम्बन्धी नया कानून बनाना पड़ा।

महान् लक्ष्य

पहले भिन्न-भिन्न राज्यों में भूमि दान यज्ञ में 5 लाख ग्रामों में से 25 लाख एकड़ भूमि प्राप्त करने का प्रथम संकल्प था, फिर यह संकल्प 1957 के अंत तक 5 करोड़ एकड़ भूमि प्राप्त करने का हो गया। यद्यपि इस महान् उद्देश्य की प्राप्ति में बहुत प्रयत्न की अपेक्षा प्रकट होती है, तथापि आचार्य का यह विश्वास था कि यह दृढ़ संकल्प अवश्य पूर्ण होगा। अनेक राज्यों के सार्वजनिक नेता इस संकल्प की पूर्ति में लग गए। प्रसिद्ध समाजवादी नेता श्री जयप्रकाश नारायण आज इस यज्ञ के लिए अपने जीवन का दान कर चुके हैं। आचार्य विनोबा उत्तर प्रदेश, बिहार और आंध्र होकर केरल में काम कर रहे हैं, जहाँ कम्यूनिस्ट मंत्रिमंडल है। उनकी पद यात्रा ग्राम से ग्राम तक होती है। इस यात्रा में हजारों लाखों किसान महान् संत के न केवल पुण्य दर्शन करते हैं, किंतु उनकी पुण्य भावनाओं से प्रेरित होकर इस यज्ञ में आहुति स्वरूप ग्राम के ग्राम अर्पित कर देते हैं। अब आचार्य विनोबा केवल भूमि लेकर संतुष्ट नहीं होते, वे संपूर्ण ग्राम के ग्राम दान में ले रहे हैं और ऐसे हजारों ग्राम उन्हें मिल भी चुके हैं। सितम्बर 1957 में ग्रामदान के संबंध में एक महत्त्वपूर्ण सम्मेलन किया गया था, जिसमें विभिन्न राजनैतिक दलों के नेता सम्मिलित हुए थे। ग्रामदान आंदोलन से सभी दलों ने सहानुभूति प्रकट की है। दान में दिए गए ग्रामों में निजी संपत्ति के नाम पर किसी के पास कृषि भूमि नहीं रहेगी। यह भूमि समस्त ग्राम की समझी जाएगी। इस आंदोलन का एक लाभ यह भी हुआ कि सहकारिता आंदोलन और समाजवादी समाज की स्थापना के लिए मार्ग अत्यंत सुगम हो गया है। भूदान यज्ञ की अग्नि समस्त देश में प्रज्वलित होने लगी है। इस महान् यज्ञ की सफलता विश्व को नया शांति और अहिंसा का प्रेम देगी। गांधी जी ने राजनैतिक क्षेत्र में महात्मा बुद्ध के प्रेम व अहिंसा का प्रयोग किया था। आचार्य विनोबा आर्थिक क्षेत्र में यह महान परीक्षा कर रहे हैं। इसकी सफलता मानव की आत्मा के पशुत्व को निकालकर मानवता व गौरव प्रदान करेगी।

सर्वोदयवाद का अंग

भूदान यज्ञ वस्तुतः उस सर्वोदयवाद का एक अंग है, जिसे गांधी जी ने प्रारंभ किया था। राष्ट्रपति श्री डॉ. राजेन्द्रप्रसाद और श्री जयप्रकाश नारायण के दो उद्धरण देकर यह लेख हम समाप्त करना चाहते हैं। राष्ट्रपति लिखते हैं-

“हम जो भूदान आंदोलन चला रहे हैं वह एक प्रतीक मात्र है, जिस तरह गांधी जी का चरखा एक प्रतीक मात्र था। देने में ही लेने का आनंद मिले- यह भूदान की महिमा है। मैं तो समझता हूँ कि इस वक्त हम संध्याकाल में हैं। दीपक जलाकर पुजारियों का तप हो रहा है।”

श्री जयप्रकाश नारायण, जो देश के महान विचारक है, लिखते हैं-

“मुख्य बात यह है कि हमको देश में एक विचार क्रांति लानी है। यह काम कानून से होने वाला नहीं। हम को एक खूंटी मिली संपत्ति दान और भूदान के रूप में। जो सोलह आने स्वामित्व विसर्जन नहीं कर सकते तो एक अंश तो दे सकते हैं। इस प्रकार क्रांति का विचार देश में फैला है।

“हिंसक और अहिंसक क्रांति में गहरा अंतर है। रूस का उदाहरण देखिए। रूस में क्रांति के बाद जब जमीदार भाग गए तो किसानों ने जमीन पर कब्जा कर लिया, पर समाज के मानवीय मूल्य नहीं बदले। ‘तुम्हारी संपत्ति’ और ‘हमारी संपत्ति यह भावना बनी रही। अतः जब रूस सरकार ने कलेक्टिव फार्म, यानी खेती का समूहीकरण शुरू किया तो, उसे बड़ी भारी कीमत अदा करनी पड़ी थी। दो करोड़ के लगभग आदमी अपने-अपने स्थानों से उखाड़कर साइबेरिया भेज दिए गए। श्रेणी संघर्ष को तीव्र करने से सर्वोदय पैदा नहीं हो सकता। साम्यवाद को मानने वाला रूस आज कहाँ से कहाँ पहुँच गया। लेनिन ने कहा था कि साम्यवादी राज्यों में मजदूरों और अफसरों के वेतनों में फर्क नहीं होगा पर आज रूस में समाज के दो व्यक्तियों के वेतनों में 80 गुना अंतर पाया जाता है। लेनिन ने कहा था कि साम्यवादी राज्य में राज्य सत्ता धीरे-धीरे समाप्त हो जाएगी। पर रूस में तो आज वस्तुतः राज्य सत्ता दैत्याकार हो गई है। सारांश यह कि राज्य शक्ति भले बढ़े, पर नैतिक और जनशक्ति न बढ़े तो उससे कुछ नहीं होना जाना है। भूदान जनता के हृदय को अहिंसक रीति से बदल लेने का एक उत्कृष्ट उपाय है।”

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