संकेत बिंदु – (1) भूकंप की उत्पत्ति (2) प्रकृति में परिवर्तन नैसर्गिक (3) प्रकृति का विनाशक तांडव (4) भूकंप प्रकृति का क्षोभ नहीं, वरदान भी (5) उपसंहार।
जब पृथ्वी की सतह अचानक हिलती या कंपित हो उठती है, तो उसे भूकंप कहते हैं। गगनभेदी गड़गड़ाहट और धरा के ऊपरी सतह के कंपन के साथ प्रकृति सर्वनाश करने वाला जो प्रकोप प्रकट करती है, उसी को भूकंप की संज्ञा देते हैं। उत्तरोत्तर संचित हो रहे विवर्तनिक प्रतिबलों से उत्पन्न तनाव जब भू के लिए असह्य हो जाते हैं तो दरारें खिल जाती हैं, धड़धड़ा कर भूपटल फट जाता है। भूपटल का फटना भूकंप का लक्षण है। ज्वालामुखी के उद्गार भी भूकंप का कारण बनते हैं। भूमि की चट्टानों के असंतुलन से भी भूचाल आ सकते हैं।
भूकंप की उत्पत्ति यह सिद्ध करती है कि यह मानवीय शक्ति की उद्भावना नहीं हो सकती। यह निसर्ग की देन है। सृष्टि के एकमात्र उत्पादन शक्ति की करामत है। मानव की विज्ञान – बुद्धि जब बर्दाश्त के बाहर प्रकृति से छेड़छाड़ करती है तो प्रकृति भूकंप के रूप में अपना क्षोभ व्यक्त करती है। प्रकृति का माया रूपी हृदय जब डोलता है तो वह अपनी चंचलता (प्रकोप) प्रकट करता है। उसकी चंचलता भूकंप, भूचाल या अर्थक्वेक रूप में प्रकट होती है।
प्रकृति भी परिवर्तन-प्रेमी है, क्योंकि वह क्रियाशील है। जिस प्रकार जीवन में परिवर्तन स्वाभाविक है, उसी प्रकार प्रकृति में परिवर्तन भी नैसर्गिक है। प्रकृति जब प्रसन्नवदना होती है तो नाना रूपों में सौंदर्य प्रकट कर मानव को आकर्षित करती है और जब रुष्ट होती है तो जल प्लावन, ज्वालामुखी विस्फोट, आकाशीय विद्युत् प्रताड़न और भूकंप के रूप में अपना विनाशकारी रूप दर्शाकर सृष्टि को भयभीत और प्रकंपित करती है। अंतर इतना ही है कि प्रकृति की प्रसन्नता दीर्घ समय तक रहती है और प्रकोप क्षणिक रहता है।
प्रश्न उठता है कि प्रकृति विज्ञान- प्रेमियों से रुष्ट क्यों होती है, क्यों उसे अपना प्रकोप प्रकट करना पड़ता है? आज पहाड़ों में सड़कों का जाल बिछाने के लिए उत्खनन कार्यों तथा पत्थर निकासी ने पहाड़ों को बौना बना दिया है। बारूदी धमाकों ने पहाड़ों को कमजोर कर दिया, उनमें दरारें डाल दीं। चट्टानें फट गईं। परिणामतः भूस्खलन के संकट को आमंत्रित कर दिया।
जिस प्रकार जल प्रलय प्रकृति का विनाशक तांडव है, उसी प्रकार भूकंप उससे भी भयानक विनाशक प्रक्षोभ है। मौसम विज्ञानी समुद्री तूफान की सूचना दे सकते हैं, पर भूकंप के आगमन की सूचना पाने में वैज्ञानिक अशक्त हैं। दो-चार सेकेंड्स के भूकंप से छोटे भवन, दीर्घ प्रासाद और उच्च अट्टालिकाएँ-काँपती हुईं पृथ्वी के चरण चूमने लगती हैं। मनुष्य जैसे का तैसा, जहाँ का तहाँ भूकंप के झटके की चपेट में आकर परलोक गमन करता है या घायल होकर चीख-पुकार मचाता है। पशुओं को रंभाने का अवसर नहीं मिलता। गाँव के गाँव नष्ट हो जाते हैं। शवों के ढेर लग जाते हैं। लोगों की जीवन भर की गाढ़ी कमाई और संपदा क्षणभर में नष्ट हो जाती हैं। चीख-पुकार से आहत नर-नारी, आबाल वृद्ध आसमान सिर पर उठा लेते हैं। 20 अक्तूबर, 1991 को उत्तरकाशी में आए भूकंप से 15,000 से अधिक व्यक्तियों की मृत्यु हुई और सहस्रों लोग घायल हुए। दूसरी ओर, 30 अक्तूबर, 1993 के लाटूर एवं उस्मानाबाद क्षेत्रों के विनाशकारी भूकंप का कहर 81 गाँवों पर बरपा जिसमें 25 से ज्यादा गाँवों ने श्मशान की शांति ओढ़ ली और 12 सहस्र व्यक्ति क्षणभर में जीवन से हाथ धो बैठे। इतना ही नहीं लाटूर से 500 किलोमीटर दूर विदर्भ के क्षेत्रों में भी अनेक भवनों में दरारें पड़ गईं।
भूकंप को प्रभाव नदियों पर भी पड़ता है। पहाड़ों के नीचे धँसने से, चट्टानें, पत्थर, ढीली मिट्टी, गाद जल धाराओं में मिलने से नदी का प्रवाह अवरुद्ध हो जाता है। नदी का प्रवाह अवरुद्ध होने और पानी जमा होने से वह स्थान झील के रूप में परिणत हो जाता है। जलमग्न घर, भवन भूकंप के प्रकोप से बचकर भी प्रकृति प्रकोप की चपेट में आ जाते हैं। 1978 में भूकंप के कारण भूस्खलन से गंगोत्री मार्ग पर 500 मीटर ऊँचा मिट्टी पत्थर का ढेर लग गया। गंगा-जल अवरुद्ध हो गया। फलतः झील बन गई। प्रशासन चेता। बम विस्फोट से झील तोड़ी। यदि मनेरी बाँध द्वारा विलोथ में गंगा पर लोहे के पुल का दृढ़ आधार न होता, तो संभवतः उत्तरकाशी डूब जाती। फिर भी, पहाड़ की चोटी से मकानों की जल समाधि का खेल स्पष्ट दिखाई दे रहा था।
भूकंप पृथ्वी के किसी भी स्थान पर आ सकते हैं, लेकिन कुछ क्षेत्रों में भूचाल प्राय: थोड़े-थोड़े समय के बाद आते ही रहते हैं। इन क्षेत्रों में पृथ्वी की सतह अपेक्षाकृत कमजोर होती है। अधिकांश भूचालों का उद्गम भूपटल में 60 कि.मी. से कम गहराई पर अवस्थित रहता है। भारत में अधिकांश भूकंप हिमालय क्षेत्र तथा गंगा-ब्रह्मपुत्र की घाटी में ही आते हैं। भारत के दक्षिण के पठार में भी कुछ भूकंप आए हैं। यहाँ का दिसंबर, 1967 का कोयना नगर का भूकंप आज भी बिहारवासियों के रोंगटे खड़े कर देता है, क्योंकि पूरी बस्ती ही जमीन में भैंस गई थी।
भूकंप केवल धरा में ही आते हों, ऐसा नहीं। मनुष्य की जन्मजात अविकारी चारित्रिक मूलभूत विशेषताओं (जिसे ‘प्रकृति’ कहा जाता है) में जब भूकंप आता है तो मनुष्य का तन-मन हिल जाता है। वह किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है। निराशा चहुँ ओर से घेर कर उसे नारकीय जीवन की ओर धकेल देती है। इस प्रकार मानवीय प्रकृति का भूचाल उसे मरने भी नहीं देता और जीवन जीने योग्य भी उसे नहीं छोड़ता। यह भूचाल भी अल्पायु होता है, दीर्घजीवी नहीं।
भूकंप का प्राकृतिक प्रकोप अपनी पीड़ा के अमिट चिह्न धरा के चेहरे पर छोड़ जाता है। अपने से प्रभावित प्राणी में भी आतंक के ऐसे अवशेष छोड़ जाता है, जो स्वप्न में भी उसे आतंकित कर जाते हैं। पर प्रत्येक ध्वंस नए निर्माण का संदेश लेकर आता है। प्रकृति प्रकोप से धरा का झुलसा चेहरा, जब नव-शृंगार कर उपस्थित होता है तो मानवीय प्रकृति सृष्टि – प्रकृति को चिढ़ा रही होती है। प्रकृति पर मानव की विजय पताका फहरा रही होती है।