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मेरा आदर्श इतिहास – पुरुष : छत्रपति शिवाजी

chhatrapati shivaji mere aadarsh purush ke bare men hindi nibandh

संकेत बिंदु – (1) मेरा आदर्श इतिहास पुरुष शिवाजी (2) शिवाजी का जन्म और पालन-पोषण (3) शिवाजी का विजय अभियान (4) औरंगजेब से शिवाजी का युद्ध (5) कुशल शासक और संगठनकर्त्ता।

इतिहास में अनेक महापुरुषों का उल्लेख है। वे अपने राष्ट्र की सेवा कर इतिहास पुरुष बन गए। परकीयों से राष्ट्र की रक्षा, जनता के हितार्थ चिंतन तथा उसकी प्रगति का कार्यान्वयन ऐतिहासिक महापुरुषों का जीवन लक्ष्य रहा है। ऐसे महापुरुषों के सम्मुख मस्तक नत हो जाता है। उनके जीवन से प्रेरणा लेकर अपना जीवन राष्ट्र हित में समर्पित करने की इच्छा बलवती होती है।

मर्यादा पुरुषोतम राम से लेकर आज तक भारत भू पर इतिहास पुरुषों की यशस्वी शृंखला विद्यमान है, किंतु मेरे आदर्श इतिहास पुरुष हैं, छत्रपति शिवाजी। शिवाजी ही थे, जिन्होंने- मुगलों के अत्याचारों से जब हिंदू जनता त्राहि-त्राहि कर थी, स्त्रियों का अपमान सरे-आम हो रहा था, गौ तथा ब्राह्मण की मान्यता समाप्त कर उनकी नृशंस हत्या की जा रही थी, हिंदू घर में जन्म होने पर ‘कर’ देना पड़ता था, अपनी आन के पक्के राजपूत तलवार को छोड़ विलासिता का जीवन व्यतीत कर रहे थे, ऐसे समय में हिंदू-धर्मरक्षक छत्रपति वीर शिवाजी भारत भू पर अवतरित हुए।

शिवाजी का जन्म 10 अप्रैल, सन् 1627 को महाराष्ट्र के शिवनेरी के दुर्ग में हुआ। उनकी माता का नाम जीजाबाई और पिता का नाम शाहजी था। शाहजी बीजापुर के शासक के अधीन थे। शिवाजी के जन्म के बाद शाहजी ने दूसरा विवाह कर लिया। जीजाबाई अब शिवनेरी से पूना आ गईं थीं।

शिवाजी के जीवन-निर्माण का श्रेय उनकी पूज्य माता जीजाबाई को ही है। वे शिवाजी को रामायण और महाभारत की कथाएँ सुनातीं। बाल्यकाल में ही उन्होंने शिवाजी के हृदय में हिंदुत्व और राष्ट्रीय स्वाभिमान का भाव कूट-कूटकर भर दिया। साधु-संतों की संगति में उन्हें धर्म और राजनीति का शिक्षण मिला। कालांतर में दादाजी कोंडदेव पूना की जागीर के प्रबंधक नियुक्त हुए। शिवाजी ने उन्हीं से युद्ध-विद्या और शासन-प्रबंध करना सीखा।

दादाजी कोंडदेव की मृत्यु के उपरांत जागीर का प्रबंध शिवाजी ने अपने हाथ में ले लिया। उन्होंने मराठा जाति को एकत्रित कर एक सुसंगठित सेना भी तैयार कर ली।

शिवाजी ने सर्वप्रथम आक्रमण बीजापुर के एक दुर्ग ‘तोरण’ पर किया। तोरण को जीत लेने के बाद उन्होंने रायगढ़, पुरंदर और राजगढ़ के किलों को भी जीता। इस विजय में बहुत सा धन प्राप्त होने के साथ-साथ एक अरब शाहजादे की अनुपम सुंदर स्त्री भी मिली। जब लूट के सामान के साथ सुंदरी को भी शिवाजी के सम्मुख पेश किया गया तो उन्होंने उसे ‘माँ’ कहकर संबोधित किया और बहुत से आभूषण देकर उसे उसके पति के पास पहुँचवा दिया।

शिवाजी की निरंतर विजय से बीजापुर के शासक ने क्रोध में आकर शिवाजी के पिता शाहजी को जेल में डाल दिया। शिवाजी ने अपनी बुद्धिमत्ता और नीति से उन्हें छुड़ा लिया। इसके पश्चात् शिवाजी कुछ काल तक शांत रहकर अपनी शक्ति बढ़ाते रहे।

दिल्ली में अपने भाइयों से निपटने के पश्चात् औरंगजेब का ध्यान शिवाजी की ओर गया। उसने अपने मामा शाइस्ताखाँ को दक्षिण में भेजा। शाहस्ताखाँ ने चाकन आदि कई किले जीतकर पूना पर अधिकार कर लिया। उसी रात शिवाजी ने एक बारात के रूप में पूना में प्रवेश किया। उनके साथ चार सौ मराठा सैनिक थे। महल में पहुँचते ही उन्होंने मुगलों पर धावा बोल दिया। शाइस्ता खाँ स्वयं तो बड़ी कठिनाई से बच गया, किंतु उसका पुत्र मारा गया।

औरंगजेब ने इस पराजय के पश्चात् राजा जयसिंह को शिवाजी विजय के लिए भेजा। जयसिंह ने अपनी वीरता और चातुरी से अनेक किले जीते। इधर, शिवाजी ने दोनों ओर हिंदू – रक्त की हानि देख राजा जयसिंह से सन्धि कर ली। राजा जयसिंह के विशेष आग्रह पर शिवाजी ने औरंगजेब के आगरा- दरबार में उपस्थित होना स्वीकार कर लिया। दरबार में शिवाजी का अपमान किया गया और उन्हें बंदी बना लिया गया। यहाँ भी उन्होंने कूटनीति का आश्रय लिया। फलों और मिठाई के टोकरों में छिपकर भाग निकले।

अब शिवाजी यवनों के कट्टर दुश्मन बन गए। उन्होंने पुनः यवन- किलों पर आक्रमण कर उन्हें हस्तगत करना प्रारंभ कर दिया। सिंहगढ़ का दुर्ग, सूरत की बंदरगाह, बुलढाना और बरार आदि तक जीतकर खूब धन लूटा और वहाँ के लोगों से चौथ लेना शुरू कर दिया। 6 जून, 1674 को शिवाजी का रायगढ़ के किले में राज्याभिषेक हुआ। इस प्रकार सैकड़ों वर्षों के पश्चात् भारत में पुनः ‘हिंदू-पद-पादशाही’ की स्थापना हुई।

हिंदूपद पादशाही की स्थापना के अनंतर साम्राज्य-प्रसार और धन प्राप्ति की इच्छा से शिवाजी ने बहुत से किले जीते। हैदराबाद और बिल्लौर ने आत्म-समर्पण ही कर दिया। अंत में शिवाजी ने कर्नाटक तक अपना राज्य बढ़ाया।

युद्ध में अत्यंत व्यस्त रहने के कारण शिवाजी अपने उत्तराधिकारी को उचित शिक्षा न दे सके। उनका पुत्र शम्भाजी विलासी, व्यभिचारी और कायर बन गया था। शिवाजी अपने अंतिम समय में बड़े निराश थे। उनके शरीर को रोगों ने आ दबाया और 5 अप्रैल, 1650 को इस वीर पुरुष की मृत्यु हो गई।

शिवाजी एक कुशल संगठनकर्ता और एक श्रेष्ठ शासक थे। उनकी शासन व्यवस्था अत्युत्तम थी। वे एक आदर्श पुरुष थे, अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णु थे। उन्होंने अन्य धर्मों के पूजा-स्थलों का कभी अनादर नहीं किया, कभी उन्हें तुड़वाया नहीं।

समर्थ गुरु रामदास शिवाजी के गुरु थे। गुरु के प्रति उनकी अटूट श्रद्धा थी। यही कारण है कि भिक्षा में गुरुजी को उन्होंने अपना संपूर्ण राज्य तक दे डाला था। वे उनके प्रबंधक के नाते राज्य प्रबंध करते थे।

कुशल राजनीतिज्ञ, असाधारण संगठनकर्ता, गौ-ब्राह्मण प्रतिपालक, हिंदू-धर्म परित्राता, धैर्य और साहस के स्वामी, आदर्श चरित, न्याय मूर्ति शिवाजी को प्रत्येक हिंदू आदर और श्रद्धा की दृष्टि से देखता है तथा उनके जीवन से स्वराष्ट्र और स्वधर्म की सुरक्षा की प्रेरणा लेता है।

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