किसी समय बहुत थोड़े से बड़े-बड़े शहरों में सिनेमा की अंग्रेजी तस्वीरें दिखाई जाती थीं और सिर्फ अंग्रेजी पढ़े-लिखे संपन्न व्यक्ति या कालेज के विद्यार्थी उन्हें देखा करते थे, परंतु आज सिनेमा समस्त भारतीय जीवन में इतना अधिक प्रवेश कर गया है कि उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। कोई नगर ऐसा नहीं होगा जिसमें दो-चार या ज्यादा सिनेमाघर न खुले हों। भ्रमणशील सिनेमा कंपनियाँ मेलों में प्रदर्शन करके गाँव वालों को भी सिनेमा का शौकीन बना चुकी हैं। युद्ध काल में सेना में भरती के लिए ब्रिटिश सरकार ने सिनेमा चित्रों का बहुत आश्रय लिया था। आजकल भारत व राज्यों की सरकारें प्रौढ़ शिक्षा के लिए सिनेमा – फिल्मों का आश्रय ले रही हैं। लोगों को अच्छा भोजन न मिले, पर प्रत्येक सिनेमाघर पर टिकट लेने के लिए घण्टों प्रतीक्षा करती हुई लंबी-लंबी कतारें रोज दिन में तीन-चार दफा देख लीजिए। शहरों के गली-कूचे में, बाजार में, कहीं गुजर जाइए, छोटे-बड़े सिनेमा गीतों की दो एक पंक्तियाँ गुनगुनाते हुए बच्चे, जवान और प्रौढ़ मिल जाएँगे। रेडियो ने सिनेमा की रही सही कमी को पूरा कर दिया। सिनेमा के लोकप्रिय कर्णमधुर गीत लोगों की फरमाइश पाकर बार-बार सुनाए जाते हैं। छोटे-बड़े सभी अखबारों में सिनेमा स्तंभ अवश्य रखा जाता है। सिनेमाओं की तारिकाएँ हमारी दिल – चस्पी का विषय बनी हुई हैं। उनके जीवन चरित्र छापे जाते हैं, उनकी मनोमोहक स्थिति में रंग-बिरंगी तस्वीरें छापी जाती हैं और उनकी रुचि किस खेल में है, किस वेश में है, किस फूल में है, वे विवाह कब करती हैं, किससे करती हैं; यह सब पर्याप्त स्थान देकर पत्रों में प्रकाशित किया जाता है। राजनीतिक नेताओं से अधिक उनसे किए हुए ‘इन्टरव्यू’ अखबारों में छपते हैं। बीसियों पत्र तो केवल सिनेमापरक होते हैं। सैकड़ों पत्रिकाओं के आवरण पृष्ठों पर केवल सिनेमा तारिकाओं के रंगीत चित्र ही रहते हैं। सारांश यह है कि आज समाज में सिनेमा का इतना अधिक प्रचार है कि वह हमारे जीवन का अनिवार्य अंग बन गया है।
चिंता व विरोध
सिनेमा ज्यों-ज्यों हमारे जीवन में प्रवेश करता जा रहा है, त्यों-त्यों कुछ वयोवृद्ध विचारक इसका विरोध भी बढ़ाते जाते हैं। सिनेमा चरित्र पतन का प्रधान कारण है; सिनेमा जनसामान्य को भावुकता और वासना की ओर ले जाता है; सिनेमा से समाज उच्छृङ्खल बनता जा रहा है और सिनेमा युवकों में पापपूर्ण दुःसाहस की प्रवृत्ति पैदा करता है। शराब, चोरी, धोखा, डाका और व्यभिचार आदि अपराधों की संख्या सिनेमा देखने वाले युवकों में बहुत बढ़ गई है। भले घरों की लड़कियाँ भी संयम छोड़कर वासनामय जीवन की ओर आकृष्ट होने लगी हैं। सिनेमा के प्रचार के कारण ही समस्त राष्ट्र का चरित्र नीचे गिरता जा रहा है। इस प्रकार की आलोचना हम प्रायः प्रत्येक सभा समाज आदि के उत्सवों पर सुनते रहते हैं। इसमें संदेह नहीं कि यह आलोचना अधिकांशतः सच है। सिनेमा ने हमारे जीवन की दृष्टि ही बदल दी है। गीता व अन्य धार्मिक शास्त्रों को भूलकर सिनेमा अभिनेत्रियों के नए-नए वासतापूर्ण गीत हमारे जीवन में प्रविष्ट हो गए हैं।
परंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि सिनेमा बंद कर दिए जाएँ, अथवा लोगों में सिनेमा न देखने का आंदोलन किया जाए। यदि आप ऐसा प्रयत्न करना भी चाहेंगे तो इसका कोई लाभ नहीं होगा। आल इण्डिया रेडियो ने सिनेमा गीतों का सुनाना बंद किया था, लोगों ने लंका व पाकिस्तान के रेडियो सुनने शुरू कर दिए, क्योंकि वे सिनेमा गीत सुनना नहीं छोड़ सकते थे। सिनेमा आज एक बहुत बड़ी शक्ति बन गई है। आज इसका विरोध करना असंभव है। तब क्या सिनेमा द्वारा फैलने वाला अनाचार यों ही फैलने दिया जाए? क्या देश के होनहार नवयुवकों का नैतिक पतन इसी गति से होते रहने दिया जाए? क्या इस पर कोई नियंत्रण लगाने की आवश्यकता नहीं है?
महान शक्ति की दिशा मोड़ दो
आज हमें यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि ब्रह्मपुत्र, सोन, कोसी या अन्य अनेक नदियों के अतुल प्रवाह की तरह सिनेमा के बढ़ते हुए प्रवाह को रोकना संभव नहीं है, परंतु यदि बाँध बनाकर नदियों के प्रवाह को खेत सींचने के लिए नहरों के रूप में मोड़ा जा सकता है, तो सिनेमा के प्रवाह की दिशा भी बदली जा सकती है, मोड़ी जा सकती है। सिनेमा कंपनियों पर इस तरह का नियंत्रण तो किया जा सकता है कि वे वासनापूर्ण चित्र न बनावें, नग्नता और कामुकता का प्रचार न करें। भारत सरकार ने एक सेंसर बोर्ड की नियुक्ति इसी उद्देश्य से की भी हुई है। वह बोर्ड अनेक चित्रों में अश्लील दृश्यों के अंग काट-छाँट देता है। परंतु सच्चाई यह है कि इस बोर्ड की दृष्टि बहुत अधिक उदार हो चुकी है, संभवतः सिनेमा कंपनियों के मालिक किसी- किसी सदस्य को किसी न किसी तरह संतुष्ट करके अवांछनीय दृश्य निकालने नहीं देते हैं। यदि हम बोर्ड के सदस्यों को पतित न भी मानें, तो यह अवश्य मानना पड़ेगा कि उनका स्टैंडर्ड बहुत अधिक ऊँचा नहीं है।
यूरोपीय फिल्म देखते-देखते वे नारी के उभरते हुए वक्ष के प्रदर्शनों में या दो-तीन इंची कपड़े की पट्टी के सिवा समस्त शरीर के नग्न प्रदर्शन में कोई हानि नहीं देखते। काम वासना का प्रदर्शन भी उनकी ‘विकारहीन’ आँखों को उत्तेजित नहीं करता। नैतिकता व अनैतिकता का उनका स्टैण्डर्ड कुछ ऐसा अवश्य है, जो साधारण, चिंतनशील नागरिक की समझ से बाहर है। इस। संबंध में हमारी नम्र सम्मति है कि प्रकांड पण्डितों व शिक्षाशास्त्रियों की एक समिति को यह काम सौंपना चाहिए कि वह यह निश्चित करे कि किस प्रकार के चित्र बनने चाहिएँ। वही विस्तार से यह निश्चय करे-
जाए ;
(1) शरीर के विभिन्न अंगों का नग्न प्रदर्शन किस सीमा तक किया
(2) नृत्य का नैतिक स्तर क्या हो ;
(3) गीतों में प्रेम या वासना का निम्नतम स्तर क्या हो ;
(4) सिगरेट और मद्यपान का प्रदर्शन भी सीमित किया जाए ; और
(5) वेश्यागामिता, चोरी, धोखा, डाका आदि के अपराधों के प्रदर्शन, जो विद्यार्थियों के कोमल चित्त पर बुरा प्रभाव डालते हैं, किस सीमा तक दिखाए जाएँ?
इस समिति के द्वारा नियत आधारभूत सिद्धांतों का कठोरता से पालन किया जाए। सिनेमा मनोरंजन की वस्तु अवश्य है, उसमें से मनोरंजन निकाल देना सिनेमा की ही हत्या होगी, किंतु मनोरंजन के साथ-साथ नैतिकता तथा चरित्र का ध्यान भी रखना होगा। विशुद्ध मनोरंजन भी बुरा नहीं है, पर वह नैतिक पतन की ओर ले जाने वाला न हो। जहाँ भारतीय सिनेमा कंपनियों पर प्रतिबंध हो, वहाँ विदेशी ‘रोमाण्टिक’ चित्रों के प्रदर्शन पर भी कठोर प्रतिबंध होना चाहिए।
बड़ी शक्ति
सिनेमा आज के युग की एक बड़ी शक्ति है। राष्ट्र निर्माण और शिक्षा के लिए इसका जितना उपयोग किया जाए कम है। इस दिशा में कुछ प्रयत्न अवश्य किए गए हैं। भूगोल, इतिहास, ज्योतिष विज्ञान, नागरिक जीवन, राष्ट्र निर्माण की नई प्रवृत्तियाँ और स्वास्थ्य, देश भक्ति की प्रभावकारिणी शिक्षा, जितनी सिनेमा – चित्रों द्वारा सामान्य जनता को दी जा सकती है, वैसा कोई दूसरा साधन आज संसार के पास नहीं है। अनेक यूरोपियन फिल्म- निर्माताओं ने ज्योतिष व विज्ञान की शिक्षा देने वाले चित्र बनाए हैं। भारत सरकार का शिक्षा विभाग भी प्रौढ़ शिक्षा के लिए ग्रामों में कुछ चित्रों का प्रदर्शन करता है। भारत सरकार का सूचना विभाग देश में चलने वाली विकास प्रवृत्तियों के चित्र प्रदर्शन द्वारा जनता को यह बताता है कि हमारा देश किस तरह तेजी से बढ़ रहा है। समाचार चित्रों ने भारतीय जनता को बताया कि रूस में पंडित जवाहरलाल नेहरू का कितना शानदार स्वागत हुआ। आज लाखों आदमी प्रतिदिन देश भर में सिनेमा देखते हैं, उन्हें कोई सूचना देनी हो, तो सिनेमा घर इसके बहुत अच्छे साधन हैं। प्राचीन और विशेषकर अर्वाचीन इतिहास को सिनेमा चित्रों द्वारा ही हम सुरक्षित रख सकते हैं। जाति-पाँति, छूत छात, दहेज, मद्यपान, बाल-विवाह, बलात् वैधव्य आदि सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध जितने सुंदर चित्र दिखाए जाएँ, उतना कम है।
सिनेमा के रूप में विज्ञान ने मानव को एक बड़ी प्रचंड शक्ति दे दी है। उसका दुरुपयोग भी हम कर सकते हैं और सदुपयोग भी भारतीय संस्कृति, भारतीय परंपरा और भारतीय आदर्शों तथा आज राष्ट्र-निर्माण की आवश्यकताओं को सामने रखकर जितने चित्र बनाए जाएँ, सिनेमा उतना ही स्वस्थ मनोरंजन के साथ-साथ देश के निर्माण में भी सहायक होगा।