Lets see Essays

उत्तर प्रदेश में सहकारिता आंदोलन

उत्तर प्रदेश में सहकारिता आंदोलन

(1) प्रस्तावना — सहकारिता की आवश्यकता

(2) सहकारी समितियों के प्रकार

(क) बहुधंधी समिति

(ख) दूध – समिति

(ग) घी- समिति

(घ) गन्ना विकास समिति

(ङ) सहकारी कृषि समिति

(च) उपभोक्ता भंडार

(3) सहकारिता से लाभ

(4) सहकारिता आंदोलन की प्रगति

(5) मार्ग में अड़चनें

(6) उपसंहार – सहकारिता आंदोलन का भविष्य

भारत जैसे निर्धन देश के लिए सहकारिता की आवश्यकता कौन स्वीकार नहीं करेगा? सहकारिता हमारे ग्रामीण क्षेत्रों के आर्थिक विकास में विशेष रूप से सहायक सिद्ध होगी। हमारा देश कृषि प्रधान है। यहाँ की 75 प्रतिशत से भी अधिक जनता कृषि- कार्य से अपनी जीविका उपार्जन करती है। कृषकों की दशा दयनीय है। उनके पास छोटे-छोटे खेत हैं, पैसा नहीं है, बल्कि वे ऋण- ग्रस्त हैं। उनके खेतों से बहुत कम उपज होती है और वह भी प्रायः लगान एवं ऋण चुकाने में समाप्त हो जाती है। बेचारों के पास खाने भर को अन्न नहीं बच पाता। ऐसी दशा में सहकारिता ही उनकी रक्षा कर सकेगी। यही हमारे भूखे नंगे किसानों की भोजन- वस्त्र की समस्या हल करेगी। यही हमारे किसानों के अस्थि-पंजर शरीर में नवीन रक्त, नवीन आभा, नवीन जीवन का संचार करेगी। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें निजी सम्पत्ति पर मनुष्य का अधिकार ज्यों का त्यों बना रहता है और इसके साथ ही बहुत से लोग अपने साधनों और परिश्रम को सामूहिक रूप प्रदान करके अधिक उत्पादन में समर्थ हो सकते हैं।

अतः, विदेशी शासन में वर्त्तमान शताब्दी के आरंभ में ही ग्रामीण जनता के लाभार्थ सहकारिता आंदोलन का श्रीगणेश किया गया। किंतु उस युग में सहकारिता के विकास की ओर हमारी विदेशी सरकार ने अधिक ध्यान नहीं दिया। केवल सहकारी समितियों की स्थापना की गई जिनका एक मात्र कार्य लेन-देन करना था। जन-प्रिय सरकार के शासन-भार ग्रहण करते ही सहकारिता आंदोलन को पर्याप्त बल मिला और आज प्रत्येक प्रदेश में यह आंदोलन द्रुत गति से बढ़ रहा है। हमारे प्रदेश में आज 36 सहस्र सहकारी समितियाँ हैं, जिनकी सदस्य संख्या 30 लाख से अधिक है। ये पाँच प्रकार की हैं – (1) बहुधंधी – समिति (2) दूध- समिति (3) ghee समिति (4) गन्ना विकास समिति (5) सहकारी कृषि- समिति और (6) उपभोक्ता भंडार। बहुधंधी समितियाँ लेन-देन, अच्छा बीज, रासायनिक खाद, कृषि के औजार, उपज की बिक्री, पशुओं की नस्ल सुधार, गृह उद्योगों का विकास, उपभोक्ता सामग्री आदि की व्यवस्था करती हैं। दूध-समितियाँ अपने सदस्यों से दूध एकत्र करके नगरों में स्थापित अपने दूध संघों को पहुँचाती हैं, जहाँ से वह ग्राहकों में वितरित किया जाता है। इस समय लखनऊ, इलाहाबाद, बनारस, कानपुर, मेरठ, हलद्वानी, और नैनीताल में दूध संघ हैं। इन समितियों की संख्या 430 है। हमारे प्रदेश में इस समय 10 सहकारी घी संघ कार्य कर रहे हैं। इनके अन्तर्गत कार्य करनेवाली समितियों की संख्या 566 है। ये समितियाँ घी उत्पादन के प्रमुख क्षेत्रों में स्थापित हैं और गाँवों में शुद्ध घी एकत्र करके अपने संघों में भेज देती हैं जहाँ उसकी बिक्री की व्यवस्था की जाती है। गन्ना विकास समितियों की संख्या इस समय 104 है। इनका कार्य गन्ने की बिक्री की व्यवस्था करने के अतिरिक्त गन्ना विकास- सम्बन्धी विभिन्न कार्य करना भी है। सहकारी कृषि समितियों की स्थापना भी की जा रही है। इनमें झाँसी जिले के नैनवारा और दनवारा ग्रामों की सहकारी कृषि समितियों के नाम उल्लेखनीय हैं। इस समय 20 से अधिक सहकारी कृषि समितियाँ विभिन्न जिलों में संतोषजनक रीति से कार्य करा रही हैं। इनके सदस्य अपनी-अपनी भूमि समिति को सौंप देते हैं। सारी भूमि की जुताई, बुआई, सिंचाई, फसल की कटाई, उपज की बिक्री आदि कार्य इन समितियों की पंचायतों द्वारा होता है।

सहकारिता आंदोलन ने नगरों में भी प्रगति की है। उपभोक्ता सामग्री की कमी और सरकारी नियंत्रण के फलस्वरूप नागरिक- जनता को इस प्रकार की संस्था की आवश्यकता थी जिनके द्वारा चोर बाजार और मुनाफाखोरी से बचा जा सके। उपभोक्ता भंडारों के संगठन ने इस आवश्यकता की पूर्ति कर दी। प्रायः समस्त निमंत्रित नगरों में उपभोक्ता भंडार खुल गए हैं। इस समय उनकी संख्या लगभग 250 है। ये उत्तर-प्रदेश की राशन पाने वाली लगभग दो-तिहाई जनता की सेवा कर रहे हैं।

सहकारी समितियों के कई लाभ हैं। सबसे बड़ा लाभ तो यह है कि लोग पारस्परिक सहयोग की व्यावहारिक शिक्षा ग्रहण करते हैं, आपस में मिलकर काम करना सीखते हैं। ‘अपनी-अपनी ढपली और अपना-अपना राग’ की मनोवृत्ति दूर होती है। इसके अतिरिक्त पृथक रूप से कार्य करने की अपेक्षा सामूहिक रूप से कार्य करने में व्यय कम होता है और आय अधिक। गरीब लोग धनिकों के आर्थिक शोषण से भी मुक्ति पा जाते हैं। प्रबन्ध में भी सुविधा होती। एक व्यक्ति की अपेक्षा अनेक व्यक्ति किसी कार्य को सरलता से अच्छाई के साथ कर सकते हैं।

सहकारिता आंदोलन ने गत पाँच वर्षों में पर्याप्त प्रगति की है। इस काल में सहकारी समितियों की संख्या एवं कार्य-क्षेत्र दोनों में ही आश्चर्यजनक वृद्धि हुई है। यह प्रयत्न किया गया है कि गाँव- गाँव में सहकारी समितियों की स्थापना हो और ग्रामीण जनता की प्रायः सभी आवश्यकताओं की पूर्ति ये समितियाँ करें।

पर मार्ग में कतिपय अड़चनें हैं जिनके कारण इन समितियों का जितना विस्तार होना चाहिए उतना नहीं हुआ। पहली अड़चन तो यह है कि गाँवों में शिक्षा के कारण सहकारी समितियों के कार्य- संचालन तथा आय व्यय लेखा ठीक रखने के लिए उपयुक्त मनुष्यों की कमी है। दूसरी अड़चन यह है कि ग्रामीण लोगों में दायित्व की भावना नहीं है। वे बेईमानी करने अथवा अपने मित्रों तथा सम्ब- न्धियों को अनुचित लाभ पहुँचाने में नहीं हिचकिचाते। तीसरी अड़चन यह है कि निर्धनता के कारण कृषक सहकारी समितियों में अधिक रुपया नहीं लगा सकते। चौथी अड़चन यह है कि सहकारिता के उद्देश्य एवं अभिप्राय से अपरिचित होने के कारण अधिकाँश भामीण जनता का सहकारी समितियों में कोई विश्वास नहीं है।

सारांश यह है कि यद्यपि सहकारिता उत्तम वस्तु है तथापि ग्रामीण जनता उससे अधिक लाभान्वित नहीं हो रही है। इसका एक कारण यह भी है कि हमारे यहाँ के लिए यह आंदोलन अभी नया है। आवश्यकता इस बात की है कि जनता में सहकारिता कि भावना उत्पन्न की जाय। तभी यह आंदोलन हमारे वर्त्तमान दूषित आर्थिक ढाँचे को बदलने में समर्थ हो सकेगा। इस आंदोलन ने गत वर्षों में जो प्रगति की है उससे स्पष्ट हो जाता है कि जनता ने इसका स्वागत किया है। उसने सहकारिता की उपयोगिता पहचान ली है और अब उसके सहयोग से इस जनोपयोगी कार्य के विकास में और अधिक सहायता मिलेगी। सहकारिता आंदोलन का भविष्य उज्ज्वल है और हमें आशा है कि यह गाँवों की काया- पलट करने में समर्थ होगा।

About the author

हिंदीभाषा

Leave a Comment

You cannot copy content of this page