Lets see Essays

दीपक की आत्मकथा

Deepak ki aatmkatha par ek shandar nibandh

संकेत बिंदु – (1) दीपक की आवश्यकता (2) मेरे जन्म की कहानी (3) मेरे बिना मंगलकारी कार्य अधूरे (4) अंधकार से प्रकाश की ओर प्रेरित (5) मेरे आलोचक।

पूजा आरंभ करने से पूर्व पंडित जी ने निम्नलिखित श्लोक पढ़ते हुए दीपक प्रज्वलित किया-

शुभं भवतु कल्याणमारोग्यं सुख-संपदः।

मम बुद्धि-विकासाय दीपज्योतिर्नमोस्तुते॥

पंडित जी के इस कार्य को देख एक युवक मुस्कराता हुआ बोला, ‘पंडित जी दिन के दिव्य प्रकाश में इस टिमटिमाते हुए दीपक की क्या आवश्यकता है?’

युवक के इस कथन पर दीपक को अत्यधिक खेद हुआ। उसे प्राचीन संस्कृति का उपहास करने वाले युवकों की बुद्धि पर तरस आया और उसने अपना महत्त्व प्रकट करने के लिए अपनी आत्मकथा कहने का निश्चय किया।

जरा मेरे जन्म की कहानी तो सुनो। तुम्हें विदित होगा कि कितने कष्ट सहकर मैं अस्तित्व में आया हूँ। मेरी जननी मिट्टी है। वही मिट्टी, जिससे सारे संसार का निर्माण हुआ है।

जब मैं मिट्टी के रूप में भूमि पर विद्यमान था तब एक दिन मैंने अपने ऊपर कुदाल के प्रहार अनुभव किए। खोदने वाले ने मुझे बोरे में भरा और गधे की पीठ पर चढ़ा दिया। मैं जहाँ इस अनायास ही मिलने वाली सवारी का आनंद ले रहा था, वहाँ मेरा मन भावी जीवन के संबंध में शंकाकुल भी हो रहा था। मेरी शंका सत्य सिद्ध हुई। गर्दभ-पृष्ठ से उतार कर मुझे प्रजापति (कुंभकार) के आँगन में डाला गया। बोरे में बाहर निकलते ही डंडे के प्रहार से मेरे कण-कण अलग कर दिए गए। कुछ देर धूप में सूख जाने पर पुनः मेरी पिटाई शुरू हुई। बिल्कुल महीन पिस जाने पर छलनी की सहायता से सभी कंकड़ अलग कर दिए गए। फिर पानी डालकर मुझे गूँधा गया। पानी के मिश्रण से मैं कुछ शांति का अनुभव कर रहा था कि फिर डंडे के प्रहार होने लगे और तब तक मेरी पिटाई होती रही, जब तक मैं गूंधे हुए मैदा की तरह बिल्कुल कोमल नहीं हो गया। अब प्रजापति महोदय ने चाक पर रखकर अपने कुशल करों से मेरा और मेरे सैंकड़ों अन्य साथियों का निर्माण किया और सुखाने के लिए खुले स्थान में रख दिया। मैं खुश था और सोच रहा था कि अब कष्टों का अंत हो गया है, किंतु एक दिन जब हमें ढेर के रूप में एकत्र कर घास- फूँस और उपलों से ढक दिया गया, तब मेरा मन फिर आशंका से भर गया। मैं सोच ही रहा था कि अब न जाने क्या विपत्ति आने वाली है कि मुझे धुएँ की दुर्गन्ध और अग्नि के ताप का अनुभव हुआ। प्रजापति महोदय ने घास-फूँस और उपलों में आग लगा दी थी।

धीरे-धीरे धुँआ और तपन बढ़ते गए। इतनी असह्य वेदना मैंने पहले अनुभव नहीं की थी। अग्निशांत होने पर जब मुझे राख के ढेर से बाहर निकाला गया, तब मैं अपने रूप को देखकर प्रसन्न हो उठा। मेरा वर्ण लाल हो गया था और मेरा शरीर भी परिपक्व हो गया था।

अभी मेरा जीवन अपूर्ण था। वह तो पात्र रूप ही था। पूर्ण दीपक बनने के लिए मुझे अन्य सहयोगियों की आवश्यकता हुई। तब तेल/ घी और रुई की बाती मेरे सहयोगी बने। इसके पश्चात् अग्निदेव ने बाती को जलाकर मुझे प्रज्वलित दीप का रूप दिया।

मैं दीप्त होने वाला और प्रकाश देने वाला दीपक हूँ। सभी मंगल कार्य मेरे बिना अधूरे हैं। मंदिर में भगवान की प्रतिमा की पूजा हो, गृह प्रवेश हो, व्यापार का शुभारंभ हो, पाणिग्रहण – संस्कार की बेला हो, सर्वत्र मुझे सम्मुख रखकर अर्चना की जाती है। मेरी उपस्थिति में ही भगवान भक्तों को वरदान देकर मेरा महत्त्व बढ़ाते हैं। अनेक माँगलिक कार्यों में मुझे ही देवतुल्य मानकर अक्षत-कुंकुम से मेरी पूजा की जाती है।

भारत के महान् पर्व ‘दीपावली’ के अवसर पर मेरा महत्त्व स्पष्ट रूप में प्रकट हो जाता है। यह पर्व बताता है कि मानव अपने हार्दिक उल्लास को व्यक्त करने के लिए दीपक जलाता है। एक नहीं, अनेक दीपक; दीपों की आवली (पंक्ति) – दीपावली। जनश्रुति के अनुसार श्रीराम के वनवास से अयोध्या लौटने पर जनता ने अपनी प्रसन्नता प्रकट करने और श्रीराम का अभिनंदन करने के लिए मेरे प्रकाश से नगर को जगमगा दिया था। यह उत्सव मेरी शक्ति का भी परिचय देता है। मैं अमावस्या के सूचीभेद्य अंधकार को भी नष्ट कर सकता हूँ।

अंधेरे में सबको राह दिखाना, अंधकार से प्रकाश की ओर प्रेरित करना मेरा कर्तव्य है। मैं अपने कर्तव्य में रत हूँ, बिना किसी फल की कामना के योगेश्वर भगवान कृष्ण ने गीता में निर्दिष्ट ‘निष्काम कर्म’ की प्रेरणा संभवतः मेरे निष्काम कर्म से ही ली हो। मैं भी सौगंध खाकर कहता हूँ कि जब तक मानव का स्नेह-रूपी तेल और भावना रूपी बाती मेरे अंदर विद्यमान रहेगी, मैं तब तक अपने कर्तव्य पथ से च्युत नहीं होऊँगा। सचाई यह है कि जैसे बिना आत्मा के शरीर निष्प्राण है, उसी प्रकार बिना मानवीय स्नेह के मैं मात्र मिट्टी हूँ, निष्प्राण हूँ।

किंतु मानव ने भी प्रलोभन देकर मुझे कर्तव्य विमुख करने का प्रयास किया। किसी ने चाँदी का दीपक बनाया, किसी ने स्वर्ण से भी मेरा शृंगार किया, झाड़-फानूसों और मणि- मुक्ताओं से भी मुझे अलंकृत किया गया, किंतु मैं सभी स्थितियों में अपने कर्तव्य – पथ पर अडिग हूँ, प्रकाश दिखाता हूँ।

जहाँ मेरे प्रशंसक हैं, वहाँ मुझे गालियाँ देने वाले भी कम नहीं। चोर मेरी भर्त्सना करते हैं। कामिनियाँ मुझसे ईर्ष्या करती हैं। कामी मेरा उपहास उड़ाते हैं। ईर्ष्या, द्वेष, उपहास और भर्त्सना से मैं डरने वाला नहीं। मैं तो विदेह जनक के समान निर्लिप्त रह कर अपने कर्तव्य पथ पर स्थिर हूँ।

सरसों के तेल से युक्त मेरे शरीर से उत्पन्न ज्योति जहाँ प्रकाश फैलाती है, वहीं उसका धुआँ कीटनाशक और स्वास्थ्यवर्धक भी है। धुएँ से निर्मित काजल नयनों की ज्योति की वृद्धि के लिए न केवल सर्वश्रेष्ठ औषधि है अपितु आँखों के सौंदर्य को भी बढ़ाता है। मेरे जीवन से आज भी भारतीयों को प्यार है। भारतीय संस्कृति और सभ्यता का प्रतीक जो हूँ मैं। श्रीमती महादेवी वर्मा कि शब्दों में-

“यह मंदिर का दीप, इसे नीरव जलने दो।

दूत साँझ का, इसे प्रभाती तक चलने दो॥”

Leave a Comment

You cannot copy content of this page