संकेत बिंदु – (1) राज्य भक्ति और देश भक्ति में अंतर (2) देश भक्ति का व्यापक क्षेत्र (3) देशभक्तों के देश भक्ति पूर्ण कार्य (4) महान पुरुषों का विभिन्न क्षेत्रों में योगदान (5) राष्ट्र भक्त और राष्ट्र-द्रोही में अंतर।
भक्ति का मूलाधार है प्रेम। देश के प्रति प्रेम नहीं है तो भक्ति कैसी? यदि किसी देश- वासी में देश के प्रति प्रेम नहीं तो समझना चाहिए उसकी देश भक्ति भी उसी सीमा तक विभक्त है। देश भक्ति पारिश्रमिक देकर नहीं करवाई जा सकती। देश भक्ति वही कर सकता है, जिसके मन में देश के लिए सच्चा प्यार होगा। देश-भक्ति भावना पर आधारित है, पैसे पर नहीं।
राज्य भक्ति और देश-भक्ति में अंतर है। राज्य भक्ति सदा देश भक्ति नहीं हो सकती। मुगलिया तथा गुलाम भारत में अंग्रेजी सत्ता के प्रति राज्य भक्त लोगों की सेवा देश-भक्ति नहीं कहा जा सकती। उसी प्रकार वर्तमान काल में शासन के राष्ट्र-विरोधी कार्यों के समर्थकों को देश-भक्त के गौरव से अलंकृत नहीं किया जा सकता। आपत्काल के समर्थकों, सत्ता में विद्यमान शासक की हाँ में हाँ मिलाने वाले चापलूसों, सत्ता की छत्रछाया में पनपते अराष्ट्रीय कृत्यों के सहयोगियों को राज-भक्त कह सकते हैं, राष्ट्र-भक्त नहीं।
लाला हरदयाल जी का कहना है कि देश-भक्ति में ‘त्याग को लाभ, गरीबी को अमीरी और मृत्यु को जीवन समझा जाता है। मैं तो ऐसे और पवित्र पागलपन का प्रचार करता हूँ। पागल ! हाँ, मैं पागल हूँ। मैं खुश हूँ कि मैं पागल हूँ।’
देश-भक्ति या राष्ट्र भक्ति का क्षेत्र अत्यंत व्यापक है। राष्ट्र पर आई विपत्ति में प्राणोत्सर्ग करना ही देश भक्ति की कसौटी नहीं। विद्यार्थी के लिए विद्यालय, महाविद्यालय तथा विश्वविद्यालय का अनुशासन-पालन देश भक्ति है तो अध्ययन के प्रति समर्पण देश-भक्ति की पहचान। युवा-युवती समाज से द्रोह करते हैं तो वह देश भक्ति नहीं। नकली दस्तावेज तथा मुद्रा तैयार करना तथा व्यापार में लोभ-वश जनहित विरुद्ध कार्य करना देश-भक्ति के विरुद्ध है। मिलावट करना, नकली तथा तस्करी की चीजें बनाना बेचना देश के साथ द्रोह है।
भारत की सभ्यता और संस्कृति, पर्व और उत्सव, स्वस्थ परंपरा और रूढ़ियों, मर्यादा और मूल्यों का सम्मान करना देश-भक्ति है तो इनसे बगावत देश-द्रोह।
प्रभु राम देश को असुर संस्कृति से रक्षार्थ युद्ध रत रहे। श्रीकृष्ण साधुओं के परित्राण के लिए जीवन पर्यंत सक्रिय रहे। महाराणा प्रताप जंगलों की खाक छानते रहे। छत्रपति शिवाजी आजन्म मुगलों से टक्कर लेते रहे। रानी लक्ष्मीबाई तथा तात्याटोपे ने अंग्रेजी सत्ता से युद्ध करते हुए जीवन उत्सर्ग कर दिया।
विश्ववंद्य बापू अहिंसात्मक पद्धति से तो शहीद चंद्रशेखर ‘आजाद’, भगतसिंह, सुखदेव आदि क्रांति द्वारा अंग्रेजी सत्ता को चुनौती देते रहे। वीर सावरकर तो अंग्रेज की कैद से छूटने के लिए जलयान से समुद्र में कूद पड़े। सुभाषचंद्र बोस ने विदेशों में जाकर, सेना संगठित कर ब्रिटिश भारत पर सशस्त्र आक्रमण ही कर दिया था। कहाँ तक गिनाएँ इन देशभक्तों की सुकृत्यों को।
दूसरी ओर लेखकों के एक वर्ग ने राष्ट्र-भक्ति के चरणों में पुष्पित जीवन-सुमन अर्पित कर राष्ट्रीय जीवन में उत्साह, उमंग और प्रेरणा भर दी। इसके लिए सर्वश्री भारतेंदु हरिश्चन्द्र, महावीरप्रसाद द्विवेदी, जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद, रामधारीसिंह ‘दिनकर’ रामनरेश त्रिपाठी, मैथिलीशरण गुप्त, सुभद्राकुमारी चौहान, माखनलाल चतुर्वेदी, स्वातंत्र्यवीर सावरकर आदि शीर्ष देश भक्त लेखकों का पुण्य स्मरण कराया जा सकता है।
सामाजिक-धार्मिक क्षेत्र में स्वाभिमान जागृति का जो कार्य महर्षि दयानंद, महर्षि विवेकानंद, डॉ. केशवबलिराम हेडगेवार, माधव सदाशिव गोलवलकर, गीता प्रेस गोरखपुर के संस्थापक हनुमान प्रसाद पोद्दार ने किया है, वह देश भक्ति की अद्भुत मिसाल है।
इनके अतिरिक्त वैज्ञानिक, आर्थिक, शैक्षणिक, कला, सांस्कृतिक आदि अनेक क्षेत्र हैं, जिनके माध्यम से अनेक महापुरुषों ने अपनी देश भक्ति का परिचय दिया है और दे रहे हैं। दुर्भाग्य से भारत में आज हर चीज राजनीति के कुचक्र में पिस रही है। देश-भक्ति भी इससे नहीं बची है। गीत यहाँ राष्ट्र भक्ति के गाए जाते हैं, कार्य देश-द्रोह के होते हैं। देश का चरित्र रसातल को चला जा रहा है, स्वार्थ राष्ट्र भक्ति पर हावी है।
15 अगस्त 1947 को हम मातृभूमि के विभाजन का पाप करते हैं; कश्मीर का 2/5 भाग पाकिस्तान को, तिब्बत चीन को, कच्चा टीबू द्वीप श्रीलंका को तथा तीन बीघा क्षेत्र बंगला देश को प्रदान कर राष्ट्र का अंग-भंग करके भी परम देश-भक्त कहलाते हैं। भ्रष्ट, सांप्रदायिक तथा समाज-विरोधी कार्य करने वाले नेता राष्ट्र के कर्णधार बनते हैं। विदेशी सभ्यता और संस्कृति को ओढ़ने वाले, अपनाने वाले उसमें तद्रूप हो रहने वाले राष्ट्र-भक्त हैं तथा देश हित कार्य करने वाले, राष्ट्र हित सर्वस्व अर्पण करने वालों को ‘राष्ट्र-द्रोही’ का तमगा प्रदान किया जाता है। स्पष्टतः भारत में देश भक्ति की व्याख्या ही विकृत हो गई है।
आज देश को शुद्ध देश-प्रेम, राष्ट्र भक्ति तथा मातृ-भक्ति की अत्यंत आवश्यकता है। केवल ऊँचे-ऊँचे नारों से ‘भारत माता की जय’ नहीं होगी। ‘सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्ताँ हमारा’ गाने से और ‘सुजलां सुफलां मलयज शीतलाम्, मातरं बन्दे’ के बारंबार उच्चारण से देश भक्ति प्रकट नहीं होगी। इसके लिए तो संकीर्ण स्वार्थभाव को त्यागकर राष्ट्र हित के कार्य करने की आवश्यकता है। प्रसाद जी की इन पंक्तियों को सदा स्मरण रखें-
जिएँ तो सदा इसी के लिए, यही अभिमान रहे, यह हर्ष।
निछावर कर दें हम सर्वस्त्र, हमारा प्यारा भारतवर्ष॥