संकेत बिंदु-(1) मानव विकास के स्तंभ समाज और संस्कृति (2) संस्कृति, जाति या समाज की अंतरात्मा (3) संस्कृति और समाज का संबंध (4) संस्कृति सतत विकासमान प्रक्रिया (5) भारतीय संस्कृति जीवंत संस्कृति।
मानवता के विकास के दो आधार स्तंभ हैं-समाज और संस्कृति। मानव सामाजिक प्राणी है। उसके बिना उसका न केवल विकास, अपितु जीवन भी मुश्किल है। संस्कृति मानवीय आदर्शों, मूल्यों, स्थापनाओं एवं मान्यताओं का समूह है। चित्त की उदात्त एवं परिष्कृत वृत्तियों की धर्म, दर्शन आदि रूप में अभिव्यक्ति है।
संस्कृति किसी जाति या समाज की अंतरात्मा है। इसके द्वारा उस देश के समस्त संस्कारों का बोध होता है, जिनके आधार पर वह अपने सामाजिक या सामूहिक आदर्शों का निर्माण करता है। अतः प्रत्येक देश की संस्कृति का और तदनुकूल उसकी समाज-रचना का अन्य देशों की संस्कृति और सभ्यता से भिन्न होना स्वाभाविक है। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति जहाँ भारतीय समाज की अंतरात्मा की अभिव्यक्ति है, वहाँ पाश्चात्य संस्कृति पश्चिम के समाज के संस्कारों का बोध कराती है।
जीवन-मूल्यों के साथ-साथ संस्कृति में भी यत्किचित् परिवर्तन होता है। जीवन स्थिर और जड़ नहीं है, इसलिए संस्कृति भी जड़ और स्थिर नहीं। समाज के आर्थिक और सामाजिक जीवन में परिवर्तन होते रहते हैं और साथ-साथ सांस्कृतिक जीवन भी बदलता रहता है। दूसरी जातियों या देशवासियों से संपर्क होने पर संस्कृतियों में परिवर्तन संभाव्य है। कुछ लोगों के विचारों में हिंदुओं ने आदि जातियों से दुर्गा पूजा, द्राविडों से शिवपूजा और जैनियों से मूर्तिपूजा के तत्त्व ग्रहण किए। वस्तुतः यह नितांत भ्रमपूर्ण धारणा है। दूसरी
और मुसलमानों ने भारत आक्रमण और राजसंस्थापन के पश्चात्, यवन संस्कृति ने हिंदू संस्कृति को नष्ट करने की चेष्टा की, परंतु हुआ विपरीत। दोनों संस्कृतियों में संघर्ष-संपर्क में और संस्पर्श हुआ। हिंदू-संस्कृति ने मुस्लिम संस्कृति को आत्मसात् करने की चेष्टा की, किंतु यवन-संस्कृति इसके लिए प्रस्तुत नहीं हुई। हाँ, यवन-संस्कृति प्रभावित अवश्य हुई। सूफी समुदाय भारत के अध्यात्मवाद और साधना का मुस्लिम संस्करण ही तो है। मकबरों का पूजन, भजन, कीर्तन और संगीत द्वारा उपासना हिंदू-संस्कृति की देन ही कही जाएगी।
समाज बढ़े, उन्नत हुए, संस्कृति की ध्वजा फहराई। समाज गिरा, संस्कृति लुप्त हो गई। उसका नामोनिशान न बचा। विश्व की प्राचीन प्रसिद्ध संस्कृतियों में मिश्र, असीरिया, बेबीलोनिया, यूनान आदि संस्कृतियाँ समाज के पतन के साथ लुप्त हो गईं। यूनान और रोम की भूमि पर आज किसी प्राचीन देवी-देवता को हम नहीं पा सकते। फिनलैंड का पूज्य वरुण देव, ग्रीनलैंड का अगस्त्याश्रम; जर्मनी, इटली और फ्रांस के कतिपय अवशेष; दक्षिणी अमेरिका के अनेक चिह्न; चीन, जापान, लंका आदि में फैला हुआ बौद्ध-धर्म, जावा, सुमात्रा, कम्बोज, मलय द्वीप की सामाजिक परंपराएँ जिस अमिट संस्कृति की ओर संकेत कर रही हैं, वह उन स्थानों से मिट गई। काल के कराल हाथों ने उनको नष्ट कर दिया।
प्राचीन युग में संस्कृति के निर्माण में धर्म का हाथ होता था। जैसे-जैसे राष्ट्रीयता का घोष प्रबल हुआ, संस्कृति में धर्म का स्थान गौण हो गया। रूस और चीन का यवन मिस्र और अन्य अरब राष्ट्रों की मुस्लिम संस्कृति का पुजारी नहीं रहा। वह ‘रशियन’ और ‘चाइनी’ संस्कृति का प्रतीक है। पाश्चात्य राष्ट्रों के मूल भारतीय निवासी आज भारतीय-संस्कृति के सच्चे प्रतीक नहीं कहे जा सकते। मॉरीशस और नेपाल का हिंदू परिवर्तित भारतीय संस्कृति का उपासक नहीं माना जा सकता। आज धर्म राष्ट्र और नस्ल के आधार पर प्रतिष्ठित होते हैं। रोमन कैथोलिक चर्च को छोड़कर ईसाई दुनिया का भी यही हाल है।
संस्कृति कोई स्थिर वस्तु नहीं है। यह सतत विकासमान प्रक्रिया है, जीवन की शैली है। समाज की मान्यताओं, आदर्शों एवं मूल्यों का संगठन है। युगानुरूप परिवर्तनों को आत्मसात् करती हुई अबाध गति से प्रवहमान धारा है। इसके प्रवाह को, इसके विकास को, इसकी गतिशीलता को अवरुद्ध करने का प्रयास निष्फल होगा, उपहासास्पद होगा।
आज विश्व के समाजों में तीव्र गति से परिवर्तन हो रहा है। परिवर्तन समाज की अनिवार्य प्रक्रिया है, युग का धर्म है। समाज का पुराना सामंजस्य नष्ट हो रहा है। वह नई सभ्यता, नई मान्यता, नई आस्थाओं की तलाश में है। विश्व समाज संक्रमणकाल में परिवर्तन के लिए तड़प रहा है। इतिहास साक्षी है कि जो समाज युग-धर्म की उपेक्षा करते हैं, वह पतनोन्मुख होते हैं।
भारतीय संस्कृति जीवंत संस्कृति है। भारतीय समाज अजर और अमर है। भारतीय समाज और संस्कृति परिवर्तन में ही फलते-फूलते रहे हैं। इसे संघर्षों में ही जीवंत अमरता प्राप्त हुई है। अतीत की विशेषताओं को इसने छोड़ा नहीं, आधुनिकता की उपयोगिता को अस्वीकारा नहीं। पवित्र विवाह संस्कार में लोग आज प्लेटों और चम्मच से स्टैण्डिग भोजन करते हैं, किंतु संस्कार में वैदिक रीति अपनाते हैं। धार्मिक कृत्य में जहाँ धोती और अँगोछे को सहर्ष अपनाते हैं, वहाँ कार्यालय के लिए कोट-पैंट भी पहनते हैं। चंदन भी लगाते हैं, तो क्रास का प्रतीक टाई भी बाँधते हैं। घर में दीपावली पूजन करते हैं तो ईद की मुबारकबाद देकर मुसलमान दोस्तों से गले भी मिलते हैं। इसीलिए तो महाकवि इकबाल को कहना पड़ा-
यूनान मिश्र रोमां, सब मिट गए जहाँ से।
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी॥
संस्कृति की महत्ता के लिए व्यक्तिगत चित्त और समाज चित्त को प्रभावित करना होगा। युग की आवश्यकताओं और आकाँक्षाओं के अनुरूप जीवन के मूल्य और पुरुषार्थ के उद्देश्य निर्धारित करने होंगे। उन्हीं के अनुकूल चित्त को उदात्त और प्रवृत्तियों को परिष्कृत करना होगा, तभी समाज सत्यं शिवं, सुंदरम् की ओर बढ़ सकेगा।