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धर्म-निरपेक्ष भारत

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भारतवर्ष के संविधान की एक बहुत बड़ी विशेषता यह है कि यह धर्म – निरपेक्ष राज्य है। अंग्रेजी में इस राज्य-पद्धति को ‘सेकुलर गवर्नमेण्ट’ कहते हैं। जब संविधान में धर्म-निरपेक्षता का निश्चय हुआ, तब बहुत से लोगों ने इसका विरोध किया था। आज भी बहुत से विचारक यह मानते हैं कि धर्म-निरपेक्षता आदर्श नहीं है।

आक्षेप

हमारा महान देश धर्म-प्रधान रहा है। धर्मं उसकी आत्मा में है। उसकी उपेक्षा करके हम भारतीय संस्कृति के मूल तत्त्व को नष्ट कर रहे हैं। भारतवर्ष अत्यंत प्राचीन काल से हिंदुओं का देश रहा है और आज भी देश-विभाजन के पश्चात् भी— इस देश में लगभग 31 करोड़ हिंदू थे, जब कि अन्य सब मतावलम्बियों की संख्या पाँच करोड़ से अधिक नहीं थी। इसलिए भारतवर्ष के संविधान में ईश्वर और धर्म को अवश्य स्वीकार किया जाना चाहिए। यह क्या खेद की बात नहीं है कि राम और कृष्ण के देश में, वेदों, उपनिषदों और पुराणों के देश में, ऋषियों और मुनियों के देश में जो संविधान बने, उसमें संसार की सबसे महान् शक्ति ईश्वर का उल्लेख भी न हो। भारतवर्षं हिंदुओं का राज्य रहा है और आज भी है। अतएव यह हिंदू राज्य होना चाहिए। ऐसे विचारक इस आरोप का विरोध करते हैं कि भारत को ‘हिंदू राज्य’ कहने से दूसरे संप्रदायों की स्थिति चिंताजनक हो जाएगी। उनका कहना है कि संविधान में अल्पसंख्यक जातियों को उनके हितों की, उनके धर्म, भाषा, रीति-रिवाज, पूजा-पाठ आदि की स्वतंत्रता की गारंटी दी जाएगी। देश का सामान्य धर्म हिंदू होते हुए भी प्रत्येक नागरिक अपने-अपने धर्म पालन में स्वतंत्र होगा। इसके समर्थन की पुष्टि में वे इंग्लैण्ड आदि देशों का उदाहरण देते हैं। इंग्लैण्ड प्रोटेस्टेंट ईसाइयों का राज्य है, किंतु वहाँ सभी धर्म अपनी-अपनी संस्कृति और धर्म को मानने में स्वतंत्र हैं। इसलिए इस आरोप में कोई सच्चाई नहीं है कि भारत को हिंदू राज्य घोषित कर देने से हिंदू-भिन्न धर्मों के साथ कोई अत्याचार या अन्याय होने लगेंगे या उनका देश में रहना कठिन हो जाएगा।

धर्म-विहीन राज्य स्वयं एक बड़ा दोष है। ऐसे राज्य में नीति और चरित्र की रक्षा भी सुगम नहीं होगी। जिस देश के बच्चे धर्म-विहीन राज्य का आदर्श अपने सामने देखेंगे, उनसे कैसे यह आशा की जा सकती है कि वे वेद और उपनिषद्, गीता तथा दर्शन, संतों और गुरुओं की पुण्य शिक्षाओं का अनुसरण भी करना चाहेंगे। धर्म -विहीन राज्य का आदर्श देश को भयंकर भौतिकवादी बना देगा।

इसमें संदेह नहीं कि उपर्युक्त युक्तियों में एक सच्चाई है। भारतवर्ष में अपने देश की महान् पुण्य धार्मिक संस्कृति की रक्षा अवश्य की जानी चाहिए। देश को अपनी संस्कृति से विहीन कर देना उसकी आत्मा का हनन कर देना है। महात्मा गांधी इस महान् राष्ट्र के निर्माता है। वे प्राचीन संस्कृति के, जिसका मूल उद्गम धार्मिकता, ईश्वर – विश्वास और त्यागमय जीवन में है, के महान् -समर्थक थे। भारत को उस संस्कृति से विमुख कर देना कहाँ तक उचित है?

विशेष परिस्थितियों की प्रतिक्रिया

प्रश्न यह है कि वे कौन सी परिस्थितियाँ थीं अथवा वे कौन-से कारण थे, जिनसे विवश अथवा प्रेरित होकर भारत जैसे धार्मिक देश के संविधान के निर्माताओं ने राज्य को धर्म-निरपेक्ष घोषित कर दिया। भिन्न-भिन्न विचार- धाराएँ भिन्न-भिन्न परिस्थितियों का परिणाम होती हैं। जब संविधान बना, तब भारत सांप्रदायिकता का भीषण उन्माद देख चुका था, जिसमें हिन्दुओं, सिक्खों व मुसलमानों का हजारों की संख्या में कत्लेआम किया गया था। देश की पुत्रियों की सरे बाजार में इज्जत लूटी गई थी। हमारे महान् देश को दो परस्पर युद्ध-शील राज्यों में बाँट दिया गया। यह परिस्थितियाँ थी, जिनमें देश का नया संविधान बना। इसलिए यह स्वाभाविक था कि देश के प्रतिनिधि संप्रदाय, मजहब व धर्म के प्रति कठोर विरोधी रुख अपनाते। इस धर्म के नाम पर जब महान् पवित्र देश में मनुष्य पशु से भी बदतर हो गया था, धर्म के संबंध में सहानुभूति की भावना नष्ट हो गई। इस धर्म-विरोधी वातावरण में हमारा संविधान बना। उस समय हमारे देश के प्रतिनिधि यह सोच रहे थे कि जिस धर्म के नाम पर यह सब बर्बर काण्ड हुए हैं, उसको भुला देना ही अच्छा है। कम से कम राज्य और संविधान की दृष्टि में उसकी सत्ता स्वीकार नहीं की जानी चाहिए। धर्म के प्रति यह प्रतिक्रिया अत्यंत स्वाभाविक थी और इसके लिए देश के विधान-निर्माताओं को दोष नहीं दिया जा सकता। यह भी ठीक है कि हमारे कुछ नेताओं का दृढ़ विश्वास था कि धर्म को सब स्थानों पर थोपना उचित भी नहीं है।

राज्य और धर्म

राज्य का धर्म के साथ क्या संबंध है, इस प्रश्न पर कुछ अधिक गंभीर विचार की आवश्यकता है। राज्य का संबंध नागरिक की भौतिक उन्नति से है। उसका कर्त्तव्य नागरिक की शारीरिक, आर्थिक, सामाजिक और भौतिक उन्नति के लिए आवश्यक सुविधाएँ उत्पन्न करना है। देश की स्वतंत्रता की रक्षा तथा देश में शांति और व्यवस्था कायम रखना उसके प्रधान कर्त्तव्य है। उसकी दृष्टि में सब नागरिक चाहे वह किसी धर्म के मानने वाले हों, एक समान हैं। कोई धर्म विशेष उसकी दृष्टि में महत्त्व नहीं रखता। धर्म का संबंध मानव के परलोक से है इस लोक से नहीं। कानून की दृष्टि में किसी धर्म विशेष को मानने वाला न ऊँचा होना चाहिए न नीचा। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि जब हम ‘धर्म’ शब्द का प्रयोग कर रहे हैं, तब सत्य, नैतिकता, परोपकार, दया तथा सदाचारमय जीवन का उल्लेख नहीं कर रहे। यह तो मानव के शाश्वत धर्म हैं, जिनके आदेश सभी संप्रदायों के धर्म-ग्रंथों में दिए गए हैं। हमारा कहने का अभिप्राय यह है कि राज्य का किसी संप्रदाय विशेष से संबंध नहीं होना चाहिए। इसलिए यह भय निराधार है कि भारत को हिंदू व धर्म-विशेष का राज्य न कहने से देश धर्म के उदात्त तत्त्वों को छोड़कर अनैतिक हो जाएगा। वस्तुतः सैकुलर शब्द का अर्थ न धर्म-विहीन राज्य है न धर्म निरपेक्ष।  मानव-धर्म की उपेक्षा करें तो कोई राज्य चल ही नहीं सकता। चोरी, अहिंसा, बलात्कार और बेईमानी आदि अनैतिक पापों को रोकना तो राज्य का परम उद्देश्य होता है। ‘सैकुलर’ शब्द का ठीक अर्थ तो यह है कि किसी संप्रदाय विशेष से राज्य का संबंध न हो अर्थात् राज्य की दृष्टि में संप्रदाय समान हों। सैकुलर का अर्थ असांप्रदायिक राज्य है न कि धर्म-विहीन। हमें विश्वास है कि सैकुलर शब्द को ठीक समझने के पश्चात् इसका विरोध बहुत कम हो जाएगा।

धर्मराज्य से हानियाँ

पाकिस्तान ने अपने राज्य को इस्लामी राज्य घोषित किया है। इस कारण उसकी सर्वत्र निंदा हो रही है। वहाँ इसी भावना के कारण यह घोषित किया गया है कि कोई गैर-मुस्लिम राष्ट्रपति नहीं बन सकना। पाकिस्तान में शासकों के सांप्रदायिक दृष्टिकोण का ही यह स्वाभाविक परिणाम है कि वहाँ हिंदुओं पर निरंतर घोर अत्याचार हो रहे हैं। भारत के मुस्लिम शासन काल में मुसलमान बादशाहों ने इसी दुर्भावना के कारण हिंदुओं पर अत्याचार किए, यह कौन नहीं जानता। स्वय इंग्लैंग का इतिहास प्रोटेस्टेंटों और रोमन कैथोलिकों के एक दूसरे पर अत्याचारों का दुखद इतिहास है। जब कि एक दफा आप स्वीकार कर लेते हैं कि राज्य किसी विशेष धर्म को स्वीकार करता है तब उसका स्वाभाविक परिणाम यह हो जाता है कि उस धर्म को न मानने वाले हीन कोटि में आ जाते हैं और यही विचारमात्र सम्भावित अनर्थो का कारण हो सकता है। इसलिए यह आवश्यक है कि राज्य को किसी विशेष धर्म के साथ न बाँधा जाए।

समस्त धर्मों की एकता

कविवर रवीन्द्र ने हिंदू धर्म की एक बड़ी विशेषता यह लिखी है कि उसने अनेकता में एकता को देखा है। यही कारण है कि परस्पर अत्यंत विरोधी, नास्तिक, आस्तिक, शैव, शाक्त और वैष्णव, बौद्ध, जैन, वेदान्ती और द्वैतवादी सभी को हिंदू धर्म के विशाल क्षेत्र में स्वीकार कर लिया गया है। कुछ विचारकों का यह विचार है कि यदि इस्लाम तलवार और बल प्रयोग से धर्म प्रचार नहीं करता तो उसको भी महान् हिंदू धर्म अपने आँचल में ले लेता। आज धर्म का वह स्वरूप, जो किसी समय समस्त देश को एक सूत्र में बाँधता था, राज्य ने ले लिया है। आज राज्य ही देश के समस्त नागरिकों को एक सूत्र में बाँधता है। इसलिए राज्य का उत्तरदायित्व देश के समस्त संप्रदायों के लिए एक-सा हो जाता है और इसीलिए राज्य का असांप्रदायिक रहना आवश्यक है।

यदि किसी तरह देश के संविधान को हिंदू धर्म के साथ जोड़ दिया जाए, तो यह संघर्ष उत्पन्न होगा कि हिंदू धर्म का कौन-सा स्वरूप राज्य को इष्ट है। आर्यसमाजी, जैनी, हिंदू, सिक्ख तथा अन्य सांप्रदायिक परमात्मा का स्वरूप भिन्न-भिन्न मानते हैं। किसी विशेष देवता व पूजा-पाठ की विशेष पद्धति को संविधान में स्थान देना संघर्ष का कारण बन जाएगा। आज कुछ क्षेत्रों में हिंदू- धर्म की अपेक्षा अपने-अपने संप्रदाय पर अधिक बल देने की प्रवृत्ति है और वे जनसंख्या में अपने को हिंदू लिखना भी पसंद नहीं करते। काशी के एक पत्र में बौद्ध-धर्म व अशोक के राज्य-चिह्न को हिंदू कहकर आलोचना की गई थी। इस दृष्टि से भी राज्य का धर्म-निरपेक्ष व असांप्रदायिक रहना ही आवश्यक है। जहाँ तक भारतीय संस्कृति का संबंध है, वहाँ तक देश ने उसे अपनाने की दिशा में कुछ प्रयत्न किया है। देश का राज्य चिह्न अशोक का धर्म चक्र है। “सत्यमेव जयते” राज्य का आदर्श वाक्य है। देव – नागरी में लिखी गई हिंदी देश की राष्ट्रभाषा नियत हुई है। गोवध-निषेध और मद्य निषेध को भारतीय संविधान ने स्वीकार किया है। देश का नाम भारत रखा गया है। यह सब इस बात के सूचक हैं कि देश के शासक और प्रतिनिधि भारतीय संस्कृति के विरोधी नहीं है।

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