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अनुशासन की आवश्यकता पर एक निबंध

discipline anushasan ke mahattv par ek nibandh

संकेत बिंदु – (1) व्यवस्था का सृजन और अनुसरण (2) मानवीय गुणों का विकास और शालीनता (3) दुष्प्रवृतियों का त्याग और सहप्रवृतियों को ग्रहण करना (4) स्वतंत्रता और अनुशासन (5) अनुशासनहीनता बुराइयों और कुरीतियों का घर।

जीवन में व्यवस्था का अनुसरण करना ‘अनुशासन’ है; संबंधित नियमों का पालन अनुशासन है; अपने को वश में रखना अनुशासन है। नियमानुसार जीवन के प्रत्येक कार्य करना जीवन को अनुशासन में रखना है।

व्यवस्था ही सृजन का मुख्य आधार है। सूर्य, चंद्र, वायु, पृथ्वी, सभी अपने-अपने नियमानुसार चलते हैं। इनके परिभ्रमण में जरा सा भी अनुशासन भंग हो जाए, तो प्रलय मच जाएगी। चौराहे पर खड़ा ट्रैफिक पुलिस का सिपाही अनुशासन का प्रतीक है। उसकी आज्ञा के उल्लंघन का अर्थ होगा – यातायात में आपा-धापी, दुर्घटनाएँ और परिणामतः यातायात में अवरोध।

जीवन का नियंत्रण बाहरी भी होता है और आंतरिक भी। बाहरी अनुशासन अर्थात् विवशतावश अनुशासन में रहने की बाध्यता। मन जिसको स्वीकार न करे, ऐसा अनुशासन। वस्तुतः वह अनुशासन नहीं, बेबसी है। आपत्काल की वेबसी का स्मरण कर आज भी आत्मा काँप उठती है। असली अनुशासन तो वह है, जिसके लिए हमारा हृदय हमें स्वयं प्रेरित करता है।

अनुशासन से दैनिक जीवन में व्यवस्था आती है। मानवीय गुणों का विकास होता है; नियमित कार्य करने की क्षमता, प्रेरणा प्राप्त होती है और उल्लास प्रकट होता है। कर्तव्य और अधिकार का समुचित ज्ञान होता है। अनुशासन जीवन में रस उत्पन्न करके उसका विकास करता है। उन्नति का द्वार है अनुशासन। परिष्कार की अग्नि है अनुशासन जिससे प्रतिभा – योग्यता बन जाती है।

अनुशासन स्वभाव में शालीनता उत्पन्न करता है; शिष्टता, विनय और सज्जनता की वृद्धि करता है; शक्ति का दुरुपयोग नहीं होने देता। नियंत्रण पाकर शक्ति संगठित होती है और अपना प्रभाव दिखाती है। इससे व्यक्तिगत जीवन उन्नत होता है।

भोजन में अनुशासन शरीर को स्वास्थ प्रदान करता है। वस्त्र परिधान में अनुशासन अर्थात् वस्त्रों की ऋतु के अनुसार अनुकूलता शरीर को नीरोग रखती है। इंद्रियों पर अनुशासन जीवन को महान बनाता है।

आदर्श जीवन की प्राप्ति के लिए दुष्प्रवृत्तियों के त्याग के प्रयास और सद्वृत्तियों के ग्रहण के अभ्यास का दूसरा नाम है अनुशासन। मन, वचन और कर्म के संयम से जो व्यक्ति मन पर नियंत्रण कर सकता है, उसके वचन और कर्म स्वतः अनुशासित हो जाते हैं। उनमें पवित्रता आ जाती हैं। यही बात वाणी और कर्म की है। वाणी का अनुशासन मन और कर्म, दोनों को निर्मल बनाने में सहायक होता है और कर्म की पवित्रता वाणी में ओज और मन में पुण्य की भावना उत्पन्न करती है।

किसी कार्य के प्रति एकाग्रता, ध्यान अथवा साधना अनुशासन पर ही अवलंबित है। कभी-कभी साधना करते-करते इंद्रियाँ मन का शासन स्वीकार नहीं करतीं, बेकाबू हो जाती हैं। इन मनचली स्थिति में दृढ़ता जाती रहती है, काम की पकड़ ढीली हो जाती है, आनंदप्रद सफलता नहीं मिल पाती। यहाँ आकर गीता हमें उपदेश देती है- ‘बार-बार प्रयत्न करने का।’ और अंत में हम अनुशासन की चरम सीमा प्राप्त कर लेंगे, जहाँ कार्य, विचार और शब्द नपे-तुले रूप में सम्मुख आएँगे।

कुछ लोग अनुशासन को स्वतंत्रता में बाधक मानते हैं। ऐसा सोचना तथ्य को जुठलाना है। अनुशासन में भी नियंत्रण रहता है और स्वतंत्रता में भी। नियंत्रण दोनों में है। स्वतंत्रता का अर्थ है – स्वयं अपना नियंत्रण। अपने पर नियंत्रण रखना भी एक प्रकार का अनुशासन है। स्वतंत्रता जहाँ अपने अधिकार की रक्षा करती है, वहाँ दूसरों के अधिकारों को भी उतना ही अवसर प्रदान करती है। अतः स्वतंत्रता जहाँ अनुशासनहीन हो जाती है, नियम- पालन की सीमा तोड़ देती है, वहाँ स्वच्छंदता आ जाती है। आप वर्षा से बचाव के लिए छाता लेकर पटरी पर चल रहे हैं। ठीक है, आप वर्षा से अपने बचाव के लिए स्वतंत्र हैं, किंतु यदि आप छाते से क्रीड़ा करें तो यह स्वच्छंदता होगी। कारण, आपकी अनुशासनहीनता से छाता पटरी पर चलते किसी व्यक्ति की आँख में लग सकता है, या शरीर के किसी भाग को चोट पहुँचा सकता है।

छात्र जीवन की अनुशासनहीनता में विद्यार्थी भस्मासुर की भाँति अपना ही सर्वस्व स्वाहा कर लेता है। कारण, मन की रोषपूर्ण और विनाशकारी प्रवृत्ति उसके अध्ययन में बाधक होती है। पारिवारिक जीवन की अनुशासनहीनता कलह को जन्म देती है। कलह अशांति की जननी है। अशांति सुख-समृद्धि का शत्रु है। सुख-समृद्धि का अभाव पारिवारिक जीवन का विनाश करता है। अनुशासनहीन समाज में बुराइयाँ, कुरीतियाँ तथा कुप्रथाएँ घर कर लेती हैं। नैतिक गुणों का ह्रास होगा तो परस्पर सहयोग, सद्भाव और सह-अस्तित्व की भावना लुप्त होगी। समाज अवनति के गर्त की ओर तीव्रता से बढ़ेगा। विनाश के महासमुद्र में डूबने को तत्पर रहेगा। राष्ट्र की अनुशासनहीनता तो अति हानिकर है। राष्ट्रीय जीवन में अनुशासनहीनता राष्ट्र के प्रति शत्रुता है। राष्ट्रीय जीवन को विषाक्त करने का माध्यम है। परतंत्रता को निमंत्रण देने वाला है; राष्ट्र को विनाश के गड्ढे में धकेलने का दुष्कृत्य है।

जीवन में अनुशासन-पालन न केवल आवश्यक ही है, अपितु अनिवार्य भी है। अनुशासित रूप में चलने पर ही जीवन की सफलता आधारित है। जहाँ अनुशासन नहीं, वहाँ सफलता नहीं, समृद्धि नहीं, विकास नहीं। तभी तो महाभारत युद्ध से पूर्व अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण से कहा था – ‘शाधि मां त्वां प्रपन्नम्’ (प्रभो ! मैं आपकी शरण में हूँ, मुझे अनुशासित कीजिए।)

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