संकेत बिंदु – (1) व्यक्तिगत स्वार्थ मनुष्य का विनाशक (2) कवि प्रसाद का उदाहरण (3) अशांत मन जीवन के लिए अभिशाप (4) वैमनस्य ज्ञान का दंभ (5) सुख प्राप्ति के रहस्य।
प्रसाद जी की कामायनी का मनु जीवन में वैयक्तिक सुख को सर्वोपरि मानते हुए श्रद्धा से कहता है, ‘क्या संसार में वैयक्तिक सुख तुच्छ है? इस क्षणिक जीवन के लिए तो यह अपना सुख ही सब कुछ है।’ इस पर श्रद्धा कहती है, ‘व्यक्ति को मुख प्राप्त करना चाहिए, किंतु सब कुछ अपने में ही सीमित करके कोई व्यक्ति कैसे सुख पा सकता है? यह एकांत स्वार्थ तो अत्यंत भयंकर है। व्यक्तिगत स्वार्थ मनुष्य का विनाशक है, उससे कभी किसी का विकास नहीं होता। जीवन को सुखी बनाने का सर्वश्रेष्ठ ढंग यह है-
औरो को हँसते देखो मनु / हँसो और सुख पाओ।
अपने सुख को विस्तृत कर लो / सबको सुखी बनाओ॥
हे मनु ! संसार में अपने जीवन को सुखमय बनाने की शैली यह है कि तुम ऐसे कार्य करो, जिससे दूसरे प्रसन्न हों तथा तुम्हें भी प्रसन्नता प्राप्त हो और इस प्रसन्नता से तुम्हें भी सुख मिलेगा। इस प्रकार निरंतर सत्कर्म करते हुए दूसरों को प्रसन्न बनाते हुए तुम अपने सुख का विस्तार करो और संसार के दूसरे प्राणियों को भी सुखी बनाने का प्रयत्न करो।
व्यक्ति और समाज के संबंधों के विषय में प्रसाद जी की स्पष्ट धारणा है कि व्यक्ति समाज का अंग है। समाज के कल्याण के बिना व्यक्ति कल्याण की कल्पना ही नहीं की जा सकती। मनुष्य का कर्तव्य है कि अपने ‘मैं’ का विस्तार कर समाज के ‘हम’ में विलीन कर दे।
पुष्पकली का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए प्रसाद जी लिखते हैं-’यदि किसी उपवन की समस्त अविकसित कलियाँ सारी सुगंध को अपनी पंखुड़ियाँ में ही बंद करके पड़ी रहें और विकसित होकर मधुर-मकरंद की बूंदों से तनिक भी सरस न हों तो वे मुरझाकर पृथ्वी पर गिर जाएँगी। इस प्रकार वे सुगंधानुभूति से न केवल स्वयं वंचित रहेंगी, अपितु वातावरण को भी सुगंधित नहीं कर पाएँगी। पृथ्वी पर सर्वत्र फैलकर आनंद और हर्ष बढ़ाने वाली मधुर सुगंध कहीं भी नहीं मिल सकेगी। इसी प्रकार जो मनुष्य समस्त सुखों को अपने तक सीमित करके पड़ा रहेगा, वह न तो स्वयं सुखी रह पाएगा और न उसके इस कार्य में दूसरों को सुख मिलेगा। हाँ, कलियों की भाँति मुरझाकर, दुखी होकर इमी संसार में विलीन हो जाएगा।’
दूसरी ओर, यदि व्यक्ति समस्त फूलों को संग्रहीत कर एकांत में बैठकर सुगंध का आनंद लेना चाहे और शेष फूलों का विकास अवरुद्ध हो जाए तो वह क्षणिक सुख तो प्राप्त कर सकता है, निरंतर या सदैव सुख नहीं। इसी प्रकार मनुष्य दूसरों के सुख की उपेक्षा कर समस्त सुखों का एकांत में बैठकर सुख भोगना चाहे तो दूसरों की प्रसन्नता नष्ट हो जाएगी। वे सुखी नहीं रह सकेंगे। उनकी पीड़ा और व्यधा के कारण व्यक्ति का एकांत-सुख भी सुख न रहेगा।
समस्त प्राणी प्रसन्न रहें, दूसरों पर भी स्नेह रखें, समस्त प्राणियों का कल्याण हो, सभी निर्भय हों। किसी को कोई भी शारीरिक या मानसिक कष्ट न हो। समस्त प्राणी सबके प्रति मित्रभाव के पोषक हों। जो मुझसे प्रेम करता है, उसका संसार में सदा कल्याण हो और जो मेरे प्रति द्वेष रखता है, उसका भी सदा कल्याण ही हो।’ इसके विपरीत औरों को हँसते देखकर, सुखी और प्रसन्न देखकर यदि मानव ईर्ष्या और द्वेष करेगा, वैमनस्य पालेगा, कुढ़ेगा जलेगा तो मन में चाहे वह प्रसन्न हो ले, किंतु यह क्षणिक सुख स्वयं के जीवन को क्षतिग्रस्त करेगा। मन को अशांत करेगा। रात की नींद उड़ाएगा और दिन की कार्यशीलता खंडित करेगा। अशांत मन जीवन के लिए अभिशाप है।
स्वेट मार्टेन की धारणा है, ‘मानव-मन में द्वेष जैसी भयंकरता उत्पन्न करता है, वैसी कोई दूसरी वस्तु नहीं करती।’ विदुर जी का मत है, ‘जिनका हृदय द्वेष की आग में जलता हैं, उन्हें रात में नींद नहीं आती।’ वेदव्यास जी का कहना है कि ‘द्वेषी को मृत्यु-तुल्य कष्ट भोगना पड़ता है।‘
वैमनस्य ज्ञान का दंभ है। कुलनाश के लिए बिना लोहे का शस्त्र है। वैमनस्य करने वाले व्यक्ति क्रोध में क्या-क्या नहीं कर डालते। इसलिए धम्मपद उपदेश देता है, ‘यहाँ संसार में वैमनस्य से वैर कभी शांत नहीं होता, अवैर से ही शांत होता है, यही सनातन धर्म है।’ अतः हे मानव! अपने को प्रसन्न और सुखी रखने के लिए दूसरों के प्रति वैर- भाव को तिलांजलि दे।
इसलिए दूसरों के प्रति कुत्सित भावना त्याग कर अपने ‘ अहं’ को, ‘मैं और मेरे पन’ के भाव को समाज में विसर्जित कर दे, ‘हम’ में विलीन कर दे। इस प्रकार प्रसाद जी नितांत अहं’ मूलक वैयक्तिकता का निषेध और स्वस्थ सामाजिकता का समर्थन कर रहे हैं।
इस प्रकार प्रसाद जी ने सुख प्राप्ति के रहस्य को प्रकट किया है। दूसरों को सुखी- संपन्न देखकर ईर्ष्या, द्वेष, वैमनस्य न करो, उल्टा उनके आनंद-प्रसन्नता, हर्षोल्लास में तुम भी उनका साथ दो। उनकी प्रसन्नता से अपने चेहरे को खिलाओ। इस प्रकार जब तुम्हारा सुख दूसरों के साथ ‘शेयर’ (सहभागिता) करेगा तो निश्चय ही तुम्हारा सुख बढ़ेगा। यदि कहीं दु:ख दैन्य, कष्ट-पीड़ा, निराशा हताशा है तो तुम उसमें भी उनका साथ दो। तुम्हारी हँसी उनकी व्यथित मानसिकता को स्वस्थ करेगी और जन-जन को सुखी बनाएगी।
इस विधि सुख प्राप्ति का व्यक्तिगत लाभ यह होगा, ‘संगीत मनोहर उठता, मुरली बजती जीवन की।’ सामाजिक दृष्टि से ‘प्रतिफलित हुई सब आँखें, उस प्रेम ज्योति विमला से’ की परिणति होगी। विश्वबंधुत्व की दृष्टि से, ‘चेतना एक विलसती, आनंद अखंड घना था’ का वातावरण बनेगा। और प्रकृति भी प्रसन्न होगी।
मांसल – सी आज हुई थी, हिमवती प्रकृति पाषाणी।
उस लास रास में विहल, थी हँसती-सी कल्याणी॥